Wednesday, September 27, 2023

कबीर

कबीर एक धर्मोपदेशक, समाज-सुधारक योगी और कवि के साथ-साथ महान भक्त भी थे।

‘कबीर’ फारसी का शब्द है। कबीर का अर्थ ‘महान’ˎहोता है।

  • कबीर का जन्म विक्रमी संवत् 1455 में काशी नामक स्थान पर हुआ था।
  • वि०स० को ई० में बदलने के लिए 57 से घटाने पर कबीर का जन्म 1398 ई० में हुआ था। (यह प्रमाणित है)
  • कबीर की एक रचना है “कबीर चरित्र बोध” (इसके रचनाकार अज्ञात है) इस रचना का प्रकाशन डॉ० श्यामसुंदर दास ने नागरी प्रचारिणी सभा-काशी से करवाया था। उसी ‘कबीर चरित्र बोध’ में एक दोहा मिलता है।

“संवत् चौदह सौ पचपन साल गये, चंद्रवार इक ठाठ भये।

 जेठ सुदी बरसायत को, पूर्णमासी प्रकट भये।।

  • कबीर नीरू और नीमा जुलाहा दम्पति के संतान थे। इन्होने ही कबीर का पालन-पोषण किया था।
  • डॉ रामकुमार वर्मा, डॉ गोविंद त्रिगुनायक, डॉ पीतांबर बडथ्वाल, डॉ सतनाम सिंह ने कबीर का जन्म स्थान ‘मगहर’ माना है।
  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ श्याम सुंदर दास, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, प्रभाकर माचवे एवं स्वयं कबीरदास जी ने भी अपना जन्म स्थान काशी माना है। जन्म से संबंधित कबीर का एक पद है-

“काशी में हम प्रकट भये रामानंद चेताये।”

  • सिक्ख धर्म के गुरुग्रंथ साहब में भी कबीरदास जी के वाणी को स्थान मिला है।

कबीर का जन्म काल विभिन्न विद्वानों के अनुसार:

  • ‘बिल’ ने इनका जन्मकाल 1490 ई माना है।
  • ‘फर्कुहर’ ने 1400-1518 ई माना है।
  • ‘मेकालिफ’ ने 1300-1420 माना है।
  • ‘बेसकत’ और ‘स्मिथ’ ने 1440 से 1580 माना है।
  • ‘हंटर’ ने 1300-1400 माना है।
  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ रामकुमार वर्मा, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और श्यामसुंदर दास इन चारों ने कबीरदास जी का जन्म 1398-1518 माना है। (सर्वमान्य है)

कबीर का निधन- 1518 ई० में हुआ था। भक्तमाल की टीका में एक पद मिलाता है। ‘भक्तमाल’ नाभादास की रचना है।


संवत् पंद्रह सौ पिचहत्तर कियो मगहर को गौण

 माघ सुदी एकादशी रत्यौ पौन में पौन।”

“जो काशी मरे मोख पावही रामहि कौन निहोरा”

  • यह पद ‘कबीर परचई’ में मिलता है, जिसकी रचना ‘अनंतदास’ ने किया था।
  • कबीरदास के गुरु ‘रामानंद’ थे। स्वयं कबीर ने माना है। (सर्वमान्य है)
  • मुस्लिम विद्वानों के अनुसार- इनके गुरु ‘शेख तकी’ हैं।
  • कबीर सिकंदर लोदी के समकालीन थे। उनपर सिकंदर लोदी के द्वारा किए गए अत्याचारों का वर्णन किया गया है। (1488-1517) के समकालीन लोदी ने उनपर अत्याचार किया था। इसका वर्णन स्वयं कबीर ने भी साखी के ‘राग गौड़’ के पद में किया है।
  • कबीर हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के निर्गुण काव्य धारा के ज्ञानश्रयी (संत काव्यधारा के) कवि थे।
  • कबीरदास जी की रचनाएँ: अधिकांश विद्वान् कबीर की एक ही रचना ‘बीजक’ को मानते हैं। बीजक के पदों का संकलन कबीर के शिष्य धर्मदास ने किया था।

डॉ नगेन्द्र के अनुसार- “कबीर के कुल 63 रचनाएँ माना है, जिसमे प्रकाशित रचनाओं की संख्या 43 मानी है। इनमे 43 में से मुख्य रचनाएँ है- ‘अनुराग सागर’, ‘विवेक सागर’, ‘मुहम्मद बोध’, ‘हंस मुक्तावली’, ‘ज्ञान सागर’, ‘ब्रहम निरूपण’, ‘रक्षाबोध की रमैनी’, ‘विचार माला’, ‘कबीर गोरख गोष्टी’। इनमे 20 रचनाएँ अप्रकाशित है।

कबीर की पत्नी का नाम लोई था इनकी दो संताने थी। कमाल और कमाली। कमाल उदण्डप प्रवृति का नास्तिक था। कबीर के शिष्यों का कथन था-

“बूड़ा वंश कबीर का उत्पन्न भयो कमाल।”

डॉ रामकुमार वर्मा ने इनकी दूसरी पत्नी का उल्लेख किया है, जिसका नाम रमजनिया था। इनके भी दो बच्चे थे। निहाल और निहाली। कमाली कृष्ण भक्त थी। (लेकिन इससे कोई भी विद्वान सहमत नही है)। कबीर पढ़े-लिखे थे या अनपढ़, स्वयं कबीर ने अपने आपको अनपढ़ कहा है। उन्होंने स्वयं कहा है-


“कागद मसि छुयो नहीं कलम गहि नहि हाथ।”

साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल, श्यामसुंदर दास, गुलाब राय, पीतांबरदत्त बडथ्वाल भी इन्हें अनपढ़ मानते हैं। (नागरी प्रचारिणी सभा- काशी) हजारी प्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी, गणपति चंद्र गुप्त, मिश्र बंधु, ग्रियर्सन, नामवर सिंह ने भी कबीर को अनपढ़ ही  माना है।

  • कबीर ने मांस भक्षण निषेध, वैष्णवी दया का भाव रखना रामानंद से ग्रहण किया।
  • हठयोग साधना प्रणाली का ग्रहण नाथ पंथियों से किया।
  • मायावाद और अद्वैतवाद कबीर ने शंकराचार्य से ग्रहण किया।
  • प्रेमसाधना का मार्ग उन्होंने सूफी कवियों से ग्रहण किया।
  • मूर्ति पूजा, तीर्थ स्थान का विरोध कबीर ने मुस्लिम सरियत (कानून) से ग्रहण किया।
  • ज्ञान की बातें और ज्ञान मार्ग, हिंदू धर्म शास्त्रों और कुछ शंकराचार्य से ग्रहण किया।
  • कबीर की रचना बीजक है। इसका संकलन धर्मदास ने किया। बीजक के तीन भाग हैं।

साखी- ‘साखी’ साक्षी शब्द का (तद्भव) बदला हुआ रूप है। जिसका अर्थ होता है ‘प्रत्यक्ष ज्ञान’ अथार्त जो ज्ञान सबको दिखाई दे। ‘साक्षी’ के 59 भाग हैं। पहला अंग ‘गुरुदेव को भंग’ है और अंतिम ‘अबिहड़ को अंग’ है।

शबद- इसके 23 भाग हैं। यह गेय पद है। इसमें उपदेशात्मक के स्थान पर भाव की प्रधानता होती है। इसमें योगसाधना और कीर्तन संबंधी बातें हैं। भाषा ब्रज /पुरबी बोली है।

रमैनी– इसके 47 भाग हैं। यह चौपाई छन्द में लिखी गई है। इसमें कबीर के दार्शनिक विचार हैं। आत्मा, परमात्मा, मोह, माया आदि क्या है?

कबीर एकेश्वरवादी थे। उनके पद में एकेश्वरवाद का समर्थन है।

उन्होंने कहा है-

“भाई रे दोई जगदीश्वर कहाँ ते आया, कहुं कौनें भरमाया।”


“पाणी ही ते हिम भया, हिम है गया विलाय।

 जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाए।”

 “हम तौ एक एक करी जाना। दोई कहै तिन्हीं को दोगज जिन नाहिंन पहिचाना।”

 कबीर ने मूर्ति पूजा का विरोध किया है। वे कहते हैं –

“पाहन पूजै हरि मिलै तो मैं पूजू पहार तातै ये चाकी भली पिस खाय संसार।”

कबीर ने अजान का विरोध किया है वे कहते हैं-

“काकड़ पाथर जोरी के मस्जिद लई चुनाय,

ता चढ़ी मुल्ला बांग दे का बहरा भय खुदाय।”

अद्वेतवाद- “जल में कुंभ-कुंभ में जल है, बाहिर भीतर पानी।

फुट कुंभ जल जलहि समाना, यह तथ कथ्यों गियानी।।’

कबीर में विरह की व्याकुलता थी। वे कहते हैं –

“आँखड़ियाँ झाई पड़ी, पंथ निहार निहारी। जिभड़ियाँ छाला पड़या नाम पुकारि पुकारि।।”

“लाली मेरी लाल की जित देखूँ तित लाल, लाली देखन मैं चली मैं भी हो गई लाल।।”

कबीर ने माया का विरोध किया है-

“माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पडंत।

कहै कबीर गुर ग्यान थै, एक आध उनरंत।।”

कबीर ने अहिंसा और पशु बलि का विरोध किया है। वे कहते हैं –

“दिन भर रोजा रखत हैं रात हनन है गाय।


यह तो खून वह बंदगी, कैसे सुखी खुदाय।।”

कबीर ने अवतारवाद का खंडन किया है। वे कहते हैं –

“दशरथ सूत तिहुँ लोक बखाना। राम नाम का मर्म न आना।”

कबीर ने निराकार ईश्वर की उपासना किया है। वे कहते है-

“जाके मुँह माया नहीं, नाहीं रूप कुरूप।

पुहुप बास ते पातरा ऐसा तत्व अनूप।।”

देहि माह विदेह है, साहब सुरति सरूप।

अनत लोक में रमि रहा जाकैं रंग न रूप।।”

कबीर रहस्यवादी थे। वे कहते हैं –

“दुलहिनी गावहु मंगलाचार। हम घरि आए हो राजाराम भरतार।

तन रस करि मैं मन रात करि हौं, पंचतत्त बाराती।

रामदेव संगि लै हौं, मैं जोबन मैं माती।।”

कबीर ने शास्त्रीय ज्ञान का परिहास (मजाक) किया है। वे कहते हैं –

“तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आखिन की देखी।”

कबीर पर बौद्ध धर्म के महायान शाखा का प्रभाव था। वे कहते हैं –

“पानी के रे बुदबुदा, अस माणुस की जात।

 एक दिन छिप जाएगा,ज्यों तारा प्रभात।।”

कबीर ने नारी के केवल कामिनी रूप का निंदन किया है। वे कहते हैं –

“जा नारी की झांई परत अंधा होत भुजंग।

कबीरा तिन की कौन गति, जो नित नारी को संग।।”

“नागिन के तो दोय फन, नारी के फन बीस।

जाका डसा न फिर जीये, मरि है बिसबा बीस।।”

कबीर ने ईश्वर की तुलना में गुरु को उच्च स्थान दिया है वे कहते हैं –

“गुरु गोबिंद दोनों खड़े काके लागू पाँय,

बलोहारी गुरु आपनो गोबिंद दिया बताए।।”

कबीर की भाषा: ब्रज, पंजाबी, खड़ीबोली, अरबी और फ़ारसी इन पाँचों भाषाओं के शब्द     

मिलते हैं।

  • श्यामसुंदर दास ने कबीर की भाषा को ‘पंचमेल खिचड़ी’ कहा है।
  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को ‘साधुक्कड़ी’ भाषा कहा है।
  • आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को ‘भाषा का डिक्टेटर’ कहा है।
  • बाबुराम सक्सेना ने कबीर को अवधी भाषा के प्रथम संत कवि’ कहा है।
  • बासुदेव सिंह के अनुसार भाषा की दृष्टि से कबीर ‘सच्चे लोकनायक’ थे।

डॉ उदयनारायण तिवारी के अनुसार- “वास्तव में कबीर की मातृभाषा बनारसी बोली थी, जो भोजपुरी का विस्तृत रूप था। “नागरी प्रचारिणी सभा काशी से प्रकाशित ‘कबीर ग्रंथावली’ की भूमिका में श्याम सुन्दरदास के आधार पर कबीर की भाषा का निर्णय करना टेढ़ी खीर है क्योंकि वह खिचड़ी है।”

कबीर के विषय में विद्वानों के विशेष कथन:

  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “प्रतिभा उनमे बड़ी प्रखर थी।”
  • आचार्य हजारी प्रसाद द्वेदी के शब्दों में- “वे नृसिंह की साक्षात प्रतिमूर्ति थे।”
  • बीजक का संपादन ‘कबीर ग्रंथावली’ के नाम से श्यामसुंदर दास जी ने किया। यह  काशी नागरी प्रचारिणी सभा काशी से प्रकाशित हुआ। (यह सबसे प्रामाणिक मानी जाती है)

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