Wednesday, September 27, 2023

भक्ति काल

“भक्ति द्रविड़ उपजी लाए रामानंद

प्रकट किया कबीर ने सप्तद्वीप नव खंड।।”1

      भक्ति आन्दोलन का उदय मध्यकालीन इतिहास की एक प्रमुख घटना है। इसका उदय अकस्मात् नहीं हुआ है बल्कि पहले से ही इसकी निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी, युगीन परिस्थितियों ने इसे गति प्रदान किया। भक्ति भावना का उद्भव सबसे पहले दक्षिणी भारत में हुआ था। इस संदर्भ में ‘श्रीमद् भागवत’ में निम्नलिखित श्लोक में मिलता है-

“द्रविडे चाहं उत्पन्न जाता कर्णाटके वृद्धिं गता।

क्वश्चित् क्वश्चित् महाराष्ट्रे गुर्जरत्रां जीर्णा गता।।2

      आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार- भक्ति आन्दोलन की समय सीमा- वि.सं. 1375 से 1700 (1318 से 1643 ई.) है।3

भक्ति काल/आन्दोलन को अनेक नामों से जाना जाता है:

* ग्रियर्सन ने इसे ‘हिंदी साहित्य का ‘स्वर्ण काल’ कहा है।

* श्यामसुंदर दास ने इसे ‘हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग’ कहा है।

* पृथ्वीनाथ कमल ‘कुलश्रेष्ठ’ ने इसे ‘कलात्मक उत्कर्ष का काल’ कहा है।

* हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसे ‘एक नई दुनिया’ कहा है।

      ‘भक्ति’ शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ- “मोनियर विलियम के अनुसार- ‘भक्ति’ शब्द संस्कृत की ‘भज्’ धातु में ‘क्तिन’ प्रत्यय के योग से बना हैं, जिसका अर्थ हैं- ‘ईश्वर के एश्वर्य में भाग लेना।’ ‘भक्ति’ शब्द का उल्लेख सबसे पहले ‘श्वेताश्वेतर’ उपनिषद् में मिलता है।

भक्ति की परिभाषाएँ-

1. “यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरो”।4

2. “सा परानुरक्तीश्वरे”5, अथार्त ईश्वर के प्रति परम अनुरक्ति ही भक्ति है।

3. आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।”6

4. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- “भगवान् के प्रति अनन्यगामी एकांत प्रेम का नाम भक्ति है।”

दक्षिण भारत में भक्त कवियों की निम्नलिखित दो शाखाएँ थी- 1. आलवार और 2. नयनार

      1. आलवार- ‘आलवार’ तमिल भाषा का शब्द है। इसका अर्थ ‘मग्न’ है। ईश्वर भक्ति में लीन भगवान् विष्णु एवं उनके अवतारों के उपासक आलवार कहलाते थे। इनका समय नवीं शताब्दी माना जाता है। आलवारों की संख्या 12 थी। इन बारह में एक अंदाल/अंडाल नाम की एक महिला भी थी। इनमे प्रथम ‘मोयंग आलवार’ (सोरोयोगिन्), अंतिम तिरुमगै आलवार (परकाल) थे। सबसे प्रसिद्ध इनमे नम्नालवर (शाठ्कोप) थे। ये शुद्र राम भक्त थे। आलवार भक्तों के पदों का संकलन ‘नालियार दिव्य प्रबंधम्’ है। इसमें पदों की संख्या 4000 है। इसके संकलन कर्ता- रंगनाथ हैं। ‘नालियार दिव्य प्रबंधम्’ को तमिल का ‘वेद’ कहा जाता है।

      2. नयनार- ‘नयनार’ तमिल भाषा का शब्द है। इसका अर्थ ‘समर्पित’ करना है। ये भगवान् शिव के उपासक थे। इनकी संख्या 63 थी। इनका समय 7-8 वीं शतब्दी माना जाता है। प्रथम ‘अनय नयनार’ और अंतिम ‘इसै नयनार’ थे। इनमे एक महिला ‘करईक्कल अमय्यर’ थी। इनके पदों का संग्रह ‘पेरिय पुराण’ में है। इसके संकलन कर्ता ‘शेक्किषार’ हैं। संकलन का समय 10 वीं शताब्दी है। भक्ति आन्दोलन को उत्तरी भारत में लाने का श्रेय रामानंद को है। इस संदर्भ में कबीर की यह उक्ति प्रसिद्ध है-

“भक्ति द्रविड़ उपजी लाए रामानंद

      प्रकट किया कबीर ने सप्तद्वीप नव खंड।।”

      भक्ति आंदोलन एक व्यापक सांस्कृतिक आन्दोलन है। यह कैसे और क्यों पैदा हुआ? इसको लेकर इतिहासकारों में कोई एक राय नहीं है-

* शुक्ल के अनुसार- यह मुस्लिम आक्रमणकारियों की देन है।

* डॉ. ताराचंद महोदय के अनुसार- यह अरब आक्रमणकारियों की देन है।



* डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार- यह पराजय एवं हताशा का परिणाम है।

* गुलाबराय के अनुसार- यह पराजित मनोवृति का परिणाम था।

* हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- यह भारत की सांस्कृतिक विकास परंपरा का परिणाम था।

* ग्रियर्सन, बेबर, कीथ के अनुसार- यह ईसाइयत की देन थी।

भक्ति आंदोलन के प्रमुख नेतृत्व कर्ता:

उत्तरी भारत में – रामानंद

बंगाल में – चैतन्य महाप्रभु

असम में – शंकरदेव

महाराष्ट्र में – बारकारी संप्रदाय (नामदेव, पुंडरिक, ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम)

उड़ीसा में – पंचसखा (बलरामदास, अनंतदास, यशोवंतदास, जगन्नाथ दास, अच्च्युतानंद दास)

भक्तिआन्दोलन की पृष्ठभूमि:

      भक्तिकाल की राजनीतिक परिस्थितियाँ: “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने के कारण हिन्दू जनता के ह्रदय में कोई गर्व और उत्साह नहीं बचा था। उनके सामने ही उनके देव-मंदिर को गिराया जा रहा था, देव मूर्तियाँ तोड़ी जाती थी। पूज्य-पुरुषों का अपमान होता था। वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी स्थिति में वे अपनी वीरता के गीत न तो गा सकते थे और न ही बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे।”7 दिल्ली सल्तनत का इतिहास तुर्क-आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी के द्वारा भारत पर आक्रमण से शुरू होता है। राजपूत राजाओं की परस्पर फूट तथा शत्रुता के कारण पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गौरी के हाथों तथा जयचंद कुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों मारा गया। इसके पश्चात दिल्ली सल्तनत की स्थापन हुई। तेरहवीं सदी के अंत में दिल्ली सल्तनत का विस्तार मालवा से लेकर गुजरात, दक्कन और दक्षिण भारत तक हो गया। साम्राज्य के विस्तार एवं केन्द्रीकरण की नीति की शुरुआत अलाउद्दीन खिलजी के द्वारा हुई और मुहम्मद बिन तुगलक के समय तक अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी।

भक्तिकाल की धार्मिक परिस्थितियाँ: उत्तर भारत में तुर्कों का आगमन तथा दिल्ली सल्तनत की स्थापना, विकास और खलबली दोनों साथ लेकर आया था। हिंदू मुस्लिम वैमनस्य बाह्य आडंबरों का बोलबाला, हिंदू धर्म में विभिन्न मत-मतांतरों का प्रचलन। इसके बावजूद पारस्परिक सामंजस्य और मेल मिलाप की धीमी प्रक्रिया भी आरंभ हो गई थी। भक्तिकाल के कवियों की मानवतावादी दृष्टि ने इस भेदभाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

      भक्तिकाल की सामाजिक परिस्थितियाँ: मध्य एवं निम्न वर्गों की दयनीय स्थिति, जाती प्रथा एवं वर्ण व्यवस्था का बोलबाला था। आचार-विचार की पवित्रता का स्थान स्वार्थ और पाखंड ने ले लिया था। शूद्रों के साथ अछूत का व्यवहार चलता रहा। स्वंय मुस्लिम समाज भी इस नस्ल और जातिगत वर्गों में विभाजित था। ग्रामीण समाज एवं किसानों की स्थिति काफी दयनीय थी। जमींदारों के द्वारा किसानों का शोषण होता था। अकाल और भूख की पीड़ा का मार्मिक चित्रण तुलसीदास ने किया है-

                  ‘कलि बारहिं बार दूकान परै।

                  बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै’ या

                  ‘नहीं दरिद्र सम दुःख जग माही।’8  

      तुलसी का काव्य तत्कालीन ग्रामीण समाज की दशा का दस्तावेज है-

                  ‘खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि।

                  बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।’9

      भक्तिकाल की आर्थिक परिस्थितियाँ: कृषि एवं पशु पालन, अर्थ व्यवस्था का मूल आधार था। निम्न एवं मध्य वर्गों की स्थिति दयनीय थी। आर्थिक स्थिति को बेहतरीन बनाने और बढ़ावा देने के लिए इसी दौर में दिल्ली, आगरा, बनारस, इलाहबाद, पटना आदि शहरों का विकास हुआ। यही शहर आगे चलकर व्यापार के केंद्र बने। इसके साथ ही बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण यात्रियों के सराय आदि की व्यवस्था किया गया। इस काल में शिल्पी वर्ग का उदय हुआ। आर्थिक स्थिति बेहतर होने से उनमे सामाजिक मर्यादा की स्वीकृति की भावना पैदा हुई। 

भक्तिकाल की सांस्कृतिक परिस्थितियाँ: बाल-विवाह की प्रथा, हिंदू मुस्लिम संस्कृतियों में समन्वय होने लगा था। इस समय हिन्दू समाज शास्त्रीय विधान और पौराणिक विश्वासों को साथ लेकर जी रहा था। भक्ति का प्रभाव मध्यकाल की सभी सांस्कृतिक गतिविधियों में दिखाई दे रहा था। विभिन्न कलाओं में राधाकृष्ण की लीलाएँ और रामलीला भी लोकप्रिय हो रही थी। यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार हिंदी साहित्य का भक्तिकाव्य है, वैसे ही अन्य कलाओं के इतिहास का भी भक्तिकाल होगा।

भक्तिकाव्य की काव्य धाराएँ: भक्तिकाव्य धारा को मूलतः दो भागों में बाँटा गया है –

      1. निर्गुण भक्तिकाव्य धारा 

      2. सगुण भक्तिकाव्य धारा

निर्गुण भक्तिकाव्य धारा-

      जिन कवियों ने ईश्वर को निर्गुण, निराकार, अजन्मा, अनंत, अनादी, अगोचर आदि मानकर उनकी उपासना में काव्य रचना की उनके द्वारा रचित काव्य निर्गुण भक्ति काव्य धारा के नाम से जाना जाता है।

निर्गुण काव्य धारा को भी दो भागों में बाँटा गया है-

      1. संत काव्य धारा और 2. सूफी काव्य धारा

निर्गुण भक्तिकाव्य धारा:

      ज्ञानाश्रयी/संतकाव्य धारा- जिन भक्त कवियों ने ज्ञान को ईश्वर प्राप्ति का एक मात्र माध्यम मानकर काव्य रचना की उनके द्वारा रचित काव्य को शुक्ल जी ने ज्ञानाश्रयी काव्य धारा तथा डॉ. रामकुमार वर्मा ने संत काव्य धारा के नाम से संबोधित किया है।

संत काव्याधरा के प्रवर्तक-

* आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, एवं रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार- ‘कबीर’ हैं।

* डॉ. गंपतिचंद्र एवं डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार- ‘नामदेव’ हैं।


संत काव्यधारा की विशेषताएँ निम्नलिखित है-

      इस काल में एकेश्वरवाद का समर्थन, रहस्यवादिता, प्रतीकों का भरपूर प्रयोग की प्रधानता थी। इस काव्यधारा में योग साधना द्वारा शरीर एवं मन की शुद्धि पर बल दिया गया। गुरु को ईश्वर की तुलना में उच्च स्थान, हिंदू-मुस्लिम एकता का समर्थन, जातीप्रथा एवं वर्ग व्यवस्था का विरोध, अवतारवाद का खंडन, शास्त्रीय ज्ञान के स्थान पर अनुभूत ज्ञान को महत्व, ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या है, ईश्वर की सर्व व्यापकता, साधुक्करी भाषा का प्रयोग की प्रमुखता रही। इस काल के अधिकांश संतकवि दलित वर्ग से संबंधित और विवाहित थे। इस काल में उलटबासियों का प्रयोग हुआ तथा मुक्तक काव्य की रचना हुई। गृहस्तों के प्रति आदर का भाव तथा समाज सुधार की भावना प्रमुख थी। लोक हिताय काव्य की रचना हुई। विश्व बंधुत्व की भावना तथा मोहमाया से दूर रहने की सलाह भी दिया गया।

ज्ञानाश्रयी/ संत काव्यधारा में निम्नलिखित कवि –

      नामदेव, कबीर, रैदास, दादूदयाल, रज्जब, सुंदरदास, गुरुनानक, सिंगा, लालदास, बाबालाल आदि कवि हैं। संत काव्यधारा में भाषा साधुक्करी और रचनाएँ मुक्तक लिखी गई।

      संत रविदास (रैसाद): संत किसी देश या जाति में नहीं अपितु पूरे मानव समाज की अमूल्य संपत्ति होते है। भारतीय संस्कृति अंतर्विरोधों का समन्वय है। अनेक विशेषताओं से विभूषित कवि रैदास एक समाज सुधारक, दार्शनिक और भक्त कवि थे। मध्यकालीन भारत में संत रविदास इन्हीं अंतर्विरोधों का एक सशक्त उदाहरण हैं। मध्यकालीन संत कवियों में कबीर के बाद सबसे लोकप्रिय कवि रैदास थे। हिंदी साहित्य में रैदास का समय विवादास्पद है। “आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संभवतः आधारभूत सामग्री के अभाव में रैसाद के जन्म एवं निर्वाण का कोई संवत् तय नहीं करते हैं।”10

      डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार- “ये रामानंद के शिष्य और कबीर के समकालीन थे। अतः इनका आभिर्भाव कबीर के समय में ही मानना चाहिए, जो संवत 1445-1575 है।”11  

      संत रैदास का जन्म (1388-1518ई.), काशी में हुआ था। उनके जन्म से संबंधित एक दोहा रविदास संप्रदाय में प्रचलित है-

                  “चौदह सौ तैंतीस की, माघ सुदी पंदरास।

दुखियों के कल्याण हित, प्रगटे श्री रविदास।”

दूसरी ओर उनकी निधन के संबंध में एक अन्य दोहा प्रचलित है-

                  “पंद्रह सौ चउ रासी, भई चितौर मंह भीर।

                  जर जर देह कंचन भई, रवि रवि मिल्यौ शरीर”।।

      रैदास का जन्म काशी के पास ही हुआ। इसका उल्लेख उन्होंने स्वयं ‘आदि ग्रंथ’ में संकलित अपनी वाणियों से इस मत की पुष्टि की है-  

                  “नागर जना मेरी जाति बिखियत चमार।

            मेरी जाती कुटबांढला ढोर ढोवंता, नितहि बनारैसी आस-पासा”12

दूसरी वाणी-        “जा के कुटुंब के ढेढ़ सभ ढोर

                  ढोवंत फिरही अजहु बनारसी आसपास ।।”13

      इनके गुरु- रामानंद थे। वे काशी के महान संत थे। रविदास उनके प्रमुख शिष्यों में से एक थे। रविदास ने उनसे ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया था। रविदास बचपन से ही बहुत व्यवहारिक और दयालु स्वभाव के थे। मधुर व्यवहार के कारण लोग उनसे प्रसन्न रहते थे। वे हमेशा साधू-संतों के साथ रहते थे। संतों के सत्संग से ही उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया था। रविदास के जन्म संबंधी विवादों के साथ उनके गुरु के संबंध में भी विवाद है। नाभादास कृत ‘भक्तमाल’ के अनुसार रामानंद के बारह शिष्यों में रविदास का नाम भी आता है-

                  “अनंतानंद, कबीर, सूखा, सुरसुरा, पद्मावति, नरहरि।

                  पीपा, भवानंद, रैसाद, धना, सेन, सुरसुरी की घरहरी।।”14

अनंतदास ने भी ‘भक्त रत्नावली’ में उल्लेख किया है-

                  “रामानंद को शिष्य कबीर, जीने चिन्है भगवंत।

                  और एक रैसाद चमरा, जन नारद लीनो औतारा।।”15


रविदास की वाणी के द्वारा यह स्पष्ट होता है कि रविदास के गुरु रामानंद थे-

                  “रामानंद मोहि गुरु मिल्यों, पाया ब्रह्म विसास।

                  रामनाम अमी रस पियौ, रविदास हि भयो खलास।।”

      इस मत से डॉ. मेनी, डॉ. बेणी प्रसाद शर्मा, डॉ. काशीनाथ उपाध्य, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी भी सहमत हैं।

      इनके पिता का नाम संतोख दास तथा माता का नाम कलसां/कर्मा देवी था। उनके दादा का नाम कालूराम और दादी का नाम लखपति था। रविदास जी की पत्नी का नाम लोना देवी और पुत्र का नाम विजय दास था। रविदास ‘चकमा’ कुल के थे, जो जूते बनाने का काम करते थे। वे अपने कार्य को बहुत ही लगन और मेहनत के साथ करते थे। रविदास के पिता चमड़े का व्यापार करते थे। जूते भी बनाया करते थे। रविदास के जन्म के समय उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में मुगलों का शासन था। हर तरफ अत्याचार, गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार का माहौल था। उस समय मुस्लिम शासकों का यह प्रयास रहता था कि अधिक से अधिक हिंदुओं को मुस्लिम बनाया जाए। रविदास की ख्याति दिन पर दिन बढ़ रही थी, जिसके फलस्वरूप उनके लाखों भक्त थे। इनके भक्तों में हर जाति-धर्म के लोग शामिल थे। इनको भी एक सदना पीर मुस्लिम बनाने आया था। उसने सोचा यदि रविदास को मुस्लिम बना दिया जाए तो उनके साथ जुड़े लाखों भक्त भी मुस्लिम बन जायेंगे। किन्तु संत रविदास तो संत थे। उन्हें किसी भी जाति धर्म से मतलब नहीं था। वे मानवता के प्रेमी थे। उन्हें मानवता से मतलब था।

      संत रविदास दयालु और दानवीर थे। इनकी अपनी कोई मौलिक रचना उपलब्ध नहीं है। इनके चालीस पद गुरुग्रंथ साहब में संकलित हैं। संत रैदास निर्गुणोपासक थे। ये भिक्षा मांगकर नहीं अपितु परिश्रम करके अपना जीविकोपार्जन करते थे। रैदास स्पष्टवादी थे। यही उनकी व्यक्तित्व की बड़ी विशेषता थी। उन्होंने श्रम को ही ईश्वर का रूप माना और कहा-

                  “रविदास श्रम करि खाई ही, जब लग पार बसाय।

                  नेक कमाई जउ करई, कबहुं न निष्फल जाय।”16

      वे सच्चे भक्त कवि थे। संत रविदास ने समाज में फैली विभिन्न कुरीतियों को नकारा। वे सभी प्राणी में ईश्वर का वास मानते थे। डॉ. धर्मपाल मैनी ने लिखा है- “उन्होंने जातिगत कट्टरता एवं धार्मिक संप्रदाय में फंसी जनता को मानवता का पाठ पढ़ाया।”17  

      रैसाद का दर्शन सत्य पर आधारित है। वे दार्शनिक और चिंतकों की तरह किसी दर्शन विशेष के प्रतिपादक नहीं थे। भारतीय दर्शन व्यवहारिक दर्शन है। प्रोफ़ेसर मैक्समूलर ने भारतीय दर्शन के विषय में लिखा है- “भारत में दर्शन का अध्ययन मात्र ज्ञान प्राप्त करने से नहीं वरन् जीवन के चरम् उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है।”18 

रविदास जी को कोई पुस्तकीय ज्ञान नहीं था। उन्होंने अपने अनुभव और सहज ज्ञान को ही अपने दर्शन और अध्यात्म का आधार बनाया। कबीर की तरह उन्होंने भी ‘मसि कागद गह्यो नहीं’ उक्ति को चरितार्थ कर जीवन के व्यावहारिक ज्ञान को ही सर्वोपरि माना। रविदास का मानना था कि मनुष्य का चरित्र और आचार ही सबसे बड़ा होता है। अपने इसी मानतावादी दृष्टिकोण को उन्होंने अपने दर्शन का आधार बनाया और कहा-

                  “जाती पाती का नहीं अधिकारा, भजन किनै उतरै पारा।

                  वेद पुरान कहै दुहु बानि, भगति बसी है सारंगपाणि”19  

      रैदास का दर्शन ब्रह्म, जीव, जगत और माया संबंधी विचारों के आधार पर निरुपित किया जा सकता है। ब्रह्म से ही सभी जीव उत्पन्न होते हैं और उसी में एकाकार हो जाते हैं। रविदास ने राजा राम को गोविंद, हरि, वासुदेव, नारायण, कृष्ण, कृपानिधि, आदि विभिन्न नामों से संबोधित किया है। कवि ने राम और कृष्ण दोनों रूपों को अभिन्न माना है। उनका ब्रह्म-

            ‘सबमें हरि है, हरि में है सब, हरि अपनो जिन जाना’ है।

      तत्व आत्मा है, आत्मा अविनाशी तत्व है, जो शरीर रूपी पिंजरे में कैद रहती है और जब यह बंधन छूटता है तभी आत्मा अनेक रूपों में विस्तार पाती है-

                  “रविदास पाव इक सकल घट बाहर भीतर सोई।

                  सब दिसी देखंउ पीव-पीव दूय नाहि कोई।।”20

      भारत अनेक संतों और महात्माओं की भूमि है। संतों के उपदेश और उनके जीवन वृतांत हमारे सामने हैं। संत नामदेव जी ने सारी उम्र कपड़े रँगने और सीलने के काम से अपना तथा अपने परिवार का लालन-पालन किया। संत रविदास ने जीवन भर जूतियाँ सिलकर अपना निर्वाह किया, जबकि राजा ‘पीपा’ और मेवाड़ की ‘रानी’ मीराबाई उनके ही शिष्य थे। कहा जाता है कि चितौड़गढ़ के राणा सांगा की पत्नी ‘झाली’ रानी भी उनकी शिष्य रह चुकी थी। चितौड़गढ़ में संत रविदास जी की छतरी बनी हुई है। इसका कोई आधिकारिक प्रमाण नहीं मिलता है।


No comments:

Post a Comment