आषाढ़ का एक दिन नाटक की कथानक:
अषाढ़ का एक दिन नाटक की कथावस्तु संस्कृत के प्रसिद्ध कवि नाटककार कालिदास जो कश्मीर के शासक के रूप में मातृगुप्त के रूप में प्रसिद्ध हुए की कहानी है। मल्लिका और कालिदास के प्रेम को आधार बनाकर नाटककार मोहन राकेश जी ने यथार्थ और भावना के द्वंद्व को दिखाया है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि जीवन में भावना का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण होता है, लेकिन जीवन तो यथार्थ में ही जीना होता है।
यह एक त्रिखंडीय नाटक है। पहले खंड में युवक कालिदास हिमालय में स्थित अपने गाँव में शांतिपूर्ण जीवन गुजार रहें थे और अपनी कला को विकसित कर रहे थे। वहीँ पर उन्हें एक युवती मल्लिका के साथ प्रेम संबंध है। नाटक का दृश्य बदलता है, जब वहाँ से दूर उज्जयनी के कुछ दरबारी कालिदास से मिलते हैं और उसे सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में चलने के लिए कहते हैं। कालिदास असमंजस में पड़ जाते हैं। एक तरफ उनका सुन्दर, शान्ति से भरा गाँव का जीवन है और दूसरी तरफ उज्जयनी के राजदरबार में प्रश्रय पाकर महानता पाने का अवसर।
कथा का आरंभ अषाढ़ के पहले दिन की वर्षा से होता है। मल्लिका कालिदास की भावनात्मक धरातल पर सच्चा और पवित्र प्रेम करती है। और वह उन्हें महान होते हुए भी देखना चाहती है। वह उन्हें उज्जयनी जाने की राय देती है। कालिदास भारी मन से उज्जयनी चले जाते हैं। उसकी माँ अंबिका कहती है कि जीवन में यथार्थ की पूर्ति भावना मात्र से नहीं हो सकती है। कालिदास उज्जयनी में राज कवि के रूप में बुलाये जाते हैं। आचार्य वररुचि उन्हें लेने के लिए आते हैं।
नाटक के दूसरे खण्ड में पता चलता है कि कालिदास की कीर्ति बढ़ती जाती है। उनका विवाह राजकन्या प्रियंगु मंजरी से हो जाता है। गाँव में मल्लिका दुखी और अकेले रह रही थी। उनको काश्मीर का राजा बनाया जाता है। अब वे कालिदास से मातृगुप्त बन जाते है। कालिदास और प्रियंगु मंजरी कश्मीर जाते हैं। वहाँ वे मल्लिका के गाँव में आते हैं, लेकिन कालिदास मल्लिका से नहीं मिलते हैं प्रियंगुमंजरी ही मल्लिका के घर जाकर उससे मिलती है। वह मल्लिका से सहानुभूति जताती है और कहती है कि वह उसे अपने सखी बना लेगी और उसका विवाह किसी राजसेवक के साथ करवा देगी। मल्लिका साफ़ इनकार कर देती है।
नाटक के तृतीय और अंतिम खण्ड में कालिदास गाँव में अकेले ही आता है। यह खबर मल्लिका को मिलती है कि कालिदास को कश्मीर का राज्यपाल बना दिया गया है लेकिन वह सबकुछ त्याग कर यहाँ आ गया है। समय का चक्र चलता है। मल्लिका की माँ की मृत्यु हो जाती है। मल्लिका की विवशता उसे ग्राम पुरुष विलोम के जाल में फ़सा देती है। निसहाय मल्लिका की शादी विलोम के साथ हो चुकी है और उसकी एक पुत्री है। कालिदास मल्लिका से मिलने आता है लेकिन मल्लिका के जीवन की इन सच्चाइयों को देख कालिदास निराश होकर चला जाता है। नाटक इसी जगह समाप्ति पर पहुँचता है।
यह नाटक दर्शाता है कि कालिदास के महानता पाने के लिए कालिदास और माल्लिका को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। जब कालिदास मल्लिका को छोड़कर उज्जयनी में बस जाता है, तब उसकी ख्याति और उसका रुतवा तो बढ़ जाता है लेकिन उसकी सृजनशक्ति चली जाती है। उसकी पत्नी प्रियंगुमंजरी इस प्रयास में जुटी रहती है कि उज्जयनी में भी कालिदास के इर्द-गिर्द उसके गाँव जैसा ही वातावरण बना रहे, लेकिन वह स्वयं मल्लिका नहीं बन पाती है।
नाटक के अंत में जब कालिदास की मल्लिका से अंतिम बार बात होती है तब वह मानता है कि “तुम्हारे सामने जो आदमी खड़ा है, यह वह कालिदास नहीं है जिसे तुम जानती थी।”
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