Saturday, July 29, 2023

भारतेंदु और हिंदी नवजागरण

भारतेंदु और हिंदी नवजागरण

नवजागरण का शाब्दिक अर्थ है- “नये रूप से जागना”

      हिंदी साहित्य में आधुनिक युग का आरंभ भारतेंदु से माना जाता है। उन्होंने समाज में चल रही नवजागरण की प्रक्रिया का न केवल वैचारिक धरातल पर संज्ञान लिया, बल्कि उन मूल्यों को साहित्य से जोड़कर उसे आधुनिक भाव-बोध से समृद्ध भी किया।

      * भारतेंदुयुगीन हिंदी नवजागरण 1857 ई. के आन्दोलन स्वरुप उत्पन्न हुआ। इसमें एक ओर अनेक धार्मिक एवं सामाजिक आन्दोलन का प्रभाव था तो दूसरी ओर पूँजिपति एवं सामंतवाद की टकराहट। इन दोनों के संघर्षपूर्ण द्वंद्व के टकराहट से ही हिंदी नवजागरण एवं भारतेंदु-युगीन साहित्य दोनों का विकास हुआ।

      * भारतेंदु युग मुख्यतः दो संस्कृतियों के टकराहट का काल है। जिसमे “एक ओर मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति है तो दूसरी ओर आम जनता में सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलन के लिए वातावरण भी तैयार करना था। साहित्य में, देश के बढ़ते हुए असंतोष को सिर्फ पैदा करना भर नहीं था बल्कि सदियों से चली आ रही सामंती विचारों से भी मोर्चा लेना था।” 

      भारतेंदु देश की राजनीतिक स्थितियों का बराबर खबर लेते रहे। नवजागरण के केंद्र में ‘मनुष्य’ की स्थापना है। भारतेंदु ने इसे समझा तथा देश की तत्कालीन परिस्थितियों को परखकर उसकी दुर्दशा के विषय में लिखा-

      “रोवहु सब मिलिकै आवहु भारत हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।”

      भारतेंदु केवल दुर्दशा देखकर चिंतित नहीं थे। उन्हें कारणों की भी समझ थी। इसी कारण वे अंग्रेजी शासन की आलोचना करते हुए कहते हैं –

    “अंग्रेज राज सुख-साज सब भारी। पै धन विदेश चलि जात, यहै बडि ख्वारी।।

      भारतेंदु राष्ट्रवाद के केंद्र में, आरंभ में अंग्रेजी शासन की आर्थिक आलोचना की यह राष्ट्रवाद नवजागरण की ही उपज थी। भारतेंदु सारा दोष दूसरों पर नहीं डालते हैं, बल्कि वे अपने ही लोगों को दुर्गुणों के कारण फटकारते थे।

      1884 ई. में उन्होनें देश के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण भाषण दिया, जो “बलिया व्याख्यान” के नाम से प्रसिद्ध है। नवजागरण के केंद्र में धार्मिक-सामाजिक सुधार आन्दोलन रहे। इनका मुख्य सार आडंबरों, कर्मकांडों का विरोध तथा स्त्री व शुद्र समाज की दुर्दशा में परिवर्तन का रहा। बलिया के व्याख्यान में उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया, बाल-विवाह का विरोध तथा लड़कियों की शिक्षा का समर्थन किया।

      1870 ई. में अपने युवावस्था में ही उन्होनें “लेवी प्राण लेवी” लेख में अंग्रेजों के विरूद्ध बात कही। एक युवा का ऐसा साहस देख सभी के भीतर देश प्रेम की भावना उमड़ उठी। नवजागरण की इस भावना से प्रेरित “बालकृष्ण भट्ट” ने साहित्य को जनता से जोड़ते हुए कहा–– “साहित्य जन समूह के हृदय का विकास है।”

      नवजागरण की चेतना स्वतंत्रता प्रधान थी। इसलिए वे हर प्रकार के साम्राज्यवाद का विरोध करते रहे। चाहे अंग्रेजों का हो या मुसलमानों का लेकिन वह केवल साम्राज्यवाद का विरोध है धर्मों का नहीं। वे मुसलमानों की समानता की प्रशंसा करते हैं। तमाम प्रगतिशील बातें उन्होंने अंग्रेजों से सीखीं।

      नवजागरण की पृष्ठभूमि में दो संस्कृतियों का संक्रमण है। ‘भारतीय’ संस्कृति और ‘यूरोपीय’ संस्कृति। इन दोनों संस्कृतियों के संक्रमण में यूरोप ने स्वयं को बेहतर बताकर भारतियों को असभ्य बताया। भारतेंदु ने अपने समय को समझा तथा भारतीयों को हीन भावना से बचाने का प्रयास किया। अपनी भाषा को लेकर प्रेम का भाव इसी की देन है। साथ ही गद्य की प्रधानता व उसके लिए खड़ीबोली का प्रयोग जनता को जागरूक करने के लिए भी हुआ।

भारतेंदु ने कई पत्रिकाओं का संपादन किया। उनके द्वारा सम्पादित विभिन्न पत्रिकाओं का हिन्दी नवजागरण के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा। उनके द्वारा सम्पादित “कवि वचन सुधा (1868 ई.), हरिश्चंद्र मैगजिन (1873 ई.) बाला बोधिनी (1874 ई.) में देश की उन्नति और देश के विकास को रोकने वाली कुप्रथाओं की विवेचना की गई है। ‘बाला बोधिनी’ पत्रिका तो मूल रूप से स्त्रियों के लिए निकाली गई थी। समसामयिक समस्याओं पर नाटक-निबंध आदि लिखे। यहाँ तक कि भक्ति-विषयक रचनाओं में भी देश-भक्ति संबंधी आधुनिकता का पुट है। इस प्रकार भारतेंदु हर विधागत माध्यम से नवजागरण की चेतना को संपन्न कर रहे थे।

      भारतेंदु के साहित्य में नवजागरण की चेतना पूर्ण रूप से मिलती है इसमें उनका अंतर्विरोध भी शामिल है (जैसे- राजभक्ति, देशभक्ति आदि)

      1884 ई. में भारतेंदु जब महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं की सूची ‘काल चक्र’ नाम से निर्मित कर रहे थे, उसी वक्त उन्होंने ‘हिन्दी नये चाल में ढली’ (1873 ई.) का भी उल्लेख किया। प्रश्न यह है कि दुनिया की प्रसिद्ध घटनाओं में हिन्दी का नये चाल में ढलना भी क्या एक प्रसिद्ध घटना है? अगर है तो 1873 ई. को ही इसके घटित होने का समय क्यों चुना गया?

      इसका उत्तर आचार्य शुक्ल ने दिया–– “सन् 1873 ई. में उन्होंने ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ नाम की एक मासिक पत्रिका निकाली जिसका नाम ‘हरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ हो गया। हिन्दी गद्य का ठीक परिष्कृत रूप पहले-पहल इसी ‘चन्द्रिका’ में प्रकट हुआ। भारतेंदु ने नई सुधरी हुई हिन्दी का उदय इसी समय से माना है।

      उन्होंने ‘कालचक्र’ नाम की अपनी पुस्तक में लिखा है कि, “हिन्दी नये चाल में ढली, सन् 1873 ई॰।”

      भारतेंदु लोकभाषा के समर्थक थे। वे टकसाली भाषा के विरूद्ध थे। टकसाली अर्थात गढ़ी हुई भाषा। भारतेंदु भाषा का सहज, सरल, प्रवाहमय और विनोदपूर्ण रूप स्वीकार करते थे। भारतेंदु ‘निज भाषा की उन्नति’ के पक्षधर थे। वे कहते थे :

निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल

 बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटत ना हिय को सूल

Thursday, July 20, 2023

अनुवाद

1- साल 2017 में फ़िल्म 'कैदी बैंड' से बॉलीवुड में डेब्यू करने वाले रणवीर कपूर और करीना कपूर खान की बुआ के बेटे आदर जैन लगभग 4 साल बाद एक बार फिर 'हेलो चार्ली' के जरिए फिल्मों में वापसी करने जा रहे हैं।
2 फ़िल्म की कहानी चिराग रस्तोगी उर्फ चार्ली (आदर जैन) के बारे में है,जो इंदौर से मुम्बई यूं ही बिना किसी प्लान के सफल होने के लिए आ गया है।
3 अपने मरहूम पिता का कर्ज उतारना है।
4 जल्दी से पैसा कमाने के लिए चार्ली एक काम अपने हाथ में लेता है,जिसमें उसे एक गोरिल्ला को मुम्बई से दीव तक पहुँचाना है।

Wednesday, July 19, 2023

अनुवाद

Exercise 1 B

1 साजिदा का घर बहुत बड़ा है।
2 अर्पिता अगले वर्ष स्नातक होगी।
3 काव्या अत्यंत बुद्धिमान छात्रा है।
4 मिसेज दिव्या द्वितीय वर्ष में मेरी अध्यापिका थी।
5 क्या यह मकान सौ साल पुराना है?
6 40 छात्र उपस्थित नहीं थे।
7 क्या परीक्षा का हॉल बहुत भव्य था?
8 ये विद्यार्थी हमारे प्रकाशस्तम्भ होंगे।
9 उसके पास पांच सौ रुपए हैं।
10 गुरप्रीत की दो बहनें है।

Exercise 1B

1 He made me work.
2 Get the computer purchased by your father.
3 Radha caused Sohan to get beaten.
4 Vibhuti has got his form filled.
5 I made Ramesh eat too much.


Tuesday, July 18, 2023

आधे-अधूरे




आधे-अधूरे नाटक का मुख्य बिंदु

  • ‘आधे-अधूरे’ नाटक 1969 में प्रकाशित हुआ था।  
  • आधे-अधूरे नाटक का पहली बार ‘ओमशिवपुरी’ के निर्देशन में दिशांतर द्वारा दिल्ली में फरवरी 1969 में मंचन हुआ था।
  • यह नाटक धर्मयुग साप्ताहिक पत्रिका 1969 के 3-4 अंको में प्रकाशित हुआ था।
  • यह मध्यवर्गीय पारिवारिक जीवन पर आधारित समस्या प्रधान नाटक है।
  • यह पूर्णता की तलाश का नाटक है। इस नाटक को ‘मील का पतथर’ भी कहा जाता है।
  • रंगमंच की दृष्टि से आधे-अधूरे नाटक को प्रयोगशील नाटक कहा जाता है।
  • इस नाटक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एक ही पुरुष चार-चार पुरुषों की भूमिका मात्र वस्त्र परिवर्तन के आधार पर करता है। पुरुष एक (महेन्द्रनाथ) पुरुष दो (सिंघानिया) पुरुष तीन (जगमोहन) पुरुष चार (जुनेजा) के रूप में चित्रित है।

आधे-अधूरे नाटक का उद्देश्य:

  • आधे-अधूरे नाटक के माध्यम से मोहन राकेश ने महानगरों में रहने वाले मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियों एवं विडंबनाओं का चित्रण किया है।
  • भूमंडलीकरण के इस दौर में मध्यवर्गीय परिवार के टूटते-बिखरते रिश्ते, उनका अधुरापन, कुंठा, घुटन इत्यादि को मोहन राकेश ने सावित्री और महेन्द्रनाथ के परिवार के माध्यम से सफलतापूर्वक अभिव्यक्ति किया है।
  • आधे-अधूरे नाटक में पारिवारिक विघटन, स्त्री-पुरुष संबंध, स्त्री जीवन की त्रासदी आदि का प्रभावपूर्ण चित्रण हुआ है।    

पात्र परिचय:

सावित्री: नाटक की नायिका, महेन्द्रनाथ की पत्नी उम्र 40 वर्ष

पुरुष- 1 महेन्द्रनाथ (सावित्री का पति उम्र 49 वर्ष)

पुरुष- 2 सिंघानिया (सावित्री का बौस, चीफ़ कमिश्नर)

पुरुष- 3 जगमोहन

पुरुष- 4 जुनेजा

बिन्नी: सावित्री की बड़ी बेटी उम्र 20 वर्ष  

अशोक: सावित्री और महेन्द्रनाथ का बेटा

किन्नी: सावित्री की छोटी बेटीउम्र 12,13 वर्ष

मनोज: बिन्नी का पति (मात्र संबादों में उल्लेखनीय)


नाटक का विषय:

  • मध्यवार्गीय जीवन की विडंबनाओं का चित्रण
  • पारिवारिक विघटन का चित्रण  
  • स्त्री-पुरुष सम्बन्ध का चित्रण   
  • नारी की त्रासदी का चित्रण
  • वैवाहिक संबंधों की विडंबना   

आधे-अधूरे: नाटक का कथानक

      मोहन राकेश का आधे-अधूरे नाटक एक मध्यवर्गीय, शहरी परिवार की कहानी है। इस परिवार का हर एक सदस्य अपने आप को अधूरा महसूस करता है। परिवार का हर व्यक्ति अपने को पूर्ण करने की चेष्टा करता है। परिवार में पति-पत्नी, एक बेटा और दो बेटियाँ हैं। पति महेन्द्रनाथ व्यापार में सफल नहीं होता हुआ।    

      महेन्द्रनाथ बहुत समय से व्यापार में असफल होकर घर पर बेकार बैठ जाते हैं। उसकी पत्नी सावित्री नौकरी करके घर चलाती है। महेंद्रनाथ अपनी पत्नी सावित्री से बहुत प्रेम करते हैं, किन्तु बेरोजगार होने के कारण वह पत्नी सावित्री के कमाई पर पलता हुआ अत्यंत दुखी है। उसकी स्थिति अपने ही परिवार में ‘एक ठप्पा एक रबर की टुकड़े’ की तरह है। सावित्री अपनी अन्नत और बहुमुखी अपेक्षाओं के कारण महेन्द्रनाथ से वितृष्णा करती है। जगमोहन, जुनेजा और सिंघानिया के संपर्क में आती है, किन्तु किसी में भी उसे अपनी भावनाओं की तृप्ति नहीं मिलती है। महेंद्रनाथ और सावित्री की बड़ी बेटी बिन्नी मनोज के साथ भाग जाती है। सावित्री का बेटा अशोक को भी घर के किसी सदस्य से लगाव नहीं होता है। वह भी पिता की तरह ही बेकार है। उसका नौकरी में मन नहीं लगता है। वह भी बदमिजाज और बदजुबान है। उसकी दिलचस्पी केवल अभिनेत्रियों की तस्वीरों और अश्लील पुस्तकों के सहारे बीतता है। छोटी बेटी भी इस वातावरण में बिगड़कर जिद्दी, मुँहफट तथा चिड़चिड़ी हो गई है और उम्र से पहले ही यौन संबंधों में रूचि लेने लगी है। परिवार में तनाव और माता-पिता के संबंधों के कारण उन सब में भी इस तरह की भावना घर कर गई है। इन सभी पात्रों के व्यवहारों में महेन्द्रनाथ और सावित्री के संबंधों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इस तरह इस नाटक में सभी पात्र आधे-अधूरे होने की नियति से अभिशप्त है।

निष्कर्ष- मोहनराकेश एक ऐसे नाटककार थे जिन्होंने जीवन के यथार्थ को अपनी लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। आधे-अधूरे नाटक उसी प्रयास की एक सार्थक कड़ी है। महानगरों में रहने वाले, आर्थिक अभाव के साथ कई तरह के संघर्षों को झेलने वाले मध्यवार्गीय परिवार के जीवन की त्रासदी का इस नाटक में सजीव चित्रण है। अतः इससे स्पष्ट होता है कि यह नाटक संवेदना और शिल्प दोनों धरातलों पर आधुनिक हिन्दी नाट्य की एक सफल रचना है।

Monday, July 10, 2023

हिंदी में इतिहास लेखन की परंपरा

इतिहास लेखन में प्रथम स्थान ‘गार्दा ता तासी’ का है।

  • हिन्दी में इतिहास लेखन की पंरम्परा की शुरुआत: गार्सा द तासी (फ्रेंच विद्वान) से शुरू हुई। रचना- ‘इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐंदुई ऐंदुस्तानी’ इस रचना का प्रकाशन दो भागों में किया गया। ये रचना दो संस्करण में प्रकाशित हुआ था।
  • पहले संस्करण के दो भाग हैं। इसमें पहला का प्रकाशन 1839 ई० में और दूसरा भाग का प्रकाशन 1847 ई० में हुआ था।
  • दूसरे संस्करण में तीन भाग हैं। पहला दो भाग का प्रकाशन 1870 ई० में और तीसरा भाग का प्रकाशन 1971 ई० में हुआ।
  • इसका प्रकाशक- ‘द ऑरियटल ट्रांसलेशन कमेटी आयरलैंड’ संस्था ने इसका प्रकाशन किया।
  • विशेष तथ्य: यह ‘फ्रेंच’ भाषा में रचित है।
  • इसमें कूल 738 रचनाकारों को स्थान दिया गया है।
  • इसमें हिन्दी के रचनाकारों की संख्या सिर्फ 72 है।
  • इस रचना के कूल 24 अध्याय है। यह वर्णानुक्रम पद्धति में रचित है।
  • इसमें काल विभाजन का कोई प्रयास नहीं किया गया है।
  • इसमें प्रथम कवि के बारे में कोई विचार नहीं किया गया है। (इस ग्रंथ में प्रथम कवि अंगद और अंतिम कवि हेमंत है)
  • मौलवी करीमुद्दीन ने प्रथम दो भागों का क्रमशः ‘तबकाश्शुरा’ और ‘तजकिरा-ई-शुअरा-ई-हिन्दी’ हिन्दी से 1848 ई० में ‘फ़ारसी’ में अनुवाद किया। 
  • ‘तबकाश्शुरा’ और ‘तजकिरा-ई-शुअरा-ई-हिन्दी’ मौलवी करीमुद्दीन के द्वारा अनुदित ग्रंथ में रचनाकारों की संख्या 1004 थी। इसमें हिन्दी के रचनाकारों की संख्या 60 सीमित थी।
  • 1953 ई० में डॉ लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने ‘गार्दा द तासी’ के इतिहास ग्रंथ का ‘हिंदुई साहित्य का इतिहास’ नाम से हिन्दी में अनुवाद किया। इसमें कूल रचनाकारों की संख्या 358 थी। जिसमे हिन्दी के 220 रचनाकार थे।

हिन्दी के इतिहास लेखन में दूसरा स्थान ठाकुर शिवसिंह सेंगर का है।

  • रचना- ‘शिवसिंह सरोज’
  • प्रकाशन वर्ष- 1883 ई० में हुआ था। (इसका संशोधित परिवर्धित 1888 ई० में हुआ।
  • प्रकाशन संस्था- ‘नवल किशोर प्रेस लखनऊ’ से हुआ।
  • हिन्दी में रचित हिन्दी साहित्य का यह पहला इतिहास ग्रंथ है।
  • इसमें कूल रचनाकार 1003 हैं। हिन्दी के कूल रचनाकार 769 हैं।
  • काल विभाजन का कोई प्रयास नहीं किया गया है।
  • इस ग्रंथ में पुष्य/पुंड को पहला कवि माना है।
  • यह ग्रंथ वर्णानुक्रम पद्धति में रचित है।

हिन्दी के इतिहास लेखन में तीसरा स्थान जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन का आता है।

  • रचना- ‘द मार्डन वर्नाकुलर लिट्रेचर ऑफ हिन्दुस्तान’
  • यह इतिहास ग्रंथ ‘द रॉयल ऐसियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की पत्रिका के विशेषांक के रूप में 1888 ई० में तथा एक पुस्तक के रूप में 1889 ई० में प्रकाशित हुआ।
  • इसकी पद्धति कालानुक्रम थी। कालानुक्रम पद्धति में रचित यह हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास था।
  • यह ‘अंग्रेजी’ भाषा में लिखी गई थी। इसमें कूल रचनाकार 952 थे। इसमें सभी रचनाकार हिन्दी के थे।
  • इन्होने ही ‘भक्तिकाल’ को हिन्दी साहित्य का ‘स्वर्ण युग’ कहा। भक्तिकाल को हिन्दी का साहित्य का स्वर्ण कहना सबसे बड़ी उपलब्धि है।
  • यह पहला इतिहास ग्रंथ था, जिसमे केवल हिन्दी के रचनाकारों को स्थान दिया गया था।
  • यह पहला इतिहास ग्रंथ था, जिसमे काल विभाजन का प्रयास किया गया था।

हिन्दी के इतिहास लेखन में चौथा स्थान ‘मिश्रबंधु’ का आता है।

  • ‘मिश्रबंधु’ ये तीनों सगे भाई और तीनों साहित्यकार थे। गणेश बिहारी मिश्र, श्याम बिहारी मिश्र और शुकदेव बिहारी मिश्र।
  • ये तीनों ‘मिश्रबंधु’ के नाम से रचना करते थे। इन तीनों भाइयों ने नागरी प्रचारणी सभा काशी के द्वारा हस्तलिखित ग्रंथों की खोज कर इक्कठा किया।
  • मिश्र बंधुओं ने ‘मिश्रबंधु विनोद’ नाम से हिन्दी साहित्य के एक वृहद् इतिहास की रचना किया।
  • ‘मिश्रबंधु विनोद’ के चार भाग हैं।
  • प्रथम तीन भाग का प्रकाशन 1913 ई० में हुआ था। चतुर्थ भाग का प्रकाशन 1934 ई० में हुआ। प्रकाशन संस्था नागरी प्रचारिणी सभा-काशी थी।
  • यह रचना कालानुक्रम पद्धति में रचित है। इसमें कूल रचनाकार 4591 वास्तविक संख्या है लगभग (5000)।
  • मिश्रबंधुओं ने हिन्दी साहित्य के विकाशक्रम को मुख्यतः 5 युगों में तथा उपविभाजन सहित 8 युगों में बाँटा है।
  • इन्होने आदिकाल को ‘आरंभिक काल’ के नाम से संबोधित किया है।
  • पुष्य/पुंड्र को इन्होने पहला कवि माना है।
  • रचनाकारों को इन्होने मुख्यतः तीन श्रेणियों में बाँटा है- उत्तम श्रेणी, माध्यम श्रेणी और सामान्य श्रेणी।
  • रचनाकारों को श्रेणीबद्ध करने वाले मिश्रबंधु प्रथम इतिहासकार माने जाते हैं। इन्होने कवियों का तुलनात्मक पद्धति से वर्गीकरण किया है।
  • यह इतिहास ग्रंथ नागरी प्रचारिणी सभा काशी की हस्तलिखित ग्रंथ खोज रिपोर्ट समिति के आधार पर लिखा गया था।
  • यह (मिश्रबंधु विनोद) इतिहास ग्रंथ आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास ग्रंथ का उपजीव्य अथार्त आधार ग्रंथ माना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास ग्रंथ के लिए सामग्री ‘मिश्रबंधु विनोद’ से ग्रहण किया था।

हिन्दी के इतिहास लेखन में पाँचवा स्थान आचार्य रामचंद्र शुक्ल: का आता है।

  • रचना का नाम- ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’
  • प्रकाशन वर्ष- 1929 ई०,
  • प्रकाशन संस्था- नागरी प्रचारिणी सभा काशी से हुआ था।
  • पद्धति- विधेयात्मक थी। इसमें कूल रचनाकार 997 (लगभग 1000) हैं।
  • 1908 ई० में सरयूकरण पारीक, हरदेव बाहरी और आचार्य रामचंद्र शुल्क इन तीनों को नागरी प्रचारिणी सभा काशी ने आमंत्रित किया था। हिन्दी शब्दकोष लिखने के लिए दिया गया। वह ‘शब्दकोष सागर’ 1928 ई० में तैयार कर दिया गया। भूमिका लिखने का कार्य आचार्य रामचंद्र शुक्ल को दिया गया। शुक्ल ने इसकी भूमिका ‘हिन्दी साहित्य का विकाश’ नाम से लिखा जो बहुत विशाल हो गया। उसी भूमिका को उन्होंने बाद में हिन्दी साहित्य के इतिहास के नाम से छपवा दिया।
  • संशोधित और परिवर्तित संस्करण 1940 ई० हिन्दी साहित्य के विकासक्रम को चार युगों में बाँटा और हिन्दी साहित्य का आरम्भ सिद्ध साहित्य से माना है।

हिन्दी के इतिहास लेखन में छठा स्थान डॉ रामकुमार वर्मा का आता है।

  • रचना- ‘हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’
  • प्रकाशन वर्ष- 1938 ई०
  • इसमें 693 ई० से 1693 ई० तक का ही वर्णन है।
  • इन्होने अपने इतिहास में आदिकाल से लेकर भक्तिकाल तक का ही वर्णन किया है।
  • यह इतिहास आलोचनात्मक पद्धति में लिखा गया था।
  • यह इतिहास शोध प्रबंध के रूप में लिखा गया था।

हिन्दी के इतिहास लेखन में सातवाँ स्थान आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का आता है।

  • इन्होने (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी)हिन्दी साहित्य की तीन पुस्तकें लिखी।
  • इन्हें आधुनिक युग का बाणभट्ट के नाम से भी जाना जाता है।   
  • हिन्दी साहित्य की भूमिका- 1940 ई०
  • हिदी साहित्य उद्भव एवं विकास- 1952 ई०
  • हिन्दी साहित्य का आदिकाल- 1952 / 1953 ई० (यह सबसे महत्वपूर्ण रचना है)
  • ये तीनों रचनाएँ समाजशास्त्रीय पद्धति में हैं।
  • इन तीनों रचनाओं में 1229 रचनाकारों का परिचय है।
  • इसमें तुलनात्मक पद्धति अपनाई गई है।

हिन्दी के इतिहास लेखन में आठवाँ स्थान डॉ गंपतिचंद्र चन्द्रगुप्त का आता है।

  • रचना- ‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ है।
  • इस रचना के दो भाग हैं।
  • प्रथम भाग का प्रकाशन- 1964 ई० में हुआ
  • दूसरा भाग का प्रकाशन- 1965 ई० में हुआ
  • यह वैज्ञानिक पद्धति में लिखा गया है।

हिन्दी के इतिहास लेखन में नौवां स्थान डॉ नगेन्द्र का आता है।

  • रचना- ‘हिन्दी साहित्य का वृहद् इतिहास’।
  • इसमें दस खण्ड हैं।
  • प्रकाशन वर्ष- 1973 ई० है।  

हिन्दी के इतिहास लेखन में दसवाँ स्थान नागरि प्रचारिणी सभा काशी का आता है।

  • नागरि प्रचारिणी सभा, काशी ने हिन्दी साहित्य के संपूर्ण इतिहास को 18 खण्डों में प्रकाशित करने की योजना बनाई थी किन्तु संपूर्ण इतिहास 16 खंडो में ही पूर्ण हो गया।
  • प्रथम खंड- ‘हिन्दी साहित्य की पीठिका’ थी। इसके संपादक राजबली पांडे थे।
  • सोलहवाँ खंड- ‘हिन्दी का लोक साहित्य’ थी। इसके संपादक राहुल सांस्कृत्यायन थे।

हिन्दी साहित्य के इतिहास से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण रचनाएँ:

  • ‘भाषा काव्य संग्रह’ (1873 ई०) महेशदत्त शुक्ल
  • ‘हिन्दी कोविंद रत्नमाला’ डॉ श्यामसुंदर दास है। इनके रचना के दो भाग है।
  • प्रथम भाग (1909 ई०) में और दूसरा भाग (1914 ई०) में प्रकाशित हुआ था।
  • ‘कविता कौमुदी’ (1917 ई०) रामनरेश त्रिपाठी
  • ‘हिन्दी के मुसलमान कवि’ (1926 ई०) गंगा प्रसाद अखोरी
  • ‘ब्रज माधुरी सार’ (1923 ई०) वियोगी हरि
  • ‘मॉडन हिन्दी लिटरेचर’ (1939 ई०) डॉ इन्द्रनाथ मदान
  • ‘खड़ी बोली हिन्दी साहित्य का इतिहास’ (1914 ई०) ब्रजरत्न दास
  • ‘हिन्दी साहित्य: बीसवी शताब्दी’ (1950 ई०) आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी
  • ‘हिन्दी का गद्य साहित्य’ (1955 ई०) रामचंद्र तिवारी
  • ‘हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास’ (1996 ई०) डॉ बच्चन सिंह
  • ‘हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास’ (1986 ई०) डॉ रामस्वरुप चतुर्वेदी
  • ‘हिन्दी साहित्य: युग एवं प्रवृतियाँ’- शिवकुमार शर्मा
  • ‘हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास’- सुमन राजे
  • ‘राजस्थानी साहित्य की रुपरेखा’ (1939 ई०) डॉ मोतीलाल मेनारिया
  • ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य’ (1925 ई०) डॉ कृष्णलाल
  • ‘सुकवि सरोज’ (1927 ई०) गौरीशंकर दिवेदी
  • ‘हिन्दी भाषा और उसके साहित्य का विकास’ (1930 ई०) अयोध्या सिंह ‘हरिऔंध’

इतिहास के स्त्रोत अंत साक्ष्य

डॉ रामकुमार वर्मा ने इतिहास के स्त्रोत को दो भागों में विभक्त किया है –

अंतःसाक्ष्य- आतंरिक स्त्रोत अथार्त (जीवनी) रामचरितमानस, कामायनी

बाह्य स्त्रोत- बाहरी स्त्रोत अथार्त किसी का टीका लिखना, आलोचनात्मक बाहरी सोच है। ‘अंतःसाक्ष्य’ को सबसे प्रमाणिक माना गया है।

दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता और चौरासी वैष्णवन की वार्ता ये दोनों गद्य रचनाएँ हैं। इस दोनों ग्रंथों के रचनाकार- गोकुलनाथ हैं। इनका रचनाकाल वि०स० 1625 है। इसे इसवीं बनाने के लिए 57 घटा देने पर 1568 ई० होगा। ये दोनों रचनाएँ गद्य हैं। इसमें पुष्टिमार्ग में दिक्षित भक्त कवियों का परिचय दिया गया है। इसमें सिर्फ पुष्टिमार्ग के भक्त कवियों का वर्णन मिलता है।

इतिहास के स्त्रोत के रूप में दूसरी रचना ‘भक्तमाल’ है। भक्तमाल के रचनाकार नाभादास थे। नाभादास का एक अन्य नाम नारायणदास भी था। रचनाकाल वि०स० 1642-57= 1585 ई० था। इसमें 316 छप्पय छंदों में 200 भक्त कवियों का जीवन परिचय दिया गया है। इसमें 116 रामभक्त कवि और 84 कृष्णभक्त कवि हैं।

इसके दो खण्ड हैं:

  • पहला खण्ड में 84 कृष्णभक्त कवियों का परिचय है।
  • दूसरा खण्ड में 116 कृष्णभक्त कवियों का परिचय है। इस रचना में नाभादास ने तुलसीदास को सबसे बड़ा भक्त कवि माना है।

‘मूलगोसाई चरित’ इसके रचनाकार वेनिमाधाव दास थे। वेनिमाधाव दास तुलसीदास के शिष्य थे। रचनाकाल विंसं 1687-57=1630 ई०। इस रचना में दोहा, चौपाई, त्रोटक छंदों में तुलसी का जीवन परिचय दिया गया है इसमें तुलसी का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मिलता है इसकी भाषा अवधी है इसी रचना के आधार पर अमृतलाल नागर ने तुली का जीवनी ‘मानस के हंस’ लिखा।

‘भक्तनामावाली’ इसके रचनाकार ध्रुवदास थे। इसका रचना काल विंस० 1698-57=1641 ई० है। यह पद्य रचना है। इसमें 116 भक्त कवियों का परिचय है। इसमें अंतिम नाम नाभादास का है। रचना की भाषा अवधी है।

‘कालिदास हजारा’ इसके रचनाकार कालिदास त्रिवेदी हैं। रचनाकाल वि०सं० 1775-57 =1715 ई० है। इसमें 212 भक्त कवियों के एक हजार पदों का संकलन है। इसी रचना के आधार पर शिवसिंह सेंगर ने ‘शिवसिंह सरोज’ की रचना की थी।

‘काव्यनिर्णय’ यह एक नीति ग्रंथ है। इसके रचनाकार भिखारीदास हैं। रचनाकाल वि० सं० 1782-57=1725 ई० है। यह एक नीति ग्रंथ है किन्तु कुछ इतिहास विषयक जानकारी भी इसमें मिलती है। इसलिए इसे इतिहास के स्त्रोत में शामिल किया गया है।

‘कविनामावली’ इसके रचनाकार सूदन हैं। रचनाकाल वि०सं० 1810-57=1753 ई० है। हैइस रचना में 10 कवित्त छंदों में 10 कवियों का परिचय दिया हुआ है।

‘राग सागरोदभव राग’ इसके रचनाकार- कृष्णानंद हैं।  रचनाकाल- वि सं 1900 है। इस रचना में सौ से अधिक कृष्ण भक्त कवियों का परिचय दिया गया है। साथ ही उनके रचनाओं की समीक्षा भी की गई है।

‘श्रृंगार संग्रह’ रचनाकार- सरदार कवि हैं। रचनाकाल- वि०सं० 1904 है। इस रचना में 125 से अधिक रचनाकारों का परिचय है। उनकी रचनाओं में उदाहरण और काव्यांगों (रस, छंद, अलंकार शब्द शक्ति आदि) की विवेचना भी विवेचना है।

‘कवि रत्नमाला’ रचनाकार- मुंशी देवी प्रसाद हैं। रचनाकाल वि०सं० 1968 है। इसमें राजस्थान के 108 रचनाकारों का परिचय दिया गया है। इसमें अनेक कवित्त, सवैया, छंदों का संग्रह है। इस रचना के दो भाग हैं।

‘गोरखनाथ एण्ड दी कनफटा योगीज’ रचनाकार- ब्रिग्स, रचनाकाल- वि०सं० 1955 है। इसमें गोरखनाथ और नाथ सम्प्रदाय के धार्मिक सिद्धांतों का वर्णन है।

साहित्य की लेखन पद्धति

इतिहास लेखन की प्रमुख पद्धतियाँ निम्नलिखित हैं :

वर्णानुक्रम पद्धति: वह पद्धति जिसमें रचनाकारों का परिचय वर्णमाला के वर्णों के अनुक्रम से दिया जाता है। उसे वर्णानुक्रम पद्धति कहते हैं। यह इतिहास लेखन की सबसे प्राचीन पद्धति है। यह अमनोवैज्ञानिक पद्धति है। ‘गार्सा द तासी ने ‘इस्तावार द ला लितरेत्युवर एंदुई ऐदुस्तानी’ तथा ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने ‘शिवसिंह सरोज’ में इसी पद्धति का प्रयोग किया था।

कालानुक्रम पद्धति: सबसे अधिक इतिहास इसी पद्धति में लिखा गया। वह पद्धति जिसमें रचनाकारों का परिचय उनके जन्मकाल के अनुसार यानी उनके युग के अनुसार दिया जाता है। उसे कालानुक्रम पद्धति कहते हैं। यह इतिहास लेखन की सबसे लोकप्रिय और प्रचलित पद्धति है। इस पद्धति का सबसे पहले प्रयोग जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने ‘द मॉडन वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ नामक इतिहास ग्रंथ में किया था। यह ग्रंथ अंग्रेजी में लिखा गया था।

वैज्ञानिक पद्धति: यह इतिहास लेखन की वह पद्धति है, जिसमे शास्त्रीय मान्यताओं, भाषा- विज्ञान आदि के सिधान्तों के आधार पर रचनाओं का मूल्यांकन किया जाता है। उसे वैज्ञानिक पद्धति कहते है। हिन्दी में इस पद्धति का प्रयोग सबसे पहले डॉ गणपति चंद्र गुप्त ने ‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ में किया था।

आलोचनात्मक पद्धति: वह पद्धति जिसके अंतर्गत रचनाकारों के परिचय से अधिक उनकी रचनाओं के गुण और दोष बताने पर बल दिया जाता है। उसे आलोचनात्मक पद्धति कहते हैं। डॉ रामकुमार वर्मा ने सबसे पहले इस पद्धति का प्रयोग ‘हिन्दी साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास’ में किया था। यह 1938 ई० में लिखा गया था। यह ग्रंथ अभी तक अधूरा है।

समाजशास्त्रीय पद्धति: इतिहास लेखन की वह पद्धति जिसमे रचनाकारों का मूल्यांकन उनके द्वारा समाज को प्रभावित करने के आधार पर किया जाता है। उसे समाजशास्त्रीय पद्धति कहते है। आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी जी ने अपने तीनों इतिहास ग्रंथों में इसी पद्धति का प्रयोग किया है। ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ (1940), ‘हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास’ (1952), हिन्दी साहित्य का आदिकाल (1953)।

विधेयवादी पद्धति: यह इतिहास लेखन की नवीनतम और सर्वश्रेष्ठ पद्धति है। जिस पद्धति में रचनाकार के जाति, वातावरण, क्षण, युग विशेष की प्रवृति, भाषा का विकास क्रम, शास्त्रीय मान्यताओं, रचनाकार को समाज की देन आदि सभी घटनाओं पर मूल्यांकन किया जाता है। उसे विधेयवादी पद्धति कहते हैं। विश्व में सबसे पहले इस पद्धति का प्रयोग ‘तेन’ ने किया था। तेन इस पद्धति के ‘जन्मदाता’ माने जाते हैं। हिन्दी में इस पद्धति का प्रयोग सबसे पहले आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया। दोहरा नाम करण इसी पद्धति की विशेषता है। इसी कारण उनके इतिहास ग्रंथ को सच्चे अर्थों में हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास माना जाता है।

इतिहास के स्त्रोत

इतिहास शब्द की व्युत्पति संस्कृत भाषा के तीन शब्दों से (इति+ह+आस) हुआ है। ‘इति’ का अर्थ है ‘जैसा हुआ वैसा ही’ ‘ह’ का अर्थ है, ‘सत्य या सचमुच’ तथा ‘आस’ का अर्थ है, ‘निश्चित घटित होना’। अथार्त जो घटनाएँ अतीत काल में निश्चित रूप से घटी है, वही इतिहास है।’

इतिहास का अर्थ- इतिहास दो शब्दों के मेल से बना है इति+हास जिसका अर्थ होता है,“ऐसा ही हुआ” अथार्त इतिहास शब्द का अर्थ है। अतीत के घटित घटनाओं का क्रमबद्ध व्युरो।  

इतिहास की परिभाषा- “इतिहास सामाजिक जीवन की वह शाखा है, जिसके अंतर्गत अतीत काल की घटनाओं या उससे संबंध रखने वाले व्यक्तियों का काल क्रमानुसार अध्ययन किया जाना।

इतिहास की परिभाषा विद्वानों के अनुसार:

इतिहास (history)’ शब्द का प्रयोग ‘हेरोडोटस’ ने अपनी पहली पुस्तक ‘हिस्टोरिका’ (historical) में किया था। हेरोडोटस को इतिहास का ‘जनक’ माना जाता है।

हेरोडोटस के शब्दों में- “सत्य घटनाओं का क्रमबद्ध अध्ययन इतिहास है।” हेरोडोटस की पुस्तक का नाम ‘हिस्टोरिका’ है।

भारत में इतिहास के ‘जनक’ महर्षि वेदव्यास को माना जाता है। उनके द्वारा रचित ‘महाभारत’ भारत के इतिहास की प्राचीनतम पुस्तक मानी जाती है।

महर्षि वेदव्यास ने इतिहास की परिभाषा देते हुए कहा है-

“धर्मार्थ काममोक्षेसु उपदेश समन्वितमˎ। सत्याख्यान इति इतिहासमुच्ययते।।”

अथार्त धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के उपदेश से युक्त सत्य आख्यान (वर्णन) ही इतिहास कहलाता है।  

कार्लायल / कार्लाइल के अनुसार- “इतिहास एक ऐसा दर्शन है जो दृष्टान्तों (उदाहरण) के माध्यम से शिक्षा देता है।”

चार्ल्स डार्विन – ये विज्ञान (science) से संबंधित थे। इन्होने इतिहास की परिभाषा विकासवादी दृष्टिकोण के अनुसार देते हुए कहा है- “सृष्टि का बाह्य विकास उसके आतंरिक विकास का प्रतिबिंब है। इस आतंरिक विकास की प्रक्रिया को खोजने का नाम ही इतिहास है।”

हीगल के अनुसार- “इतिहास केवल घटनाओं का संकलन मात्र नहीं है, अपितु घटनाओं के पीछे कार्य-करण की श्रृंखला विद्यमान होती है इसी कार्य-कारण श्रृंखला का खोजने का नाम इतिहास है।”

डॉ रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार – “कवि के कार्यो को विकास प्रक्रिया में न्यायोचित दिखाना ही इतिहास है।” (‘हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास’ डॉ रामस्वरूप चतुर्वेदी)

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृतियों का संचित प्रतिबिम्ब होता है। यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृति में परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्ही चित्तवृतियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य की परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है।”

डॉ नागेन्द्र के अनुसार- “साहित्य का इतिहास बदलती हुई अभिरुचियों और संवेदनाओं का इतिहास है। जिनका सीधा संबंध आर्थिक और विकाशात्मक चिंतन से है।”

पृथ्वी राज रासो....

  • रचनाकार- चंदबरदाई
  • रचनाकाल 1193 ई०
  • चंदबरदाई का जन्म 1668 ई० लाहौर में भाट जाति के ‘जगाता’ नामक गोत्र में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि पृथ्वीराज चौहान तथा चंदबरदाई के जन्म और निधन की तिथियाँ एक सामान है। इस संदर्भ में पृथ्वीराज रासो की निम्नलिखित पंक्ति प्रमाण प्रस्तुत है। ‘एक थल जन्म एक थल मरण’
  • इसमें 69 सर्ग है। (यहाँ ‘सर्ग’ का ‘समय’ नाम दिया गया है) इसमें 61 सर्ग चंदरबरदाई ने लिखा था। 8 सर्ग जल्हण ने लिखा। इसके प्रमाण स्वरुप पृथ्वीराज रासो की पंक्तियाँ निम्नलिखित है। ‘पुस्तक जल्हण हथ दे चले गजनी नृप काज।’
  • इस पुस्तक के बारे में सबसे पहले ‘कर्नल जेम्स टॉड’ ने ‘द एनाल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ में 1829 ई में जानकारी दिया था।

वर्तमान में पृथ्वीराज रासो के चार संस्करण उपलब्ध हैं :

  • वृहद रूपांतरण: इसमें 16306 छंद और 69 सर्ग (समय) है।
  • मध्यम रूपांतरण: इसमें 7000 छंद है।
  • लघू रूपांतरण: इसमें 3500 छंद और 19 सर्ग है।
  • लघुतम रूपांतरण: 1300 छंद है।
  • डॉ दसरथ शर्मा ने इस लघुत्तम रूपांतरण को मूल पृथ्वीराज रासो माना है। पृथ्वीराज रासो का नायक पृथ्वीराज चौहान हैं। ये अजमेर के चौहान वंश के शासक थे। ये धीरोदात्त श्रेणी के नायक थे।
  • इनकी नायिका संयोगिता थी जो ‘मुग्धा श्रेणी’ की नायिका थी।
  • इसका सबसे बड़ा सर्ग या समय- कंवज्ज युद्ध और सबसे छोटा सर्ग या समय- पद्मावती सर्ग था।
  • इसकी भाषा के संदर्भ में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि पृथ्वीराज रासो में युद्धों का चित्रण डिंगल तथा श्रृंगारिक वर्णन एवं प्रकृति चित्रण में पिंगल शैली का प्रयोग किया गया है। अतः इसकी भाषा पिंगल ही माननी चाहिए।
  • पृथ्वीराज रासो में 68 तरह के छंदों का प्रयोग हुआ है। इसमें छप्पय, त्रोटक, वीर त्रोटक, चौपाई, दोहा छंदों की प्रमुखता है। छप्पय चंदरबरदाई का प्रिय छंद था।
  • डॉ नामवर सिंह ने चंदरबरदाई को छप्पय छंद का राजा कहा है।
  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने छंद विविधता के कारण पृथ्वीराज रासो को छंदों का ‘अजायबघर’ कहा है।
  • पृथ्वीराज के काव्य सौंदर्य पर रीझकर कर्नल जेम्स टॉड ने इसके पदों को अंग्रेजी में अनुवाद किया तथा ‘द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल’ से इसका प्रकाशन आरम्भ करवाया। इसी बीच डॉक्टर बूलर को कश्मीर के जयानक कवि के द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज विजय’ नामक ‘संस्कृत नाटक’ मिली जिसमे संयोंगिता हरण का चित्रण नहीं था। इस आधार पर 1875 ई० में डॉक्टर बूलर ने इसे अप्रमाणित घोषित कर इसका प्रकाशन रुकवा दिया।
  • डॉक्टर बूलर के बाद पृथ्वीराज रासो को लेकर विद्वान तीन भागों में बंट गए:

अप्रमाणिक मानने वाले विद्वान: गौरीशंकर हीरानंद ओझा, मुरारी दान, मुंशी देवीप्रसाद, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बूलर और मोतीलाल मेनारिया।

अर्द्धप्रमाणिक मानने वाले विद्वान: अगरचंद नहाटा, मुनिमिन विजय, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, सुनीति कुमार चटर्जी।

प्रमाणिक मानने वाले विद्वान: मिश्रबंधु, कर्नल जेम्स टॉड, गुलाबराय, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔंध’, श्यामसुंदर दास।

पृथ्वीराज रासो के विशेष तथ्य:

  • आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की मान्यता है कि मूल पृथ्वीराज रासो शुक-शुकी संवाद में लिखा गया था। उनके अनुसार पृथ्वीराज रासो के जिन अंशों में शुक-शुकी संवाद नहीं मिलता है वे अंश अप्रमाणिक है। इसलिए उन्होंने इसे अर्द्धप्रामाणिक माना है।
  • इतिहास के तिथियों और पृथ्वीराज रासो की तिथियों में अस्सी नब्बे (80 90) वर्षों का अंतर है।
  • इस समस्या के समाधान के लिए मोहन लाल विष्णु लाल पांड्या ने ‘अनंत संवत्, की कल्पना की। उनकी मान्यता थी कि पृथ्वीराज रासो में दी गई तिथियाँ विक्रमी संवत् में नहीं होकर ‘अनंत संवत्’ में है। अगर अनंत संवत् की दृष्टि से इसकी गणना किया जाए तो इसमें हुई तिथियाँ इतिहास से मेल खाती हैं।
  • नरोत्तम स्वामी ने पृथ्वीराज रासो को ‘मुक्तक काव्य’ माना है।
  • डॉ नगेन्द्र ने पृथ्वीराज रासो को ‘स्वाभाविक विकासशील महाकाव्य’ माना है।
  • डॉ दशरथ शर्मा ने पृथ्वीराज रासो को ‘वृहद महाभारत’ कहा है।
  • डॉ श्यामसुंदर दास और उदयनारायण तिवारी ने पृथ्वीराज रासो को ‘विशाल वीर काव्य’ माना है।