Saturday, December 3, 2016

वीरान पहाड़ों के वासी 'कुटज' की सामाजिकता

'कुटज' यूं तो आत्मपरक निबंध है, इसका ठोस अनुभव द्विवेदी जी के जीवन-संघर्षों से निकला है, किंतु सर्जनात्मकता तथा रचनात्मकता का स्पर्श पाकर यह समाज के कई पहलुओं से जुड़ जाता है। 'कुटज' द्विवेदी जी के सर्वोत्तम निबंधों में से एक है और इसका एक कारण यह भी है कि 'कुटज' की विषय भूमि आत्मपरक होते हुए भी वह जीवन और जगत से इस प्रकार जुड़ जाती है कि प्रत्येक पाठक को वह अपनी प्रेरणा भूमि मालूम होने लगती है।
जिन वृक्षों और फूलों पर द्विवेदी जी का ध्यान गया है, वे द्विवेदी जी की सौन्दर्य-दृष्टि के परिचायक हैं। इन सबका अपना एक इतिहास है, वर्तमान है और भविष्य भी। रामाज्ञा राय शशिधर लिखते हैं कि ''यह अनायास नहीं है कि फूलों की रुचि परंपरा में निराला को जूही और नेहरू को गुलाब अधिक प्रिय हैं। दूसरी ओर हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं, जो एक साथ तीन-तीन फूलों की अदा पर बहुत ही फिदा हैं- अशोक, शिरीष एवं कुटज।... द्विवेदी जी के फूल मनुष्य जीवन की जय यात्रा की गल्प कथा है।'' निराला का जूही से कुकुमरमुत्ता की ओर बढ़ना भी अकारण नहीं है और द्विवेदी जी का अशोक से कुटज की ओर बढ़ना भी जय यात्रा का गल्प ही है। 'कुटज निबंध में द्विवेदी जी कुबेर संस्कृति के विरुद्ध 'कुटज' संस्कृति के महत्व को नई ऊंचाई देते हैं।
द्विवेदी जी के सामने बुद्धिजीवियों का परजीवी, लिजलिजा, अभिजात और लोकतंत्र विरोधी छद्म चेहरा शुरू से ही अनेक मुखौटे बदलता रहा है। रूढ़ीहीन भारतीय बुद्धिजीवियों का चेहरा आज और वीभत्स हो गया है। उन्हें कुटज से प्रेरणा लेनी चाहिए, क्योंकि 'कुटज' दूसरों के द्वारा पर भीख माँग़ने नहीं जाता, नीति और धर्म का उपदेश देता नहीं फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता। आत्मोन्नति के लिए नीलम नहीं धारण करता, अँगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दाँत नहीं निपोरता, बगले नहीं झाँकता। जीता है और शान से जीता है। 'कुटज' का यह बेलौसपन तथाकथित बुद्धिजीवियों और उसके अंधविश्वास व चोंचलों पर एक हल्की-सी चपत जड़ देता है।
साहित्य वस्तुतः स्वयं को आस-पास के परिवेश और जीवन जगत से जोड़ता है। द्विवेदी जी 'साहित्य का साथी' में लिखते हैं- ''निखिल जगत के भीतर चिरस्तब्ध एक की अनुभूति के द्वारा प्राणीमात्र के साथ आत्मीयता का अनुभव कराना ही काव्य का काम है, लेकिन इसमें जग की हकीकत को नजर अंदाज नहीं किया जाना चाहिए। यह जगत सत्य है, माया नहीं। ''द्विवेदी जी अपनी रचनाओं के माध्यम से इस बात पर जोर देते हैं कि इस जगत का हर कण अनिवार्यतः एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। मनुष्य जो कुछ भी है, एक विराट प्रवाह का हिस्सा है, इसलिए ''अपने को सारे जगत-प्रवाह से अलग कर लेना ही अहंकार है। इस पृथकत्व बुद्धि पर विजय पा लेना ही तपस्या है।'' (चारू चंद्रलेख)।
कुटज निर्जन पहाड़ियों में भी झूम रहा है, क्योंकि इसमें यह पृथकत्व बुद्धि नहीं है। शिवालिक की सूखी, नीरस पहाड़ियों पर मुस्कुराते हुए ये वृक्ष इन्द्रातीत है, अलमस्त हैं। बेहया से दिखने वाले इस वृक्ष की जड़ें बहुत गहरी हैं। 'कुटज' के फूल कालिदास के काम आये थे, इस नाते उन्हें इज्जत मिलनी चाहिए, लेकिन ''दुनिया है कि मतलब से मतलब है, रस चूस लेती है। छिलका और गुठली फेंक देती है।'' लेकिन 'कुटज' इस बात की परवाह न करते हुए शान से जी रहा है। 'कुटज' को पढ़ने के क्रम में पाठक अपने भीतर भी एक कुटज को बैठा पाता है और इस तरह वीरान पहाड़ियों के वासी 'कुटज' को यहीं समाज में अपनी सार्थकता प्राप्त होती है। यही 'कुटज' की सामाजिकता है।
उत्तर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो पर्यावरण के प्रति उत्पन्न चेतना की दिशा भी कहीं-न-कहीं कुटज तक ही पहुंचती है। पर्यावरण का हरा-भरापन मनुष्य की संवेदना का हरा-भरा होना है। नैसर्गिक सौन्दर्य को किसी अवलम्ब की आवश्यकता नहीं है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी हरा-भरा रहेगा, फलता-फूलता रहेगा और सुन्दर बना रहेगा। वस्तुतः द्विवेदी जी का सारा साहित्य-कर्म मनुष्य को 'अकुतोमय बनाने में सतत् निरत है।

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