Tuesday, October 31, 2023

आषाढ़ का एक दिन


नाटक की ऐतिहासिकता:

      अपने दूसरे नाटक (“लहरों के राजहंस” 1963) की भूमिका में मोहन राकेश ने लिखा है- “मेघदूत पढ़ते समय मुझे लगा करता था कि वह कहानी निर्वासित यक्ष की उतनी नहीं है, जितनी स्वयं अपनी आत्मा से निर्वासित उस कवि की जिसने अपनी ही एक अपराध-अनुभूति को इस परिकल्पना में ढाल दिया हैं।”

      इस प्रकार मोहन राकेश जी ने कालिदास की इसी निहित अपराध-अनुभूति को आषाढ़ का एक दिन का आधार बनाया है। इससे यह स्पष्ट होता है, कि जो कालिदास मेघदूत लिखे है, उन्ही के ऊपर यह नाटक है। और उन्ही की भावनाओं और विचारों को लेकर मोहन राकेश जी ने इस नाटक को लिखा है।

  कालिदास की चर्चा स्कंदगुप्त नाटक में भी जयशंकर प्रसाद जी ने किया है। स्कंदगुप्त नाटक में जयशंकर प्रसाद जी ने स्कंदगुप्त पर अधिक ध्यान दया है वही आषाढ़ की एक दिन में कालिदास के ऊपर मोहन राकेश ने प्रकाश डाला है। ये वही कालिदास जी है जो मातृगुप्त के रूप में कश्मीर के शासक बने थे।

      जयशंकर प्रसाद के शब्दों में- (स्कंदगुप्त 1928 की भूमिका) में उन्होंने लिखा था। “मेरा अनुमान था कि मातृगुप्त कालिदास तो थे परन्तु द्वितीय और काव्यकर्ता कालिदास।” इस प्रकार हम कह सकते है कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ ऐतिहासिक नाटक है   

नाटक के पात्र

कालिदास: कवि और नायक

अंबिका: गाँव की एक वृद्धा, मल्लिका की माँ  

मल्लिका: अंबिका की पुत्री, कालिदास की प्रेमिका  

दंतुल: राजगुरु

मातुल: कवि-मातुल

निक्षेप: गाँव का पुरुष

विलोम: गाँव का पुरुष

रंगीनी, संगिनी: दोनों नागरी

अनुस्वार, अनुनासिक: दोनों अधिकारी

प्रियंगुमंजरी: राजकराजकन्या, कवि-पत्नी

‘अषाढ़ के एक दिन’ नाटक का मुख्य बिंदु:

इस नाटक में मोहन राकेश जी ने भौतिक दर्शन और प्रवृति मार्ग और निवृति मार्ग के घनीभूत द्वंद्व का ही चित्रण किया है।

मोहन राकेश जी ने नाटक में यह दिखाया है कि जीवन में भोग कुछ समय के लिए आकृष्ट तो करता है किन्तु अंत में वह अपना महत्व खो देता है।

इस नाटक में इतिहास और कल्पना का सुन्दर समन्वय है। इस नाटक में तीन अंक और दृश्य भी तीन है।

आषाढ़ का एक दिन

आषाढ़ का एक दिन नाटक की कथानक:

      अषाढ़ का एक दिन नाटक की कथावस्तु संस्कृत के प्रसिद्ध कवि नाटककार कालिदास जो कश्मीर के शासक के रूप में मातृगुप्त के रूप में प्रसिद्ध हुए की कहानी है। मल्लिका और कालिदास के प्रेम को आधार बनाकर नाटककार मोहन राकेश जी ने यथार्थ और भावना के द्वंद्व को दिखाया है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि जीवन में भावना का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण होता है, लेकिन जीवन तो यथार्थ में ही जीना होता है।

      यह एक त्रिखंडीय नाटक है। पहले खंड में युवक कालिदास हिमालय में स्थित अपने गाँव में शांतिपूर्ण जीवन गुजार रहें थे और अपनी कला को विकसित कर रहे थे। वहीँ पर उन्हें एक युवती मल्लिका के साथ प्रेम संबंध है। नाटक का दृश्य बदलता है, जब वहाँ से दूर उज्जयनी के कुछ दरबारी कालिदास से मिलते हैं और उसे सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में चलने के लिए कहते हैं। कालिदास असमंजस में पड़ जाते हैं। एक तरफ उनका सुन्दर, शान्ति से भरा गाँव का जीवन है और दूसरी तरफ उज्जयनी के राजदरबार में प्रश्रय पाकर महानता पाने का अवसर। 

       कथा का आरंभ अषाढ़ के पहले दिन की वर्षा से होता है। मल्लिका कालिदास की भावनात्मक धरातल पर सच्चा और पवित्र प्रेम करती है। और वह उन्हें महान होते हुए भी देखना चाहती है। वह उन्हें उज्जयनी जाने की राय देती है। कालिदास भारी मन से उज्जयनी चले जाते हैं। उसकी माँ अंबिका कहती है कि जीवन में यथार्थ की पूर्ति भावना मात्र से नहीं हो सकती है। कालिदास उज्जयनी में राज कवि के रूप में बुलाये जाते हैं। आचार्य वररुचि उन्हें लेने के लिए आते हैं।

       नाटक के दूसरे खण्ड में पता चलता है कि कालिदास की कीर्ति बढ़ती जाती है। उनका विवाह राजकन्या प्रियंगु मंजरी से हो जाता है। गाँव में मल्लिका दुखी और अकेले रह रही थी। उनको काश्मीर का राजा बनाया जाता है। अब वे कालिदास से मातृगुप्त बन जाते है। कालिदास और प्रियंगु मंजरी कश्मीर जाते हैं। वहाँ वे मल्लिका के गाँव में आते हैं, लेकिन कालिदास मल्लिका से नहीं मिलते हैं प्रियंगुमंजरी ही मल्लिका के घर जाकर उससे मिलती है। वह मल्लिका से सहानुभूति जताती है और कहती है कि वह उसे अपने सखी बना लेगी और उसका विवाह किसी राजसेवक के साथ करवा देगी। मल्लिका साफ़ इनकार कर देती है।

       नाटक के तृतीय और अंतिम खण्ड में कालिदास गाँव में अकेले ही आता है। यह खबर मल्लिका को मिलती है कि कालिदास को कश्मीर का राज्यपाल बना दिया गया है लेकिन वह सबकुछ त्याग कर यहाँ आ गया है। समय का चक्र चलता है। मल्लिका की माँ की मृत्यु हो जाती है। मल्लिका की विवशता उसे ग्राम पुरुष विलोम के जाल में फ़सा देती है। निसहाय मल्लिका की शादी विलोम के साथ हो चुकी है और उसकी एक पुत्री है। कालिदास मल्लिका से मिलने आता है लेकिन मल्लिका के जीवन की इन सच्चाइयों को देख कालिदास निराश होकर चला जाता है। नाटक इसी जगह समाप्ति पर पहुँचता है।

       यह नाटक दर्शाता है कि कालिदास के महानता पाने के लिए कालिदास और माल्लिका को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। जब कालिदास मल्लिका को छोड़कर उज्जयनी में बस जाता है, तब उसकी ख्याति और उसका रुतवा तो बढ़ जाता है लेकिन उसकी सृजनशक्ति चली जाती है। उसकी पत्नी प्रियंगुमंजरी इस प्रयास में जुटी रहती है कि उज्जयनी में भी कालिदास के इर्द-गिर्द उसके गाँव जैसा ही वातावरण बना रहे, लेकिन वह स्वयं मल्लिका नहीं बन पाती है।

नाटक के अंत में जब कालिदास की मल्लिका से अंतिम बार बात होती है तब वह मानता है कि “तुम्हारे सामने जो आदमी खड़ा है, यह वह कालिदास नहीं है जिसे तुम जानती थी।”  

Monday, October 9, 2023

जो साथ न मेरा दे पाए, उनसे कब सूनी हुई डगर?

मृत्यु सत्य है ये जानते हुये भी हर व्यक्ति यहॉं रहने का पुरा व्यवस्था कर रहा है। कुछ चीजें सच में भगवान करते है श्रेय हमें मिल जाता है। मेरे मां - पिता को कैंसर था मौत कैंसर से हुई। एक कैंसर घर तोड़ देता है यहां दोनों को हो गया। बिमारी किसे हो, नहीं कहा जा सकता। दुर्गापूजा के समय ही मां को कैंसर हुआ है ये पता चला। पूजा को लेकर जितनी अच्छी स्मृतियाँ थी धूमिल हो गयी। पूजा के समय रोड़ बजार भरा-भरा रहता हो लेकिन अस्पताल खाली रहता है। प्रायः सभी डाक्टर घुमने बाहर चले जाते है। कोई अच्छा डाक्टर नहीं मिला। मां की परेशानी बढ़ती जा रही थी लेकिन हिम्मती थी। जो मेरी मां से मिले होंगे उसके हिम्मतीपन को जानते होंगे। कैंसर जैसे बड़ी बिमारी भी हमलोगों से छुपा कर रखी थी। खुद डाक्टर के पास जाती टेस्ट कराती और हमें कुछ नहीं बताती। मां को कैंसर है ये बात डायग्नोस्टिक सेंटर वाले एक मित्र ने बताया या बुरी तरह से फटकारते हुये कहा कि इतना व्यस्त हो कि मां को कैंसर है और उनके साथ कोई आता भी नहीं है।ये शब्द सुनने के बाद रोम रोम कांप गया। घर गया रिपोर्ट देखने लगा मां समझ गयी और रोने लगी। कैंसर उसका हिम्मत नहीं तोड़ पाया लेकिन संतान को तकलीफ होगा, यह बात उसे अंदर से तोड़ दिया। पिता के बिमारी और पैसे खर्च को जानती थी। उसका कष्ट बिमारी नहीं था उसको तकलीफ इस बात का था कि मेरे वजह से मेरे बच्चों को तकलीफ होगा। टाटा मेडिकल में भर्ती कराया गया नहीं बच पायी। तीन दिन में ही मर गयी। बहुत तकलीफ नहीं दी मरते हुये भी बचा गयी। टाटा से ही सफर शुरू हुआ। मां के मरने के बाद भी टाटा से रिश्ता रहा। भगवान ने निमित्त बना लिया मुझे.... इस बार भी कैंसर के लिये हमें बड़ा मदद मिला है और हम टाटा के साथ मिलकर मरीजों के लिये कुछ कर पायेंगे। भगवान को धन्यवाद.... इस लायक बनाने के लिये। मां के समय मेडिकल प्रबंधन को यह बात अच्छी लगी थी कि आपके साथ इतने लोग है। वो लोग आज भी है..... समाज में हम गिलहरी प्रयास कर रहें है.....दुख बीत जाने के बाद लोग समान्य जीवन में रम जाते है। उन्हें दूसरे के दुख से कोई लेना-देना नहीं रहता। 

धन की भाषा कल भी नहीं समझ पाता और आज भी नहीं। इसलिए बहुत जगह अनफिट हो जाता हूँ। अब लगता है कि प्रभु ने दुख नहीं दिया बल्कि हिम्मती बनाया है।

पूरे घटना क्रम को जब जब सोचता हू शिवमंगल सिंह की कविता याद आती है...... 

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,


उस-उस राही को धन्यवाद।

जीवन अस्थिर अनजाने ही, हो जाता पथ पर मेल कहीं,
सीमित पग-डग, लम्बी मंज़िल, तय कर लेना कुछ खेल नहीं।
दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते, सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
उस-उस राही को धन्यवाद।

साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई,
दो स्नेह-शब्द मिल गए, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई।
पथ के पहचाने छूट गए, पर साथ-साथ चल रही याद 
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
उस-उस राही को धन्यवाद।

जो साथ न मेरा दे पाए, उनसे कब सूनी हुई डगर?
मैं भी न चलूँ यदि तो भी क्या, राही मर लेकिन राह अमर।
इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गए स्वाद 
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
उस-उस राही को धन्यवाद।

कैसे चल पाता यदि न मिला होता मुझको आकुल अन्तर?
कैसे चल पाता यदि मिलते, चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर।
आभारी हूँ मैं उन सबका, दे गए व्यथा का जो प्रसाद 
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला,
उस-उस राही को धन्यवाद।