'कुटज' यूं तो आत्मपरक निबंध है, इसका ठोस अनुभव द्विवेदी जी के जीवन-संघर्षों से निकला है, किंतु सर्जनात्मकता तथा रचनात्मकता का स्पर्श पाकर यह समाज के कई पहलुओं से जुड़ जाता है। 'कुटज' द्विवेदी जी के सर्वोत्तम निबंधों में से एक है और इसका एक कारण यह भी है कि 'कुटज' की विषय भूमि आत्मपरक होते हुए भी वह जीवन और जगत से इस प्रकार जुड़ जाती है कि प्रत्येक पाठक को वह अपनी प्रेरणा भूमि मालूम होने लगती है।
जिन वृक्षों और फूलों पर द्विवेदी जी का ध्यान गया है, वे द्विवेदी जी की सौन्दर्य-दृष्टि के परिचायक हैं। इन सबका अपना एक इतिहास है, वर्तमान है और भविष्य भी। रामाज्ञा राय शशिधर लिखते हैं कि ''यह अनायास नहीं है कि फूलों की रुचि परंपरा में निराला को जूही और नेहरू को गुलाब अधिक प्रिय हैं। दूसरी ओर हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं, जो एक साथ तीन-तीन फूलों की अदा पर बहुत ही फिदा हैं- अशोक, शिरीष एवं कुटज।... द्विवेदी जी के फूल मनुष्य जीवन की जय यात्रा की गल्प कथा है।'' निराला का जूही से कुकुमरमुत्ता की ओर बढ़ना भी अकारण नहीं है और द्विवेदी जी का अशोक से कुटज की ओर बढ़ना भी जय यात्रा का गल्प ही है। 'कुटज निबंध में द्विवेदी जी कुबेर संस्कृति के विरुद्ध 'कुटज' संस्कृति के महत्व को नई ऊंचाई देते हैं।
द्विवेदी जी के सामने बुद्धिजीवियों का परजीवी, लिजलिजा, अभिजात और लोकतंत्र विरोधी छद्म चेहरा शुरू से ही अनेक मुखौटे बदलता रहा है। रूढ़ीहीन भारतीय बुद्धिजीवियों का चेहरा आज और वीभत्स हो गया है। उन्हें कुटज से प्रेरणा लेनी चाहिए, क्योंकि 'कुटज' दूसरों के द्वारा पर भीख माँग़ने नहीं जाता, नीति और धर्म का उपदेश देता नहीं फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता। आत्मोन्नति के लिए नीलम नहीं धारण करता, अँगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दाँत नहीं निपोरता, बगले नहीं झाँकता। जीता है और शान से जीता है। 'कुटज' का यह बेलौसपन तथाकथित बुद्धिजीवियों और उसके अंधविश्वास व चोंचलों पर एक हल्की-सी चपत जड़ देता है।
साहित्य वस्तुतः स्वयं को आस-पास के परिवेश और जीवन जगत से जोड़ता है। द्विवेदी जी 'साहित्य का साथी' में लिखते हैं- ''निखिल जगत के भीतर चिरस्तब्ध एक की अनुभूति के द्वारा प्राणीमात्र के साथ आत्मीयता का अनुभव कराना ही काव्य का काम है, लेकिन इसमें जग की हकीकत को नजर अंदाज नहीं किया जाना चाहिए। यह जगत सत्य है, माया नहीं। ''द्विवेदी जी अपनी रचनाओं के माध्यम से इस बात पर जोर देते हैं कि इस जगत का हर कण अनिवार्यतः एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। मनुष्य जो कुछ भी है, एक विराट प्रवाह का हिस्सा है, इसलिए ''अपने को सारे जगत-प्रवाह से अलग कर लेना ही अहंकार है। इस पृथकत्व बुद्धि पर विजय पा लेना ही तपस्या है।'' (चारू चंद्रलेख)।
कुटज निर्जन पहाड़ियों में भी झूम रहा है, क्योंकि इसमें यह पृथकत्व बुद्धि नहीं है। शिवालिक की सूखी, नीरस पहाड़ियों पर मुस्कुराते हुए ये वृक्ष इन्द्रातीत है, अलमस्त हैं। बेहया से दिखने वाले इस वृक्ष की जड़ें बहुत गहरी हैं। 'कुटज' के फूल कालिदास के काम आये थे, इस नाते उन्हें इज्जत मिलनी चाहिए, लेकिन ''दुनिया है कि मतलब से मतलब है, रस चूस लेती है। छिलका और गुठली फेंक देती है।'' लेकिन 'कुटज' इस बात की परवाह न करते हुए शान से जी रहा है। 'कुटज' को पढ़ने के क्रम में पाठक अपने भीतर भी एक कुटज को बैठा पाता है और इस तरह वीरान पहाड़ियों के वासी 'कुटज' को यहीं समाज में अपनी सार्थकता प्राप्त होती है। यही 'कुटज' की सामाजिकता है।
उत्तर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो पर्यावरण के प्रति उत्पन्न चेतना की दिशा भी कहीं-न-कहीं कुटज तक ही पहुंचती है। पर्यावरण का हरा-भरापन मनुष्य की संवेदना का हरा-भरा होना है। नैसर्गिक सौन्दर्य को किसी अवलम्ब की आवश्यकता नहीं है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी हरा-भरा रहेगा, फलता-फूलता रहेगा और सुन्दर बना रहेगा। वस्तुतः द्विवेदी जी का सारा साहित्य-कर्म मनुष्य को 'अकुतोमय बनाने में सतत् निरत है।
Saturday, December 3, 2016
वीरान पहाड़ों के वासी 'कुटज' की सामाजिकता
कुटज' का सौन्दर्य
साधारण की गरिमा ही उसका सौन्दर्य है। यह बात 'कुटज' के संदर्भ में प्रमाणित हो जाती है। विपरीत परिस्थितियों में तनकर खड़े होने की जो ललक 'कुटज' में है, वह अन्यत्र कहाँ? किसी खराब मनःस्थिति में रहीम ने 'कुटज' का उल्लेख बिना छांह के वृक्ष के रूप में किया है और इसका संबंध बागों से जोड़ा है। लेकिन बागों का व्यवस्थित सौन्दर्य 'कुटज' में कहाँ है? वह तो पहाड़ों का सीना चीरकर बाहर आया है। उद्दाम तथा बीहड़ जीवन की लय ही उसका सौन्दर्य है। छांह ही सब कुछ नहीं है, फूलों की भी अपनी महिमा है। 'कुटज' की तान में जो ललक है, उसी की तो दरकार है। गिरिकूट का सीना तान कर वह मुस्करा रहा है, लहरहा रहा है। तभी तो उसके कल्पित नामों में द्विवेदी जी 'धरती फोड़' की भी कल्पना करते हैं।
द्विवेदी जी का सौन्दर्य बोध किसी पूर्वनिर्धारित रूमानी संकल्पना से नहीं बनता बल्कि जीवन की परिस्थितियों के बीच से ही कहीं उद्घाटित होता है। जिसके पास इतिहास नहीं, वर्तमान नहीं और परिणामस्वरूप भविष्य भी नहीं है, वह सुन्दर कैसे हो सकता है। जो क्षणभंगुर है, वह बाजार की संस्कृति से बना है। शिरीष के फूल के लंबे समय तक पुष्पित बने रहने की प्रशंसा करते हुए, द्विवेदी जी अमलतास की क्षणभंगुरता की कड़ी निंदा और उपहास करते हैं- ''यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खंखड़ से खंखड़। ऐसे दुमदारों से तो लंडूरे भले।'' तथाकथित अशोक के पेड़ों पर तो द्विवेदी जी ब्यूटीपार्लर की संस्कृति का प्रभाव भी देख लेते हैं- ''जब आप किसी अति महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र में बाल कट जुल्फ छंटाएँ निफूले अशोक को कतारों में सीना तान कर निर्लज्ज खड़े देखते हैं। मानो फूलों से परहेज करना आजकल बोल्ड, ब्यूटीफूल और स्मार्ट बने रहने का बायोडाटा हो गया हो।
'अशोक के फूल' का लेखक उसके सम्भ्रान्त सौन्दर्य से निकलकर 'कुटज' के निर्भय सौन्दर्य तक पहुंचता है। 'कुटज' के लिए द्विवेदी जी ने कल्पित नामों की झड़ी-सी लगा दी है- सुष्मिता, गिरिकांता, वनप्रभा, शुभ्रकीरीटिनी, मदोद्धता, विजितातपा, अलकावसंता, अकुतोमय, गिरिगौरव, कूटोल्लास, अपराजित, धरती-धकेल, पहाड़फोड़, पाताल भेद आदि बहुत से नाम हैं। ये नाम असल में नाम नहीं हैं- क्योंकि इस पर समाज की मुहर नहीं है। इसलिए ये तो 'कुटज' की विशिष्टताएँ हैं, उसकी निजी पहचान, यही उसका सौन्दर्य है।
'कुटज' द्विवेदी जी की साहित्य यात्रा में ठीक उसी प्रकार अपनी पहचान दर्ज कराता है, जिस प्रकार तत्कालीन साहित्यिक परिवेश में 'द्विवेदी जी। 'कुटज' का आरंभ इतिवृत्त शैली में होता है, लेकिन धीरे-धीरे वह जीवन से, जगत से और तत्कालीन परिवेश से जुड़कर पाठक के भीतर विचारों के उद्धेलन के साथ ही मानवीय संवेदना का भी प्रसार करता है। वस्तुतः 'कुटज' का सौन्दर्य जिजीविषा का सौन्दर्य है, जीवन धर्मिता का सौन्दर्य है, विपरीत परिस्थितियों में जीवनोल्लास का सौन्दर्य है, अकुतोभय का सौन्दर्य है, शान से जीने का सौन्दर्य है, तनकर खड़े रहने का सौन्दर्य है और प्रलोभनों से समझौता न करने का सौन्दर्य है। यही 'कुटज' की सार्थकता है।
ललित निबंधकार के रूप में हजारी प्रसाद द्विवेदी
ललित निबंध विचार : द्विवेदी जी हिन्दी के सर्वाधिक सशक्त निबंधकार माने जाते हैं। उनके निबंधों को ललित निबंधों के लिए मानदण्ड स्वीकार किया जा सकता है। निबंध वह विधा है, जहाँ रचनाकार बिना किसी आड़ के पाठक से बातचीत करता है और इस क्रम में वह पाठक के सामने खुलता चलता जाता है। ललित निबंध में यह प्रवृत्ति अधिक मुखर होती है, क्योंकि वहाँ आरोपित व्यवस्था का बंधन नहीं होता। व्यक्ति व्यंजक या आत्मपरक निबंधकारों के प्रतिनिधि द्विवेदी जी स्वीकार करते हैं कि ''नये युग में जिस नवीन ढंग के निबंधों का प्रचलन हुआ है, वे तर्कमूलक की अपेक्षा व्यक्तिगत अधिक हैं। ये व्यक्ति की स्वाधीन चिन्ता की उपज हैं। व्यक्तिगत निबंधों के संदर्भ में उनके विचार हैं कि ''व्यक्तिगत निबंध 'निबंध' इसलिए हैं कि वे लेखक के समूचे व्यक्तित्व से सम्बद्ध होते हैं। लेखक की सहृदयता और चिन्तनशीलता ही उसके बंधन होते हैं।''
आचार्य द्विवेदी का अपने निबंधों के विषय में मत है कि ''इसमें मेरा मनुष्य प्रधान है, शास्त्र गौण।'' और जहाँ मनुष्य प्रधान होगा, वहाँ विधा के रूप का दबाव स्वभावतः कम होगा। यही कारण है कि द्विवेदी जी के निबंधों में ललित निबंध की स्वच्छंदता दिखाई पड़ती है। डॉ. विवेकी राय ने उत्कृष्ट ललित निबंध के कुछ बिन्दु माने हैं। पहला तो यह कि उसका इतिवृत्तात्मक आरंभ होता है, अर्थात् वह किस्से कहानी की तरह हल्के-फुल्के ढंग से शुरू होता है। मध्य में चलकर रचना गंभीर रूप लेती है, जहाँ गहन एवं गंभीर समस्याएं उत्पन्न होती हैं, साथ ही भटकाव भी आते हैं। अनेक प्रकार के विचारों से मुठभेड़ होती है और बीच-बीच में मनोरंजक प्रसंग भी आते हैं। इसके पश्चात् तीसरे स्तर पर लेखक अचानक पाठकों को किसी विचार या चिंतन के महासमुद्र में पहुँचा देता है। द्विवेदी जी के निबंधों में यह सभी विशेषताएँ मिलती हैं।
द्विवेदी जी की मनोरंजक, हल्की-फुल्की और विनोदपूर्ण लगने वाली उड़ानों के बीच एक गंभीर अन्वेषण की प्रक्रिया चलती रहती है। यह प्रक्रिया असल में आत्मान्वेषण की प्रक्रिया होती है। बात हल्के फुल्के ढंग से आरंभ होती है, लेकिन विचार-सागर में डूबने-उतराने के क्रम में वह चिन्तन की गंभीर ऊँचाइयों पर पहुँच जाती है। इस प्रक्रिया में पाठक कब शामिल हो जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। 'कुटज' अथवा 'देवदारू' में आत्मान्वेषण की यह प्रक्रिया जब चलती है, तो पाठक का 'आत्म' भी उसी उद्दाम जिजीविषा से अनुप्रेरित होने लगता है। तब 'कुटज' और 'देवदारू' में पाठक अपना स्वरूप भी अन्वेषित करने लगता है।
ललित निबंधों की मुद्रा परम्परावादी नहीं, विद्रोही है। वह निबंध की उस परम्परा को तोड़ती है, जहाँ व्यवस्था और अनुशासन है। ललित निबंधों की कलेवर तो स्वच्छंदता और भटकाव से बनता है। पाठक के मन को बांधने के लिए वे स्वयं निबंध और स्वच्छंद हो जाते हैं। यही शैली और यही मुद्रा द्विवेदी जी के निबंधों की भी है। उनमें कल्पना की उड़ान और संवेदनात्मक अनुभूति की तरलता तो है ही, साथ ही विचार-विश्लेषण और चिंतन का प्रवाह भी है। उनके व्यक्तिनिष्ठ निबंधों की पृष्ठभूमि में यथार्थ की चोट महसूस की जा सकती है।
ललित निबंध के भूगोल में कविता की तरलता और कहानी का उतार-चढ़ाव भी विद्यमान होता है। गंभीर विचार प्रवाह और सांस्कृतिक दृष्टि के साथ-साथ इसमें कवित्वमयता, रमणीयता, लेखक-व्यक्तित्व की प्रतिछाया, आत्मपरकता, कल्पना की उड़ान, विनोदपूर्ण शैली, इतिवृत्तात्मक आरंभ और किस्से कहानी जैसी उठान की मुद्रा होती है। ललित निबंध का कहानीपन सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करता है। इसने नई कहानी तथा उपन्यास को भी प्रभावित किया। इस दौर में ललित निबंध में कहानी से अधिक कहानी में ललित निबंध की घुसपैठ हुई है। यह ललित निबंध की लोकप्रियता का प्रमाण है। द्विवेदी जी के अन्य निबंधों के साथ-साथ 'बसंत आ गया है' में इस कहानीपन की मुखर उपस्थिति है। वस्तुतः ललित निबंध की सभी विशिष्टताओं को द्विवेदी जी के निबंधों में उनके सर्वोत्तम रूप में देखा जा सकता है। इसलिए द्विवेदी जी को ललित निबंधों के लिए मानदंड मानना उचित ही है।
Tuesday, October 4, 2016
मानो या ना मानो: सरकारी स्कूल प्राइवेट से ज्यादा खर्चा करते हैं
एक लाख पचासी हज़ार करोड़ रुपये। इतना खर्च होता है हर साल भारत में सिर्फ प्राइमरी शिक्षा पर। इसका ज्यादातर भाग अकेले शिक्षकों की तनख्वाह में जाता है फिर भी सरकारी स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई का स्तर नहीं सुधर रहा।
देशभर में सरकारी स्कूल, निजी स्कूलों के मुकाबले 50,000 करोड़ रुपए सालाना ज्यादा खर्चते हैं।
यदि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) यानि कुल खर्च के अनुपात में देखें तो प्राथमिक शिक्षा पर जीडीपी का 2.5 प्रतिशत यानि लगभग एक लाख पचासी हज़ार करोड़ रुपये खर्च होता है।
कुल 2.5 प्रतिशत के खर्च में से 1.75 प्रतिशत हिस्सा सरकारी और 0.71 प्रतिशत हिस्सा निजी स्कूलों पर खर्च होता है।
सरकारी स्कूल प्रति बच्चा, निजी स्कूलों से ज्यादा खर्चते हैं
प्राथमिक स्कूलों में प्रति बच्चा खर्च भी निजी स्कूलों से बहुत ज्यादा होता है। यदि कुछ राज्यों का उदाहरण देखें तो अंतर पता चलता है:
राजस्थान में टीचरों की सैलरी पर सबसे ज्यादा खर्चा
देश के लगभग सभी राज्यों में प्राथमिक शिक्षा पर जितना भी खर्च होता है उसमें से आधे से ज्यादा हिस्सा केवल शिक्षकों की सैलरी देने में खर्च हो जाता है।
फिर भी सरकारी स्कूलों के बच्चों का ज्ञान निजी स्कूलों से कम
आंकड़ों के अनुसार सरकारी स्कूलों के 22 प्रतिशत बच्चे ही भाग के सवाल हल कर सकते हैं, जबकि निजी स्कूलों में 32 प्रतिशत बच्चे भाग के सवाल कर सकते हैं।
इसी तरह सरकारी स्कूलों के महज़ 43 प्रतिशत बच्चे ही कक्षा दो की किताब पढ़ सकते हैं, जबकि निजी स्कूलों में ऐसा कर पाने में सक्षम बच्चों का आंकड़ा 53 प्रतिशत तक है।
शिक्षकों की जिम्मेदारी तय करने की ज़रूरत
शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था एकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव के अनुसार इतने ज्यादा खर्च के बाद और ज्यादातर शिक्षकों पर ही खर्च करने के बाद ज़रूरत इस बात की है कि शिक्षा स्तर के लिए टीचरों की जिम्मेदारी तय की जाए।
यदि ऐसा न हुआ तो वर्तमान स्थिति को देखते हुए अगर सरकारी स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई का स्तर निजी स्कूलों जितना लाने के लिए दो लाख 32 हज़ार करोड़ रुपए खर्च करना पड़ेगा।
नोट- सभी आंकड़े 'एकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव' नामक संस्था से लिए गए हैं।
Monday, October 3, 2016
हिंदी के 10 बेहतरीन कवि
यूं तो हिंदी साहित्य में कविता लिखने वाले अनगिनत सितारे रहे हैं जिनकी कलम ने हर दौर में हिंदी को एक से बढ़कर एक बेहतरीन रचनाएं दी। कविता हिंदी साहित्य की वो विधा है जो खूबसूरत से खूबसूरत विचार को कम शब्दों में कहना जानती है। ‘गांव कनेक्शन’ की साथी अनुलता राज नायर ने कोशिश की है ऐसी ही 10 बेहतरीन शख्सियतों को याद करने की, जिनकी कविताओं को साहित्य संसार सदियों तक याद रखेगा।
1. माखनलाल चतुर्वेदी
हिन्दी साहित्य को जोशो-ख़रोश से भरी आसान भाषा में कवितायें देने वाले माखनलाल चतुर्वेदी जी का जन्म मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ज़िले में चार अप्रैल 1889 को हुआ था। वो कवि होने के साथ-साथ पत्रकार भी थे| उन्होंने ‘प्रभा, कर्मवीर और प्रतापका सफल संपादन किया। 1943 में उन्हें उनकी रचना ‘हिम किरीटिनी’ के लिए उस समय का हिंदी साहित्य का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘देव पुरस्कार’ दिया गया था। हिम तरंगिनी के लिए उन्हें 1954 में पहले साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया। राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में पद्मभूषण की उपाधी लौटाने वाले कवि ने 30 जनवरी 1968 को आख़िरी सांस ली।
2. मैथिलीशरण गुप्त
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1886 में यूपी के झांसी ज़िले में चिरगाओं में हुआ था। उन्होंने अपनी कविताओं में खड़ी बोली का खूब इस्तेमाल किया। उनका महाकाव्य साकेत हिन्दी साहित्य के लिए एक मील का पत्थर है। जयद्रथ वध, भारत-भरती, यशोधरा उनकी मशहूर रचनाएं हैं। पद्मविभूषण सम्मान से नवाज़े इस कवि ने 12 दिसंबर 1964 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
3. हरिवंशराय बच्चन
आधुनिक छायावाद के कवियों में सबसे आगे हरिवंश राय बच्चन का नाम आता है। इनका जन्म 27 नवम्बर 1907 को इलाहाबाद में हुआ था। उनकी लिखी मधुशाला का नशा आज भी लोगों के सर चढ़ कर बोलता है। बच्चन अपना परिचय इस तरह दिया करते थे-
मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन, मेरा परिचय....
हरिवंश राय बच्चन
भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ के पद पर रहते हुए उन्होंने ओथेलो, मैकबेथ, रुबाइयाँ, भगवत गीता और यीट्स की कविताओं का अनुवाद किया। उनकी चार हिस्सों में लिखी गयी आत्मकथा - क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक, उनकी शानदार रचनाओं में गिनी जाती हैं। साहित्य अकादमी, सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार, पद्मभूषण से नवाज़े इस बेहतरीन कवि की 18 जनवरी 2003 को मृत्यु हो गयी।
4. महादेवी वर्मा
सन 1907 में फ़र्रुखाबाद यूपी में जन्मीं महादेवी वर्मा को छायावाद के प्रमुख कवियों में गिना जाता है। वे तकरीबन सारी उम्र प्रयाग महिला विद्यापीठ में पढ़ाती रहीं। आधुनिक मीरा के नाम से मशहूर महादेवी की कुछ ख़ास रचनाएँ हैं - दीपशिखा, हिमालय, नीरजा, निहार, रश्मि गीत। उनकी कविताओं की एक शानदार किताब यामा को ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा गया था। महादेवी बौद्ध धर्म से भी प्रभावित थीं। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। 11 सितम्बर 1987 को इलाहाबाद में उन्होंने आख़री सांस ली।
5. सुमित्रानंदन पंत
हिंदी साहित्य में छायावाद के चार स्तंभों में से एक सुमित्रानंदन पंत जी का जन्म 20 मई 1900 में हुआ था। झरने, बर्फ, फूल, भौंरे और वादियों वाले खूबसूरत कुमांउ, अल्मोड़ा में जन्म लेने की वजह से उनकी रचनाओं में प्रकृति और उससे जुड़ी खूबसूरत बातों का बखूबी ज़िक्र हुआ है। कुछ समय श्री अरबिंदो के सानिध्य में रहने से उनकी कुछ कविताओं में दार्शनिकता भी झलकती है। 1961 में उन्हें पद्मभूषण और 1968 में “चितंबरा” के लिए ज्ञानपीठ से नवाज़ा गया। उनके लिखे पल्लव, वीणा, ग्रंथि, गुंजन को खूब शोहरत मिली। उन्हें “काला और बुरा चाँद” के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। 28 दिसंबर 1977 को वो दुनिया से रुख़्सत हो गए।
6. जयशंकर प्रसाद
निराला, पंत, महादेवी के साथ जयशंकर प्रसाद भी हिंदी साहित्य के छायावाद के चौथे स्तंभ माने जाते हैं। ये 30 जनवरी 1989 में उत्तरप्रदेश के वाराणसी में पैदा हुए। इन्होंने साहित्य को इबादत समझा और इन्हे हिन्दी के अलावा संस्कृत उर्दू और फ़ारसी का भी ज्ञान था। प्रसाद ने रूमानी से लेकर देशभक्ति तक की कवितायें लिखीं। इनकी सबसे ज़बरदस्त रचना है ‘कामायनी’। 48 साल की उम्र में ही 14 जनवरी 1937 को बीमारी के बाद इनकी मौत हो गयी।
7. सूर्यकांत त्रिपाठी
इनकी पैदाइश मिदनापुर बंगाल में 16 फरवरी 1896 को हुई। बंगाल में परवरिश होने की वजह से ये रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और टैगोर से प्रभावित रहे। इनकी रचनायें कल्पनाओं की जगह ज़मीनी हकीक़त को दिखाती हैं। शुरू में ये बंगाली में लिखते रहे मगर बाद में इलाहाबाद आये और हिंदी में लिखना शुरू किया। सरोज शक्ति, कुकुरमुत्ता, राम की शक्ति पूजा, परिमल, अनामिका इनकी ख़ास रचनाएं हैं। इन्होंने बांगला से हिंदी अनुवाद भी खूब किया है। 15 अक्टूबर 1961 को इन्होने आख़री सांस ली।
8. रामधारी सिंह दिनकर
23 सितम्बर 1908, सिमरिया बिहार में जन्में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को वीर रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है, जिसका सबूत है उनका लिखा- ‘कुरुक्षेत्र’ लेकिन उनकी रचना ‘उर्वशी’ जिसे ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है, प्रेम और आपसी संबंधों पर रची गयी है। पद्मविभूषण दिनकर की और शानदार रचनाएं हैं – परशुराम की प्रतीक्षा, संस्कृति के चार अध्याय। देश की पहली संसद में उन्हें राज्यसभा सदस्य चुना गया था, फिर वे दो बार और मनोनीत हुए। 24 April, 1974 को उनकी मृत्यु हुई।
9. अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना
अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना को आमतौर पर ‘रहीम’ के नाम से ही जाना जाता है। 17 दिसम्बर 1556 याने मुग़ल काल में पाकिस्तान में रहीम का जन्म हुआ। आप अकबर के दरबार के नौं रत्नों में एक थे। रहीम अवधी और बृज दोनों भाषा में लिखते थे। उनकी रचनाओं में कई रस मिलते हैं। उनके लिखे दोहे, सोरठे और छंदबेहद मशहूर हैं। रहीम मुसलमान थे और कृष्ण भक्त भी। रहीम नेबाबर की आत्मकथा का फ़ारसी में अनुवाद भी किया था। 1627 में रहीम इस दुनिया को छोड़ गए
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय॥
रहीम
10. कबीर
हिन्दी भाषा के लेखन में निर्गुण भक्ति आन्दोलन की शुरुआत करने वाले संत कबीर का जन्म 1440 ईस्वी में हुआ था। माना जाता कि उनका जन्म काशी में हुआ
काशी में परगट भये,रामानंद चेताये
कबीर
कबीर ने एकदम सरल और सहज शब्दों में राम और रहीम के एक होने की बात कही। उन्होंने कबीर पंथ चलाया। कबीर ने साखियाँ, शबद और रमैनी भी लिखी। साखी में शिक्षाप्रद बातें हैं, शबदसंगीतमय है, प्रेम से भरी इन रचनाओं को आज भी गाया जाता है।रमैनी में दार्शनिक विचार हैं| कबीर जुलाहे का काम करते थे, वो लिखना नहीं जानते थे। माना जाता है कि वो बस कहते जाते और शिष्य लिखते रहे। माया मरी ना मन मरा, मर-मर गए। शरीर, आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर। माना जाता है कि सन 1518 के आसपास कबीर की मृत्यु हुई|
- अनुलता राज नायर लेखिका हैं, रेडियो के लिए कहानियां लिखती हैं और ‘गाँव कनेक्शन’ की साथी हैं, इनकी किताब ‘इश्क़ तुम्हे हो जाएगा’ पाठकों ने काफी पसंद की।
Sunday, October 2, 2016
साधारण कद-काठी वाले शास्त्रीजी के इरादे चट्टान की तरह थे मजबूत
देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के गुणों के बारे में बखान करना सूरज को दीया दिखाने समान है। वह भी ऐसे समय में जब भारत-पाकिस्तान के बीच तल्ख रिश्तों में और गर्माहट आ गई है तब शास्त्री जी के बोले गए बोलों से देशवासियों को और मजबूती मिल सकती है। वे भले ही एक साधारण कद-काठी के इंसान दिखते थे मगर उनके हौसले की दीवार इतनी मजबूत थी कि बड़ी से बड़ी परेशानी भी उनके सामने घुटने टेक देती थी। यही कारण है कि जब शास्त्री जी ने कुर्सी संभाली थी तब देश को आर्थिक रूप से मजबूत करने के साथ ही उसकी सुरक्षा को भी मजबूत करने का दायित्व उन्होंने बखूबी संभाला था। ऐसे में आइए शास्त्री जी के दिए बोलों से उनके व्यक्तित्व को जानने की कोशिश करते हैं…
1. जैसा मैं दिखता हूँ उतना साधारण मैं हूँ नहीं।
2. आर्थिक मुद्दे हमारे लिए सबसे जरूरी है, जिससे हम अपने सबसे बड़े दुश्मन गरीबी और बेराजगारी से लड़ सके।
3. हमारी ताकत और मजबूती के लिए सबसे जरूरी काम है वो लोग में एकता स्थपित करना है।
4. लोगों को सच्चा लोकतंत्र और स्वराज कभी भी हिंसा और असत्य से प्राप्त नहीं हो सकता।
5. क़ानून का सम्मान किया जाना चाहिए ताकि हमारे लोकतंत्र की बुनियादी संरचना बरकरार रहे और भी मजबूती भी।
6. यदि कोई एक व्यक्ति भी ऐसा रह गया जिसे किसी रूप में अछूत कहा जाए तो भारत को अपना सिर शर्म से झुकाना पड़ेगा।
7. आज़ादी की रक्षा केवल सैनिकों का काम नहीं है। पूरे देश को मजबूत होना होगा।
8. हमारा रास्ता सीधा और स्पष्ट है। अपने देश में सबके लिए स्वतंत्रता और संपन्नता के साथ समाजवादी लोकतंत्र की स्थापना और अन्य सभी देशों के साथ विश्वशांति और मित्रता का संबंध रखना।
9. देश के प्रति निष्ठा सभी निष्ठाओं से पहले आती है और यह पूर्ण निष्ठा है क्योंकि इसमें कोई प्रतीक्षा नहीं कर सकता कि बदले में उसे क्या मिलता है।
10. हमारी ताकत और स्थिरता के लिए हमारे सामने जो ज़रूरी काम हैं उनमें लोगों में एकता और एकजुटता स्थापित करने से बढ़कर कोई काम नहीं है।
11. जो शाशन करते हैं, उन्हें देखना चाहिए कि लोग प्रशासन पर किस तरह प्रतिक्रिया करनी है। अंतत: जनता ही मुखिया होती है।
12. हम सिर्फ अपने लिए ही नहीं बल्कि समस्त विश्व के लिए शांति और शांतिपूर्ण विकास में विश्वास रखते हैं।
13. मेरी समझ से प्रशासन का मूल विचार यह है कि समाज को एकजुट रखा जाए ताकि वह विकास कर सके और अपने लक्ष्यों की तरफ बढ़ सके।
लाल बाहदुर शास्त्री:एक नेता जिसने जीवन भर पैसे नहीं कमाए
शास्त्री जी के जीवन की सादगी देश के हर नेता के लिए उदाहरण रही। उनकी ज़िन्दगी से जुड़े कई ऐसे किस्से हैं जिससे इस बात का पता चलता है कि वो देश के सर्वोच्च लोकतांत्रिक पदों में से एक पर बैठे हुए भी कितने सरल थे। आइए पढ़ते हैं शास्त्री जी के जीवन से जुड़े कुछ किस्से:
जब शास्त्री जी के बेटे बिना पूछे निकाल ले गए सरकारी कार
शास्त्री जी जब 1964 में प्रधानमंत्री बने, तब उन्हें सरकारी आवास के साथ ही इंपाला शेवरले कार मिली, जिसका उपयोग वह न के बराबर ही करते थे। वह गाड़ी किसी राजकीय अतिथि के आने पर ही निकाली जाती थी। एक बार उनके पुत्र सुनील शास्त्री किसी निजी काम के लिए इंपाला कार ले गए और वापस लाकर चुपचाप खड़ी कर दी। शास्त्री जी को जब पता चला तो उन्होंने ड्राइवर को बुलाकर पूछा कि कितने किलोमीटर गाड़ी चलाई गई ? और जब ड्राइवर ने बताया कि चौदह किलोमीटर, तो उन्होंने निर्देश दिया कि लिख दो, चौदह किलोमीटर प्राइवेट यूज। शास्त्री जी यहीं नहीं रुके बल्कि उन्होंने अपनी पत्नी को बुलाकर निर्देश दिया कि उनके निजी सचिव से कह कर वह सात पैसे प्रति किलोमीटर की दर से सरकारी कोष में पैसे जमा करवा दें।
एक बार शास्त्री जी रेल कोच में कूलर लगाने पर भड़क उठे, मथुरा स्टेशन पर कूलर हटवाकर ही माने
शास्त्री जी खुद कष्ट उठाकर दूसरों को सुखी देखने वाले लोगों में से थे, एक बार जब शास्त्री जी रेल मंत्री थे और बम्बई जा रहे थे। उनके लिए प्रथम श्रेणी का डिब्बा लगा था। गाड़ी चलने पर शास्त्री जी बोले- डिब्बे में काफ़ी ठंडक है, वैसे बाहर गर्मी है। उनके पीए कैलाश बाबू ने कहा- जी, इसमें कूलर लग गया है। शास्त्री जी ने पैनी निगाह से उन्हें देखा और आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा- कूलर लग गया है?… बिना मुझे बताए? आप लोग कोई काम करने से पहले मुझसे पूछते क्यों नहीं? क्या और सारे लोग जो गाड़ी में चल रहे हैं, उन्हें गरमी नहीं लगती होगी?
शास्त्रीजी ने कहा- कायदा तो यह है कि मुझे भी थर्ड क्लास में चलना चाहिए, लेकिन उतना तो नहीं हो सकता, पर जितना हो सकता है उतना तो करना चाहिए। उन्होंने आगे कहा- बड़ा गलत काम हुआ है। आगे गाड़ी जहाँ भी रुके, पहले कूलर निकलवाइए।
मथुरा स्टेशन पर गाड़ी रुकी और कूलर निकलवाने के बाद ही गाड़ी आगे बढ़ी। आज भी फर्स्ट क्लास के उस डिब्बे में जहां कूलर लगा था, लकड़ी जड़ी है।
अपने फटे कुर्ते पर शास्त्री जी बोले, “ये खादी का कुर्ता बीनने वालों ने बड़ी मेहनत से बनाया है”
एक बार शास्त्री जी की अलमारी साफ़ की गई और उसमें से अनेक फटे पुराने कुर्ते निकाल दिये गए। लेकिन शास्त्री जी ने वे कुर्ते वापस मांगे और कहा- अब नवम्बर आयेगा, जाड़े के दिन होंगे, तब ये सब काम आयेंगे। ऊपर से कोट पहन लूंगा न।
शास्त्री जी का खादी के प्रति प्रेम ही था कि उन्होंने फटे पुराने समझ हटा दिये गए कुर्तों को सहेजते हुए कहा- ये सब खादी के कपड़े हैं। बड़ी मेहनत से बनाए हैं बीनने वालों ने। इसका एक-एक सूत काम आना चाहिए।
जब पत्नी ने कहा कि गुज़ारा 40 रु में ही हो रहा है ...
आज़ादी से पहले की बात है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लाला लाजपतराय ने सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की स्थापना की थी जिसका उद्देश्य गरीब पृष्ठभूमि से आने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाना था।
आर्थिक सहायता पाने वालों में लाल बहादुर शास्त्री भी थे। उनको घर का खर्चा चलाने के लिए सोसाइटी की तरफ से 50 रुपए हर महीने दिए जाते थे। एक बार उन्होंने जेल से अपनी पत्नी ललिता को पत्र लिखकर पूछा कि क्या उन्हें ये 50 रुपए समय से मिल रहे हैं और क्या ये घर का खर्च चलाने के लिए पर्याप्त हैं ?
ललिता शास्त्री ने जवाब दिया कि- ये राशि उनके लिए काफी है। वो तो सिर्फ 40 रुपये ख़र्च कर रही हैं और हर महीने 10 रुपये बचा रही हैं। लाल बहादुर शास्त्री ने तुरंत सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी को पत्र लिखकर कहा कि- उनके परिवार का गुज़ारा 40 रुपये में हो जा रहा है, इसलिए उनकी आर्थिक सहायता घटाकर 40 रुपए कर दी जाए और बाकी के 10 रुपए किसी और जरूरतमंद को दे दिए जाएं।
एक बार शास्त्री जी दुकानदार से बोले कि सबसे सस्ती साड़ी दिखाओ
एक बार शास्त्री जी कपड़े की एक दुकान में साडि़यां खरीदने गए। दुकान का मालिक शास्त्री जी को देख कर बहुत खुश हो गया। उसने उनके आने को अपना सौभाग्य माना और उनका स्वागत-सत्कार किया। शास्त्री जी ने उससे कहा कि वे जल्दी में हैं और उन्हें चार-पांच साड़ियां चाहिए। दुकान का मैनेजर शास्त्री जी को एक से बढ़कर एक साड़ियां दिखाने लगा। सभी साड़ियां काफी कीमती थीं। शास्त्री जी बोले- भाई, मुझे इतनी महंगी साड़ियां नहीं चाहिए। कम कीमत वाली दिखाओ।
इस पर मैनेजर ने कहा- सर… आप इन्हें अपना ही समझिए, दाम की तो कोई बात ही नहीं है। यह तो हम सबका सौभाग्य है कि आप पधारे। शास्त्री जी उसका मतलब समझ गए। उन्होंने कहा- मैं तो दाम देकर ही लूंगा। मैं जो तुम से कह रहा हूं उस पर ध्यान दो और मुझे कम कीमत की साडि़यां ही दिखाओ और उनकी कीमत बताते जाओ। तब मैनेजर ने शास्त्री जी को थोड़ी सस्ती साडि़यां दिखानी शुरू कीं। शास्त्री जी ने कहा- ये भी मेरे लिए महंगी ही हैं। और कम कीमत की दिखाओ।
मैनेजर को एकदम सस्ती साड़ी दिखाने में संकोच हो रहा था। शास्त्री जी इसे भांप गए। उन्होंने कहा- दुकान में जो सबसे सस्ती साडि़यां हों, वो दिखाओ। मुझे वही चाहिए। आखिरकार मैनेजर ने उनके मनमुताबिक साडि़यां निकालीं। शास्त्री जी ने उनमें से कुछ चुन लीं और उनकी कीमत अदा कर चले गए। उनके जाने के बाद बड़ी देर तक दुकान के कर्मचारी और वहां मौजूद कुछ ग्राहक शास्त्री जी की सादगी की चर्चा करते रहे।