साधारण की गरिमा ही उसका सौन्दर्य है। यह बात 'कुटज' के संदर्भ में प्रमाणित हो जाती है। विपरीत परिस्थितियों में तनकर खड़े होने की जो ललक 'कुटज' में है, वह अन्यत्र कहाँ? किसी खराब मनःस्थिति में रहीम ने 'कुटज' का उल्लेख बिना छांह के वृक्ष के रूप में किया है और इसका संबंध बागों से जोड़ा है। लेकिन बागों का व्यवस्थित सौन्दर्य 'कुटज' में कहाँ है? वह तो पहाड़ों का सीना चीरकर बाहर आया है। उद्दाम तथा बीहड़ जीवन की लय ही उसका सौन्दर्य है। छांह ही सब कुछ नहीं है, फूलों की भी अपनी महिमा है। 'कुटज' की तान में जो ललक है, उसी की तो दरकार है। गिरिकूट का सीना तान कर वह मुस्करा रहा है, लहरहा रहा है। तभी तो उसके कल्पित नामों में द्विवेदी जी 'धरती फोड़' की भी कल्पना करते हैं।
द्विवेदी जी का सौन्दर्य बोध किसी पूर्वनिर्धारित रूमानी संकल्पना से नहीं बनता बल्कि जीवन की परिस्थितियों के बीच से ही कहीं उद्घाटित होता है। जिसके पास इतिहास नहीं, वर्तमान नहीं और परिणामस्वरूप भविष्य भी नहीं है, वह सुन्दर कैसे हो सकता है। जो क्षणभंगुर है, वह बाजार की संस्कृति से बना है। शिरीष के फूल के लंबे समय तक पुष्पित बने रहने की प्रशंसा करते हुए, द्विवेदी जी अमलतास की क्षणभंगुरता की कड़ी निंदा और उपहास करते हैं- ''यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खंखड़ से खंखड़। ऐसे दुमदारों से तो लंडूरे भले।'' तथाकथित अशोक के पेड़ों पर तो द्विवेदी जी ब्यूटीपार्लर की संस्कृति का प्रभाव भी देख लेते हैं- ''जब आप किसी अति महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र में बाल कट जुल्फ छंटाएँ निफूले अशोक को कतारों में सीना तान कर निर्लज्ज खड़े देखते हैं। मानो फूलों से परहेज करना आजकल बोल्ड, ब्यूटीफूल और स्मार्ट बने रहने का बायोडाटा हो गया हो।
'अशोक के फूल' का लेखक उसके सम्भ्रान्त सौन्दर्य से निकलकर 'कुटज' के निर्भय सौन्दर्य तक पहुंचता है। 'कुटज' के लिए द्विवेदी जी ने कल्पित नामों की झड़ी-सी लगा दी है- सुष्मिता, गिरिकांता, वनप्रभा, शुभ्रकीरीटिनी, मदोद्धता, विजितातपा, अलकावसंता, अकुतोमय, गिरिगौरव, कूटोल्लास, अपराजित, धरती-धकेल, पहाड़फोड़, पाताल भेद आदि बहुत से नाम हैं। ये नाम असल में नाम नहीं हैं- क्योंकि इस पर समाज की मुहर नहीं है। इसलिए ये तो 'कुटज' की विशिष्टताएँ हैं, उसकी निजी पहचान, यही उसका सौन्दर्य है।
'कुटज' द्विवेदी जी की साहित्य यात्रा में ठीक उसी प्रकार अपनी पहचान दर्ज कराता है, जिस प्रकार तत्कालीन साहित्यिक परिवेश में 'द्विवेदी जी। 'कुटज' का आरंभ इतिवृत्त शैली में होता है, लेकिन धीरे-धीरे वह जीवन से, जगत से और तत्कालीन परिवेश से जुड़कर पाठक के भीतर विचारों के उद्धेलन के साथ ही मानवीय संवेदना का भी प्रसार करता है। वस्तुतः 'कुटज' का सौन्दर्य जिजीविषा का सौन्दर्य है, जीवन धर्मिता का सौन्दर्य है, विपरीत परिस्थितियों में जीवनोल्लास का सौन्दर्य है, अकुतोभय का सौन्दर्य है, शान से जीने का सौन्दर्य है, तनकर खड़े रहने का सौन्दर्य है और प्रलोभनों से समझौता न करने का सौन्दर्य है। यही 'कुटज' की सार्थकता है।
Saturday, December 3, 2016
कुटज' का सौन्दर्य
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