Saturday, December 3, 2016

ललित निबंधकार के रूप में हजारी प्रसाद द्विवेदी

ललित निबंध विचार : द्विवेदी जी हिन्दी के सर्वाधिक सशक्त निबंधकार माने जाते हैं। उनके निबंधों को ललित निबंधों के लिए मानदण्ड स्वीकार किया जा सकता है। निबंध वह विधा है, जहाँ रचनाकार बिना किसी आड़ के पाठक से बातचीत करता है और इस क्रम में वह पाठक के सामने खुलता चलता जाता है। ललित निबंध में यह प्रवृत्ति अधिक मुखर होती है, क्योंकि वहाँ आरोपित व्यवस्था का बंधन नहीं होता। व्यक्ति व्यंजक या आत्मपरक निबंधकारों के प्रतिनिधि द्विवेदी जी स्वीकार करते हैं कि ''नये युग में जिस नवीन ढंग के निबंधों का प्रचलन हुआ है, वे तर्कमूलक की अपेक्षा व्यक्तिगत अधिक हैं। ये व्यक्ति की स्वाधीन चिन्ता की उपज हैं। व्यक्तिगत निबंधों के संदर्भ में उनके विचार हैं कि ''व्यक्तिगत निबंध 'निबंध' इसलिए हैं कि वे लेखक के समूचे व्यक्तित्व से सम्बद्ध होते हैं। लेखक की सहृदयता और चिन्तनशीलता ही उसके बंधन होते हैं।''
आचार्य द्विवेदी का अपने निबंधों के विषय में मत है कि ''इसमें मेरा मनुष्य प्रधान है, शास्त्र गौण।'' और जहाँ मनुष्य प्रधान होगा, वहाँ विधा के रूप का दबाव स्वभावतः कम होगा। यही कारण है कि द्विवेदी जी के निबंधों में ललित निबंध की स्वच्छंदता दिखाई पड़ती है। डॉ. विवेकी राय ने उत्कृष्ट ललित निबंध के कुछ बिन्दु माने हैं। पहला तो यह कि उसका इतिवृत्तात्मक आरंभ होता है, अर्थात् वह किस्से कहानी की तरह हल्के-फुल्के ढंग से शुरू होता है। मध्य में चलकर रचना गंभीर रूप लेती है, जहाँ गहन एवं गंभीर समस्याएं उत्पन्न होती हैं, साथ ही भटकाव भी आते हैं। अनेक प्रकार के विचारों से मुठभेड़ होती है और बीच-बीच में मनोरंजक प्रसंग भी आते हैं। इसके पश्चात् तीसरे स्तर पर लेखक अचानक पाठकों को किसी विचार या चिंतन के महासमुद्र में पहुँचा देता है। द्विवेदी जी के निबंधों में यह सभी विशेषताएँ मिलती हैं।
द्विवेदी जी की मनोरंजक, हल्की-फुल्की और विनोदपूर्ण लगने वाली उड़ानों के बीच एक गंभीर अन्वेषण की प्रक्रिया चलती रहती है। यह प्रक्रिया असल में आत्मान्वेषण की प्रक्रिया होती है। बात हल्के फुल्के ढंग से आरंभ होती है, लेकिन विचार-सागर में डूबने-उतराने के क्रम में वह चिन्तन की गंभीर ऊँचाइयों पर पहुँच जाती है। इस प्रक्रिया में पाठक कब शामिल हो जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। 'कुटज' अथवा 'देवदारू' में आत्मान्वेषण की यह प्रक्रिया जब चलती है, तो पाठक का 'आत्म' भी उसी उद्दाम जिजीविषा से अनुप्रेरित होने लगता है। तब 'कुटज' और 'देवदारू' में पाठक अपना स्वरूप भी अन्वेषित करने लगता है।
ललित निबंधों की मुद्रा परम्परावादी नहीं, विद्रोही है। वह निबंध की उस परम्परा को तोड़ती है, जहाँ व्यवस्था और अनुशासन है। ललित निबंधों की कलेवर तो स्वच्छंदता और भटकाव से बनता है। पाठक के मन को बांधने के लिए वे स्वयं निबंध और स्वच्छंद हो जाते हैं। यही शैली और यही मुद्रा द्विवेदी जी के निबंधों की भी है। उनमें कल्पना की उड़ान और संवेदनात्मक अनुभूति की तरलता तो है ही, साथ ही विचार-विश्लेषण और चिंतन का प्रवाह भी है। उनके व्यक्तिनिष्ठ निबंधों की पृष्ठभूमि में यथार्थ की चोट महसूस की जा सकती है।
ललित निबंध के भूगोल में कविता की तरलता और कहानी का उतार-चढ़ाव भी विद्यमान होता है। गंभीर विचार प्रवाह और सांस्कृतिक दृष्टि के साथ-साथ इसमें कवित्वमयता, रमणीयता, लेखक-व्यक्तित्व की प्रतिछाया, आत्मपरकता, कल्पना की उड़ान, विनोदपूर्ण शैली, इतिवृत्तात्मक आरंभ और किस्से कहानी जैसी उठान की मुद्रा होती है। ललित निबंध का कहानीपन सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करता है। इसने नई कहानी तथा उपन्यास को भी प्रभावित किया। इस दौर में ललित निबंध में कहानी से अधिक कहानी में ललित निबंध की घुसपैठ हुई है। यह ललित निबंध की लोकप्रियता का प्रमाण है। द्विवेदी जी के अन्य निबंधों के साथ-साथ 'बसंत आ गया है' में इस कहानीपन की मुखर उपस्थिति है। वस्तुतः ललित निबंध की सभी विशिष्टताओं को द्विवेदी जी के निबंधों में उनके सर्वोत्तम रूप में देखा जा सकता है। इसलिए द्विवेदी जी को ललित निबंधों के लिए मानदंड मानना उचित ही है।

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