Wednesday, September 28, 2016

आज भी प्रासंगिक हैं गांधी के विचार


पवन कुमार अरविंद

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सत्य और अहिंसा का उद्घोष कर आंदोलन की धार को और पैनी करने वाले महात्मा गांधी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उन्होंनें स्वतन्त्र भारत के पुनर्निर्माण के लिए रामराज्य का स्वप्न देखा था। वे कहा करते थे, “नैतिक और सामाजिक उत्थान को ही हमने अहिंसा का नाम दिया है। यह स्वराज्य का चतुष्कोण है। इनमें से एक भी अगर सच्चा नहीं है तो हमारे स्वराज्य की सूरत ही बदल जाती है। मैं राजनीतिक और आर्थिक स्वतन्त्रता की बात करता हँ। राजनीतिक स्वतन्त्रता से मेरा मतलब किसी देश की शासन प्रणाली की नकल से नहीं है। उनकी शासन प्रणाली अपनी-अपनी प्रतिभा के अनुसार होगी, परन्तु स्वराज्य में हमारी शासन प्रणाली हमारी अपनी प्रतिभा के अनुसार होगी। मैंने उसका वर्णन 'रामराज्य' शब्द के द्वारा किया है। अर्थात विशुद्ध राजनीति के आधार पर स्थापित तन्त्र।”

वे कहा करते थे, “मेरे स्वराज्य को लोग अच्छी तरह समझ लें, भूल न करें। संक्षेप में वह यह है कि विदेशी सत्ता से सम्पूर्ण मुक्ति और साथ ही सम्पूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता। इस प्रकार एक सिरे पर आर्थिक स्वतंत्रता है और दूसरे सिरे पर राजनीतिक स्वतंत्रता, परन्तु इसके दो सिरे और भी हैं। इनमें से एक है नैतिक व सामाजिक और दूसरा धर्म। इसमें हिन्दू धर्म, इस्लाम, ईसाई वगैरह आ जाते हैं। परन्तु एक जो इन सबसे उपर है, इसे आप सत्य का नाम दें सकते हैं। सत्य यानि कि केवल प्रासंगिक ईमानदारी नहीं बल्कि वह परम सत्य जो सर्व व्यापक है और उत्पत्ति व लय से परे है।” 

मूलरूप से गांधी जी की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था करुणा, प्रेम, नैतिकता, धार्मिकता व ईश्वरीय भावना पर आधारित है। उन्होंनें नरसेवा को ही नारायण सेवा मानकर दलितोद्धार एवं दरिद्रोद्धार को अपने जीवन का ध्येय बनाया। वे शोषणमुक्त, समतायुक्त, ममतामय, परस्पर स्वावलम्बी, परस्पर पूरक व परस्पर पोषक समाज के प्रबल हिमायती थे। उनका मानना था कि राजसत्ता और अर्थसत्ता के विकेन्द्रीकरण के बिना आम आदमी को सच्चे लोकतन्त्र की अनुभूति नहीं हो सकती। सत्ता का केन्द्रीयकरण लोकतन्त्र की प्रकृति से मेल नहीं खाता। उनकी ग्राम-स्वराज्य की कल्पना भी राजसत्ता के विकेन्द्रीकरण पर आधारित है।

5 फरवरी 1916 को काशी के नागरी प्रचारिणी सभागार में एक कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था-“मेरे सपनों का स्वराज्य गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं, वही उन्हें भी सुलभ होना चाहिए। इसमें फर्क के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। ऐसे राज्य में जाति-धर्म के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर धनवानों और अशिक्षितों का एकाधिपत्य नहीं होगा। वह स्वराज्य सबके कल्याण के लिए होगा। लेकिन यह स्वराज्य प्राप्त करने का एक निश्चित रास्ता है।” इसको समझाने के लिए वे कहते थे-“ध्येयवादी जीवन के चार तत्व होते हैं- साधक, साधन, साधना और साध्य। साध्य का अर्थ लक्ष्य या ध्येय से है। मानलीजिए, यदि किसी समय हमारा लक्ष्य धन कमाना है, तो धन कमाने के भी कई तरीके हो सकते हैं। यह धन चोरी करके भी प्राप्त किया जा सकता है और पुरूषार्थ एवं पराक्रम से भी, लेकिन पुरूषार्थ व पराक्रम से प्राप्त धन 'पवित्र धन' कहा जायेगा और चोरी से प्राप्त धन 'चोरी का धन'। ऐसी स्थिति में साध्य पवित्र नहीं रह जायेगा। इसलिए साध्य की पवित्रता के लिए यह आवश्यक है कि साधन, साधक व साधना तीनों पवित्र हों। किसी एक के पवित्र होने से काम नहीं चलेगा।”

गांधी जी के विचार और वर्तमान के सम्बन्ध में चिन्तन करने पर लगता है कि आज की स्थिति, परिस्थिति और लोगों की मन:स्थिति में बहुत अन्तर है। सब एन-केन-प्रकारेण साध्य तक पहुँचने को आतुर दिखते हैं। इस आतुरता की जिद में सारे नीति, नियम, कायदे और कानून को तोड़कर हम अनैतिक एवं हिंसक हो जाते हैं। यहीं से विकृति प्रारम्भ होती है, और राष्ट्रहित के स्थान पर स्वहित दिखायी देने लगता है। हर क्षेत्र में आधारभूत ढांचे से हटकर परिवर्तन हुआ है। इस सृष्टि की सर्वोच्च शासन व्यवस्था 'लोकतन्त्र' पूँजीवादी तन्त्र में परिवर्तित हो गयी है। सामान्य निर्धन व्यक्ति जनता का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। संसद और विधानमण्डल के दोनों सदनों में लगभग 45 प्रतिशत से अधिक सदस्य किसी न किसी प्रकार से अपराधियों की श्रेणी में आ जाते हैं। कुल मिलाकर आज की राजनीति में अपराधियों का बोल-बाला है। 

आधुनिक भारत का निर्माण करने वालों नें आधुनिक शिक्षा बनाने की आंड़ में गांधी के विचारों को दरकिनार कर दिया है। जिससे आज ऐसी स्थिति हो गयी है कि एक गरीब बालक के लिए वांछित शिक्षा प्राप्त करना दुष्कर हो गया है। इन सारी स्थितियों और परिस्थितियों का एक कारण यह भी है कि गांधीवादी विचारधारा का झंडा तथाकथित गांधीवादियों ने थाम रखी है। जिस चरखे और खादी से उन्होंनें जन-जन को जागरुक किया था, वही आज हांसिये पर धकेल दिया गया है। खादी पहनने वाले खादी की लाज भूल चुके हैं। उनके लिए खादी स्वयं को नेता सिद्ध करने वाली पोषाक भर बन कर रह गयी है। उनके सहयोगियों नें उनके मूल्यों और कार्यक्रमों को तिलाजंलि दे दी है। सरकार के काम-काज में गांधीवादी सरोकारों और लक्ष्यों को देखना निराश ही करता है।

गांधी के विचारों की प्रासंगिकता का सवाल उनकी जन्म और पुण्यतिथि पर हमेशा उठता है, लेकिन गांधी तो आजादी मिलने के बाद से ही अलग-थलग पड़ गये थे। गांधी का सपना गांधी के सच्चे सपूतों नें ही तार-तार करके रख दिया है। ऐसी स्थिति में लगता है कि गांधी का सपना केवल स्वप्न बनकर रह जायेगा। फिर भी, तेजी से बदल रहे परिवेश के कारण गांधी के विचारों की प्रासंगिकता आज महती आवश्यकता के रुप में अनुभव की जा रही है।

आज भी प्रासंगिक हैं गांधी

वास्तव में गांधी विचार समग्र जीवन दर्शन है। यह एक व्यवहारिक एप्रोच है। इससे दुनिया के कई बड़े आंदोलनों ने प्रेरणा ली है। तभी कुछ साल पहले हुए के सर्वेक्षण में गांधी जी को 20 वीं सदी का दुनिया का सबसे लोकप्रिय नेता घोषित किया गया।

कुछ लोग गांधी को श्रेष्ठ राजनेता मानते हैं तो कुछ समाजसुधारक तो कुछ लोग सफल अर्थशास्त्री। गांधी एक सफल संचारक भी थे। इसके बावजूद की वे कोई ओजपूर्ण वाणी के वक्ता नहीं थे। गांधी का मजाक उड़ाने वाले उन्हें देश आजाद होने के कुछ साल बाद ही आउटडेटेड मानने लगे। पर हर कुछ साल बाद कुछ ऐसे प्रकरण आते हैं जो गांधी को एक बार फिर प्रासंगिक सिद्ध कर देते हैं। गांधी जी ने हमें लड़ने के लिए अंहिंसा जैसा अस्त्र दिया जिससे दुनिया में लाखों लोगों ने प्रेरणा ली है। आज भी दुनिया के कई देशों में गांधीवादी तरीके से लोकतंत्र की बहाली के लिए लड़ाई लड़ी जा रही है।

हालांकि लगे रहो मुन्नाभाई फिल्म में जिस तरह गांधी जी के दर्शन को गांधीगिरी के नाम से दिखाया गया है उस पर कई गांधीवादियों को आपत्ति है। वास्तव में गांधीगिरी को दादागिरी जैसे मुहावरे से जोड़कर देखा जा रहा है जो ठीक नहीं हैं। हमें शब्दों के हमेशा शाब्दिक अर्थ पर ही नहीं बल्कि उसके भाव पर जाना चाहिए। गांधीजी के ही वंशज तुषार गांधी जी को आज भी गांधीवाद के प्रचार प्रसार को लेकर चिंतित और सक्रिय रहते हैं उन्हें यह फिल्म एकदम झक्कास लगी है। एक ही संदेश को ज्ञापित करने का सबका अपना अलग अलग तरीका हो सकता है। हमें किसी फिल्म निर्माता की तारीफ करनी चाहिए जो फिल्म में कोई अच्छा मैसेज डालने की कोशिश करता है।

यह तो तय बात है कि मीडिया के रूप में फिल्मों का समाज पर जबरदस्त प्रभाव है। फिल्में आम जनता पर बहुत गहरा प्रभाव डालती हैं। लोग फिल्मों के पात्रों और उनकी गतिविधियों को हर रूप में नकल करने की कोशिश करते हैं। ऐसे में कोई फिल्म अगर अच्छे संदेश देगी तो इसका समाज पर कुछ न कुछ अच्छा प्रभाव तो पड़ेगा ही। यह उसी शिक्षक की तरह है जो खेल खेल में बच्चों को ज्ञान की बातें याद करा देता है। वहीं कई शिक्षक उसे बोरिंग ढंग से पेश करते हैं जिसका बच्चों पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता है। बहरहाल गांधी जी आज भी हमारे बीच में ही हैं। यह हमारे ऊपर निर्भऱ करता है कि हम उन्हें कितना आत्मसात करते हैं।

आजादी के बाद करीब आई हिंदी और उर्दू

बंटवारे के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच भले ही बेगानियत बढ़ी हो, लेकिन इस दौरान दक्षिण एशिया की दो प्रमुख जबानें हिंदी और उर्दू एक-दूसरे के करीब आई।
   पाकिस्तान के उर्दू अदब के एक अफसानानिगार के अनुसार दोनों देशों के बीच सियासी तौर पर भले ही दूरियां रही हों लेकिन दोनों भाषाओं की नजदीकियां बढ़ी हैं और इस दरम्यान बड़ी संख्या में हिंदी रचनाओं का उर्दू में तर्जुमा हुआ है।
  
  
   पाकिस्तान के ख्यातिप्राप्त अफसानानिगार इंतजार हुसैन ने साहित्य अकादमी द्वारा पहली प्रेमचंद फेलोशिप के लिए चुने जाने पर खुशी का इजहार करते हुए कहा कि प्रेमचंद हिंदी और उर्दू अदब में एक ऐसे पुंज की हैसियत रखते हैं जहां दोनों जबानें गले मिलती हैं। प्रेमचंद उर्दू लघुकथा के पितामह हैं।
  
  
   उन्होंने बताया कि उर्दू गल्प कथा को मगरिब की दास्तानें, अरब की दास्तानें और हिंदुस्तान के पुराने क्लासिक ने प्रभावित किया। बेताल पच्चीसी, महाभारत, जातक कथाओं और पंचतंत्र का उर्दू में तर्जुमा हुआ है और उसका असर दिखाई देता है। उन्होंने बताया कि जिस प्रकार हिंदुस्तान में मंटो, कृष्णचंदर, फैज और जमील हाशमी जैसे उर्दू अदब के बड़े नामों को पढ़ने वाले है। उसी तरह पाकिस्तान में भी प्रेमचंद और निर्मल वर्मा सरीखे हिंदी के बड़े हस्ताक्षरों की अनुदित कृतियों को बड़ी शिद्दत के साथ पढ़ा जाता है। बीते दिनों पाकिस्तान में निर्मल वर्मा के साहित्य का उर्दू तर्जुमा पाठकों ने बड़े चाव से पढ़ा और सराहा।
  
  
   उर्दू अदब के सशक्त हस्ताक्षर इंतजार हुसैन का कहना है कि दोनों तरफ के पंजाब और भारत के उत्तरप्रदेश के लोगों ने विभाजन की आग को सबसे ज्यादा झेला और यही वजह है कि इस क्षेत्र के लेखकों के साहित्य में बंटवारे की तपिश सबसे ज्यादा महसूस होती है। उन्होंने कहा कि भारत के मुकाबले पाकिस्तान के सियासी हालात आजादी के बाद से ही उथल पुथल से भरे रहे जिसके चलते हिंदुस्तानी साहित्य के मुकाबले पाकिस्तान का उर्दू अदब सियासत के मसाइल पर ज्यादा गंभीरता के साथ लिखता रहा।
  
  
   हुसैन ने बताया कि उर्दू अदब में गल्प कथा को वह मकाम हासिल नहीं हो सका जो हिंदी साहित्य में हासिल है। जैसे कि अरेबियन नाइट (अलिफ लैला) जब मगरिब में ख्यात हो गई तब उसे उर्दू अदब ने स्वीकार किया। पाकिस्तान की इलाकाई जबानों पंजाबी, सिंधी, बलूची और पश्तो का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इन जबानों में बुल्ले शाह, वारिज शाह और अहमद राही जैसे बड़े नाम हुए हैं, लेकिन बंटवारे के बाद इन भाषाओं के साहित्य में काफी कुछ लिखा गया। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद से पहले के उर्दू अदब में आम तौर पर शहरी जिंदगी का ही वर्णन मिलता है। प्रेमचंद पहले अफसानानिगार थे, जो गांव की जिंदगी को उर्दू अफसाने में लेकर आए। उन्होंने कहा कि मगरिब के देश दक्षिण एशिया के अंग्रेजी में लिखे जा रहे साहित्य को तीसरी दुनिया का साहित्य बताते हैं जबकि हमारे यहां तमाम भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य के तर्जुमा का जिक्र भी नहीं करते।
  
  
   रवींद्रनाथ टैगोर की अमर रचना गीतांजलि के तर्जुमे को नोबेल मिला था, जबकि वर्तमान साहित्य के साथ ऐसा नहीं हो पा रहा है। इस पर हुसैन ने कहा कि टैगोर को डब्ल्यू जी गेट्स जैसे लोग और साहित्य के कद्रदां मगरिब में मिल गए थे, जिन्होंने उनके गीतांजलि का अनुवाद किया जिस कारण उनको दुनिया में वह मकाम हासिल हुआ जो औरों को नहीं मिल सका। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर से विभाजन के वक्त पाकिस्तान गए इंतजार हुसैन ने कहा कि घर छोड़ने के बाद ही उसका महत्व समझ में आता है। 35 बरस बाद अपने घर की मिट्टी को छूने की हसरत लेकर हिंदुस्तान आए हुसैन यह ठानकर आए थे कि वह किसी से अपने घर गांव का रास्ता नहीं पूछेंगे और पुरानी यादों के सहारे खुद ही वहां तक पहुंच जाएंगे, लेकिन वक्त ने सब कुछ इतना बदल दिया था कि वह बुलंदशहर के करीब स्थित अपने गांव डिबाई में वह जगह नहीं ढूंढ पाए जहां उनका घर हुआ करता था।
  
  
   हिंदुस्तान से आखिरी खत, शहर-ए-अफसोस और वो जो खो गया के लेखक हुसैन को उर्दू अदब में अपने अलहदा अंदाज के लिए जाना जाता है। उन्होंने बताया कि उनकी कहानियों से हिंदुस्तान की महक आती है क्योंकि उनका बचपन और जवानी यहीं गुजरा जिसके नक्श उनके दिलों दिमाग पर आज भी दर्ज हैं।

बेहतर भविष्य की ओर हिंदी - हृदयनारायण दीक्षित

भारत मे सरस्वती के तट पर विश्व मे पहली बार शब्द प्रकट हुआ। ऋग्वैदिक ऋषि माध्यम बने। ब्रह्म/ सर्वसत्ता ने स्वयं को शब्द मे अभिव्यक्त किया। ब्रह्म शब्द बना, शब्द ब्रह्म कहलाया। अभिव्यक्ति बोली बनी और भाषा का जन्म हो गया। नवजात शिशु का नाम पड़ा संस्कृत। संस्कृत यानी परिष्कृत, सुव्यवस्थित/ बार- बार पुनरीक्षित। अक्षर अ-क्षर है। अविनाशी है। सो संस्कृत की अक्षर ऊर्जा से दुनिया मे ढेर सारी बोलियो/भाषाओ का विकास हुआ। लोकआकांक्षाओ के अनुरूप संस्कृत ने अनेक रूप पाये। भारत में वह वैदिक से लोकसंस्कृत बनी। प्राकृत बनी। पाली बनी। अपभृंश से होकर हिंदी बनी।
 
   भारत स्वाभाविक ही हिंदी मे अभिव्यक्त होता है। भारत के संविधान मे हिंदी राजभाषा है, लेकिन 54 वर्ष बाद भी अंग्रेजी ही राजभाषा है। भारत की संविधान सभा मे राष्ट्रभाषा के सवाल पर 12, 13 व 14 सितंबर को लगातार तीन दिन तक बहस हुई। लंबी बहस के बाद (14 सितंबर 1949) अंग्रेजी महारानी और हिंदी पटरानी बनी। बहस के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने कहा, पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास मे भारत ही नही सारे दक्षिण पूर्वी एशिया मे और केंद्रीय एशिया के कुछ भागो मे भी विद्वानो की भाषा संस्कृत ही थी। अंग्रेजी कितनी ही अच्छी और महत्वपूर्ण क्यो न हो, लेकिन इसे हम सहन नही कर सकते। हमे अपनी ही भाषा (हिंदी) को अपनाना चाहिए। संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा घोषित करने के बावजूद अंग्रेजी को बनाए रखने का प्रस्ताव किया और इसे हटाने के लिए 15 वर्ष की समय सीमा तय हो गयी। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा मै संस्कृत चुनता। वह मातृभाषा है। हम हिंदी क्यो स्वीकार कर रहे है? इस (हिंदी) भाषा के बोलने वालो की संख्या सर्वाधिक है। अंग्रेजी हटाने के लिए 15 वर्ष हैं। वह किस प्रकार हटायी जाए? असल मे संविधान की मसौदा समिति राष्ट्रभाषा के सवाल पर एक राय नही हो सकी। सभा मे 300 से ज्यादा संशोधन प्रस्ताव आए। जी. एस. आयंगर ने मसौदा रखा। हिंदी की पैरोकारी की लेकिन कहा आज वह काफी सम्मुनत भाषा नही है। अंग्रेजी शब्दो के हिंदी पर्याय नही मिल पाते। सेठ गोविंद दास ने हिंदी को संस्कृति से जोड़ा यह एक प्राचीन राष्ट्र है। हजारो वर्ष से यहाँ एक संस्कृति है। इस परंपरा को एक बनाए रखने तथा इस बात का खंडन करने के लिए कि हमारी दो संस्कृतियां है, इस देश मे एक भाषा और एक लिपि रखना है। नजीरुद्दीन अहमद ने अंग्रेजी अनिवार्य रखने का आग्रह किया, लेकिन टोका टाकी के बीच उन्होने संस्कृत की भी वकालत की। 

   
   नजीरुद्दीन ने कहा आप संसार की सर्वोत्तम कोटि की भाषा संस्कृत क्यो नही स्वीकार करते। उन्होने मैक्समुलर, विलियम जोंस, डब्लू हंटर सहित दर्जनो विद्वानो के संस्कृत समर्थक विचार उद्धृत किए, लेकिन अंग्रेजी का समर्थन किया। कृष्णमूर्ति राव ने अंग्रेजी की यथास्थिति बनाए रखने और राष्ट्रभाषा का सवाल भावी संसद पर छोड़ने की वकालत की। हिफजुररहमान ने हिंदुस्तानी भाषा और देवनागरी-उर्दू लिपि पर जोर दिया। स्वाधीनता संग्राम की भाषा हिंदी थी। अक्टूबर, 1917 मे गाँधीजी ने राष्ट्रभाषा की परिभाषा की उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक काम हो सके तथा उसे भारत के ज्यादातर लोग बोलते हो। अंग्रेजी मे इनमे से एक भी लक्षण नही है। हिंदी मे ये सारे लक्षण मौजूद है। (संपूर्ण गाँधी वाड्.मय, 14/28-29)संविधान सभा मे जब आर. वी. धुलेकर ने हिंदी को राष्ट्रभाषा कहा तो गुरु रेड्डी ने आपत्ति की। धुलेकर ने कहा आपको आपत्ति है, मैं भारतीय राष्ट्र, हिंदी राष्ट्र, हिंदू राष्ट्र, हिंदुस्तानी राष्ट्र का हूँ। इसलिए हिंदी राष्ट्रभाषा है और संस्कृत अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। अंग्रेजी के नाम पर 15 वर्ष का पट्टा लिखने से राष्ट्रहित नही होगा। अंग्रेजी वीरो की भाषा नही है। वैज्ञानिको की भी नही है। अंग्रेजी के अंक भी उसके नही है। धुलेकर काफी तीखा बोले। पं. नेहरू ने आपत्ति की। वे फिर बोले। नेहरू ने फिर आपत्ति की। लक्ष्मीकांत मैत्र ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने का आग्रह किया। अलगूराम शास्त्री ने अंग्रेजी को विदेशी भाषा कहकर हिंदी का समर्थन किया, हिंदी को अविकसित बताने पर वे बहुत खफा हुए। पुरुषोत्तम दास टंडन ने अंग्रेज ध्वनि विज्ञानी इसाक पिटमैन के हवाले से कहा विश्व में हिंदी ही सर्वमान्य वर्णमाला है। अबुल कलाम आजाद, रविशंकर शुक्ल, डॉ. रघुवीर, गोविंद मालवीय, के. एम. मुंशी, मो. इस्माइल आदि ढेर सारे लोग बोले। 

   
   15 वर्ष तक अंग्रेजी जारी रखने के पर परंतुक के साथ हिंदी राजभाषा बनी। सर्वोच्च न्यायालय की भाषा अंग्रेजी ही रही। केंद्र पर हिंदी का प्रचार-प्रसार बढ़ाने की जिम्मेदारी भी डाली गयी (अनु. 351)। तब से ढेर सारे 15 बरस आए, लेकिन अंग्रेजी बढ़ती रही। सारे राजनीतिक दल और मजदूर संगठन अपना अखिल भारतीय पत्राचार अंग्रेजी मे करते है। बड़ी पूँजी वाली राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियां अंग्रेजी मे काम करती है। भारत मे अंग्रेजी बोलना बड़ा आदमी होना है। सौ फीसदी हिंदी भाषी राज्यो उ. प्र., बिहार, म. प्र., राजस्थान, झारखंड, हरियाणा, उत्तरांचल, दिल्ली और छत्तीसगढ़ आदि मे भी पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाने और पढ़ने की आँधी है। भारत के असली प्रशासको की असली भाषा भी अंग्रेजी है। आई. ए. एस. की मुख्य परीक्षा मे राजभाषा के बजाए अंग्रेजी का पर्चा आज भी अनिवार्य है। देश की बाकी भाषाओ मे से कोई एक वैकल्पिक है। संसद ने सर्वसम्मत प्रस्ताव (1967) द्वारा हिंदी अथवा अंग्रेजी मे से किसी एक को अनिवार्य किया। 11 जनवरी, 1991 को संसद ने यही प्रस्ताव दोहराया। राष्ट्रपति ने अंग्रेजी के तुरंत खात्मे के निर्देश (28 जनवरी, 1992) दिए, लेकिन संसद और राष्ट्रपति के तुरंत किसी परंतु मे फँसे हुए है। अखिल भारतीय भाषा संरक्षण संगठन ने आदोलन चलाया। 350 सांसदो ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को (01.12.1988) ज्ञापन दिया। अटल जी ने सत्याग्रह स्थल पर (07.01.1989) समर्थन दिया। 26 मई, 1989 को सरकारी आश्वासन मिला। एक समिति बनी कि अंग्रेजी कैसे हटे? फिर आंदोलन हुआ। पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह (21.11.1990) धरने पर बैठे। पुष्पेन्द्र चौहान दर्शकदीर्घा से नारे लगाते (10.01.1991) लोकसभा मे कूदे। उनकी पसलियां टूट गयी। लोकसभा मे पूर्व प्रस्ताव फिर (11.01.1990) दोहराया गया।

   
   ज्ञानी जैलसिंह, वी. पी. सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, देवीलाल आदि धरने (12 मई, 1994) पर बैठे। एक साल बाद (12.05.1995) लालकृष्ण आडवाणी और वीरेन्द्र वर्मा ने धरना दिया। सारे नेताओ ने सत्ता से बाहर रहकर अंग्रेजी हटाओ की मांग लेकर धरना दिया, लेकिन सत्ता मे आकर चुप्पी साधी। अंग्रेजी का बाल भी बांका नही हुआ। हिंदी दलित, शोषित, उत्पीडि़त रही। सरकारे बेशक पिद्दी साबित हुई, लेकिन भारत अब अंतरराष्ट्रीय बाजार का खास हिस्सा है। सो हिंदी की पौ बारह है। हिंदी आम उपभोक्ता की भाषा है। रामनिवास शर्मा जैसे मा‌र्क्सवादी विद्वान खड़ी बोली की ताकत का श्रेय बाजार को ही देते थे। भाषा का भविष्य अब बाजार ही तय कर रहा है। हिंदी सारे देश की मजबूरी होगी। गांधीजी ने लखनऊ मे कहा भी था टूटी फूटी हिंदी मै बोलता हूँ, क्योकि अंग्रेजी बोलने मे मानो मुझे पाप लगता है।
 
   (हृदयनारायण दीक्षित-लेखक उप्र सरकार के पूर्व मंत्री है)

बाज़ार के दबाव में आगे बढ़ती हिंदी

हिंदी को अधिक से अधिक लोकप्रिय और उपयोगी बनाने के लिए जो सरकारी विभाग बनाए गए हैं उनके लिए हर साल 14 सितंबर एक बड़ा दिन होता है.

मगर पिछले छह दशकों में उनकी उपलब्धियाँ क्या रही हैं, यह किसी से नहीं छिपा है. फिर भी हिंदी आगे बढ़ रही है सरकारी मदद के बिना.
 
इस समय हिंदी की सबसे बड़ी समस्या है तकनीकी विकल्पों का अभाव, लाखों लोग चाहकर भी कंप्यूटर पर हिंदी में सभी काम अच्छी तरह नहीं कर पाते हैं.
 
लेकिन अब यह स्थिति तेज़ी से बदल रही है मगर ये बदलाव सरकार की वजह से नहीं बल्कि बाज़ार की वजह से आ रहा है.
 
गूगल इंडिया के उत्पादन प्रमुख विनय गोयल कहते हैं, "भारत की सिर्फ़ सात प्रतिशत जनसंख्या अँग्रेजी बोलती है, बाक़ी आबादी हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ बोलती है. भारत की जनसंख्या एक अरब है. अगर गूगल और अन्य कम्पनियां 60-70 करोड़ लोगों तक पहुंचना चाहती हैं तो उन्हें कुछ करना ही पड़ेगा कि हिंदी में ज्यादा समाचार आए. हमारी कोशिश है कि किस तरह हिंदी की ऑफलाइन सामग्री को ऑनलाइन लाया जाए."
 
कंपनियों को पता है कि अगर उन्हें भारत में अपने पाँव पसारने हैं तो हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के सहारे लोगों तक पहुँचना होगा. चाहे गूगल हो या माइक्रोसाफ्ट, हिंदी के महत्व को कोई नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता.
 
आज सैकड़ों हिंदी समाचार चैनल हिंदी को गाँव-गाँव, शहर-शहर पहुँचा रहे हैं. हालाँकि उस हिंदी की गुणवत्ता पर कई सवाल जरूर लगते रहे हैं.
समस्याएँ
 
पहले हिंदी को तकनीकी रूप में प्रस्तुत करने के मानक उपलब्ध नहीं थे, सभी ने अपने-अपने फॉन्ट बना रखे थे, अलग-अलग कीबोर्ड थे, लेकिन इस दिशा में भी कार्य हो रहा है.
 
वेबसाइट वेबदुनिया के संपादक जयदीप कार्णिक कहते हैं, "हिंदी की बहुत सारी वेबसाइट्स हैं जिनके माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार हो रहा है. हिंदी रोज़गार से जुड़ रहा है. पहले माना जाता था कि अगर आपकी शिक्षा हिंदी में हुई है तो आपको रोजगार में समस्या होगी. ये भ्रम ज़रूर टूटा है."
 
हिंदी नए-नए माध्यमों के सहारे दुनिया के कोने-कोने में पहुँच रही है, और अब तो सामाजिक मेल-जोल से जुड़ी वेबसाइट ऑर्कुट भी हिंदी में है. विनय गोयल कहते हैं, "हमने सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट को हिंदी में लॉन्च कर लिया है, अगर आप हिंदी में प्रचार करना चाहें तो वो कर सकते हैं."
 
मोबाइल उद्योग में भी हिंदी प्रमुखता से उभर रही है. बहुत सारी कंपनियाँ ग्राहकों को हिंदी में सुविधाएँ उपलब्ध करा रही हैं, कॉलकॉम इंडिया के प्रमुख तकनीकी सलाहकार डॉक्टर निखिल जैन कहते हैं, "आजकल हैंडसेट हिंदी में भी काम करते हैं. टाटा के मोबाइल फोन में आप समाचार पढ़ सकते हैं. धर्म से जुड़ी कई सुविधाएँ हिन्दी में उपलब्ध हैं."
 
जयदीप कार्णिक कहते हैं, "मोबाइल फ़ोन पर आप फ़ीचर्स पढ़ सकते हैं. फिल्मों की समीक्षाएँ, सितारों के इंटरव्यू वग़ैरह पढ़ सकते हैं."
 
शुक्रवार, 14 सितंबर, 2007 को 15:46 GMT तक के समाचार
विनीत खरे
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली से