Thursday, September 28, 2023

मजदूरी और प्रेम

मजदूरी और प्रेम सरदार पूर्ण सिंह का एक प्रसिद्ध निबंध है जिसमें निरंतर कर्म करते रहने की प्रेरणा दी गई है। यह प्रेम प्रेरक निबंध है। इस निबंध में सर्वप्रथम लेखक ने हल चालने वाले किसान के जीवन को प्रस्तुत करते हुए उसे स्वभाव से साधु, त्यागी एवं तपस्वी बतलाया है। खेत उसकी यज्ञशाला है और वह अपने जीवन को तपाते हुए अपनी मेहनत के कणों को ही फसल के रूप में उगाता है। खेती ही उसके ईश्वरीय प्रेम का केन्द्र है। उसका सारा जीवन पत्ते-पत्ते, फूल एवं फल-फल में बिखरा हुआ है। खेती की हरियाली ही उसकी खुशी है। 

लेखक ने गडरिये के पवित्र जीवन का निरूपण करते हुए लिखा है कि किस तरह वह खुले आकाश में बैठा ऊन कातता रहता है और उनकी भेड़ें चरती रहती हैं। उसकी आँखों में प्रेम की लाली छाई रहती है और प्रकृति के स्वच्छ वातावरण में जीवन व्यतीत करता हुआ सदैव स्वस्थ रहता है। वह खुली प्रकृति में जीवन-यापन करता है। उसके बच्चे भी अत्यंत शुद्ध हृदय वाले हैं। लेखक ने ‘मजदूर की मजदूरी’ का उल्लेख करते हुए यह स्पष्ट किया है कि जो मजदूर कठिन परिश्रम करके सारे दिन काम करता है, उसे हम उसके परिश्रम के अनुकूल मजदूरी नहीं देते। यदि कोई अनाथ एवं विधवा स्त्री सारी रात बैठकर किसी कमीज को सीती है और सीते-सीते थक जाती है किंतु, पैसों के लोभ में सोती नहीं, अपितु उसे सी कर ही चैन की सांस लेती है, तो उसके इस अटूट परिश्रम की मजदूरी भला थोड़े पैसों से कैसे चुकाई जा सकती है? वास्तव में ऐसा परिश्रम प्रार्थना, संध्या या नमाज से कम नहीं है। मनुष्य के हाथ से बनी हुई वस्तुओं में निश्चय ही उसकी प्रमे मय पवित्र आत्मा निवास करती है। हाथ से जो परिश्रम किया जाता है, उसमें एक अद्भुत रस होता है, जीवन रहता है उसके हृदय का प्रेम रहता है, मन की पवित्रता रहती है, आभा एवं कान्ति रहती है। ‘मजदूरी और कला’ का निरूपण करते हुए लेखक ने मशीनों के प्रयोग की भर्त्सना की है और उन्हें मजदूरी की मजदूरी छीनने वाली बताया है। लेखक तो मशीनों के स्थान पर मजदूरी के हाथ से होने वाले काम को महत्व देता है, क्योंकि मशीने निकम्मा और अकर्मण्य बना देती है। हाथ से काम करने से मनुष्य सदैव परिश्रमी, उद्योग एवं पवित्र रहता है। 

मजदूरी और फकीरी का वर्णन करते हुए लेखक ने इन्हें मानव के विकास के लिए परमावश्यक बतालया है। बिना परिश्रमी के फकीरी व्यर्थ है और बुद्धि शिथिल पड़ जाती है। अतः किसी को भी भीख माँगना उचित नहीं, अपितु परिश्रम करके खाना चाहिए। ‘समाज का पालन करने वाली दूध की धारा’ का वर्णन करते हुए लेखक ने परिश्रम एवं हाथ से काम करने की प्रवृत्ति एक ऐसी पवित्र दूध की धारा बताया जो मानव के हृदय को पवित्र बनाती हुई इसे सच्चे ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। ‘पश्चिम सभ्यता के एक नये आदर्श’ का वर्णन करते हुए लेखक ने पाश्चात्य देशों में उस नये मोड़ की ओर संकेत किया है, जिसके फलस्वरूप पश्चिम में अब लोग मशीन की अपेक्षा मजदूरी को महत्व देने लगे हैं। मशीनों के कारण पजूंपति पनपा है और मजदूर दरिद्र हुआ है। अन्त में लेखक यही सलाह देता है कि जड़ मशीनों की पूजा छोड़कर सचेतन मजदूरों को गले लगाना चाहिए उन्हें महत्व देना चाहिए, क्योंकि इसी से मानव का कल्याण होगा और समाज समृद्ध होगा, खुशहाल होगा।

Wednesday, September 27, 2023

हिंदी गद्य के उद्भव और विकास

हिंदी गद्य के उद्भव और विकास

हिंदी साहित्य का आधुनिक काल भारत के इतिहास के बदलते हुए स्वरूप से प्रभावित था। स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीयता की भावना का प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा। भारत में औद्योगीकरण का प्रारंभ होने लगा था। आवागमन के साधनों का विकास हुआ। अंग्रेज़ी और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव बढ़ा और जीवन में बदलाव आने लगा। भावना के साथ-साथ विचारों को पर्याप्त प्रधानता मिली। पद्य के साथ-साथ गद्य का भी विकास हुआ और छापखाना के आते ही साहित्य के संसार में एक नयी क्रांति हुई।

      हिंदी गद्य के संबंध में आरंभ के विद्वान एकमत नहीं है। कुछ इसका आरंभ 10वीं शताब्दी मानते हैं तो कुछ 11वीं शताब्दी और कुछ 13वीं शताब्दी। राजस्थानी एवं ब्रज भाषा में हमें गद्य के प्राचीनतम प्रयोग मिलते हैं। राजस्थानी गद्य की समय सीमा 11वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तथा ब्रज गद्य की सीमा 14वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि 10वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी के मध्य ही हिंदी गद्य की शुरुआत हुई थी। खड़ी बोली के प्रथम दर्शन अकबर के दरबारी कवि गंग द्वारा रचित ‘चंद छंद बरनन’ की महिमा में मिलता है।

हिंदी गद्य साहित्य का विकास-

      शैली की दृष्टि से साहित्य के दो भेद हैं- गद्य और पद्य। गद्य वाक्यबद्ध, विचारात्मक रचना है और पद्य छंदबद्ध/लयबद्ध भावात्मक रचना है। गद्य में बौद्धिक चेष्टाएँ और चिंतनशील मनःस्थितियाँ अपेक्षाकृत सुगमता से व्यक्त की जा सकती हैं, जबकि पद्य में भावपूर्ण मनःस्थितियों की अभिव्यक्ति सहज होती है। पद्य में संवेदना और कल्पना की प्रमुखता होती है और गद्य में विवेक की। इसी कारण पद्य को हृदय की भाषा और गद्य को मस्तिष्क की भाषा कहते हैं।

      ‘गद्य’ शब्द का उद्भव ‘गद्’ धातु के साथ ‘यत्’ प्रत्यय जोड़ने से हुआ है। ‘गद्’ का अर्थ है- बोलना, बताना या कहना। विषय और परिस्थिति के अनुरूप शब्दों का सही स्थान निर्धारण तथा वाक्यों की उचित योजना ही गद्य की उत्तम कसौटी है। इसलिए गद्य में अनेक विधाओं का समावेश है।

      गद्य की प्रमुख निम्नलिखित विधाएँ हैं- निबंध, नाटक, कहानी, संस्मरण, एकांकी, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, यात्रावृत्त, जीवनी, डायरी, पत्र, भेंटवार्ता आदि। आरंभ में अनेक विधाओं  को कहानी, निबंध आदि के साथ ही सम्मिलित कर लिया जाता था। किन्तु 19वीं शताब्दी के चौथे दशक से इनका स्वतंत्र अस्तित्व परिलक्षित होने लगा।


राष्ट्रभाषा के रूप में मानक हिन्दी खड़ी बोली का ही परिनिष्ठित रूप है। खड़ी बोली गद्य की प्रामाणिक रचनाएँ सत्रहवीं शताब्दी से प्राप्त होती है। इसका प्रमाण जटमल कृत “गोरा बादल” की कथा है। प्रारंभिक गद्य खड़ी बोली ब्रजभाषा से प्रभावित है। ब्रजभाषा के प्रभाव से मुक्त खड़ी बोली गद्य का आरम्भ उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ। खड़ी बोली गद्य का एक रूप “दक्खिनी गद्य” का है। मुस्लिम शासकों के समय, विशेषकर मोहम्मद तुगलक के शासन काल में अनेक उत्तर के मुसलमान दक्षिण में जाकर बस गए थे। ये अपने साथ उत्तर की खड़ी बोली को दक्षिण ले गए। इससे वहाँ “दक्खिनी हिन्दी” का विकास हुआ। दक्खिनी खड़ी बोली गद्य का प्रामाणिक रूप 1580 ई. से प्राप्त होता है। लगभग अठारहवीं सदी के मध्य काल से लेकर बीसवीं सदी के मध्य काल तक (सन् 1785 से 1843 ई.)।

खड़ी बोली गद्य के प्रारंभिक स्वरूप के उन्नयन में चार लेखकों का योगदान महत्त्वपूर्ण है- 

पंडित लल्लू लाल (सन् 1763-1825 ई.)

* ये फोर्ट विलियम कॉलेज में भाखा मुंशी पद पर नियुक्त थे। इन्होंने ‘भागवत’ के ‘दशम स्कंध’ की कथा के आधार पर ‘प्रेमसागर’ की रचना की।

* ये आगरा के गुजराती ब्राहमण थे। इसकी भाषा पर ब्रज का प्रभाव था।

द्विवेदी जी के शब्दों में- “इस ब्रजरंजित खड़ी बोली में भी वह सहज प्रभाव नहीं है जो सदासुखलाल की भाषा में है।” शुक्ल जी के दृष्टि में इनकी भाषा “नित्य व्यवहार के अनुकूल नहीं है। ये ‘उर्दू’ भाषा को ‘यामिनी’ भाषा कहते थे और उससे दूर रहने की सलाह देते थे। ग्रियर्सन के अनुसार ‘प्रेमसागर’ की भाषा हिंदी गद्य की स्टैंडर्ड बनी।

‘लालचंद्रिका’ की भूमिका में लल्लूलाल ने अपने ग्रंथ की भाषा के तीन भेद बताएँ हैं- ब्रज, खड़ीबोली और रेख्ते की बोली।

पंडित सदल मिश्र (सन् 1767-1848 ई.)

      ये बिहार के रहनेवाले थे। लल्लूलाल की तरह ये भी भाखा मुंशी पद पर थे। इन्होंने  ‘नासिकेतोपाख्यान’ की रचना की। ‘नासिकेतोपाख्यान’ पर ब्रज और भोजपुरी का प्रभाव है। किन्तु यह सीधे संस्कृत होने के कारण हिंदी के प्रकृति के अनुरूप है। शुक्ल जी ने इनकी भाषा को साफ़ सुथरी और व्यवहारोपयोगी कहा है। इनकी भाषा में पूर्वीपन और पंडिताऊपन है। आधुनिक हिंदी गद्य का जो आभास ‘सदासुखलाल’ और ‘सदल मिश्र’ की भाषा में दिखाई देता है उसी का आगे विकास हुआ।    


मुंशी सदासुखलाल ‘नियाज’ (सन् 1746-1824 ई.)

      मुंशी सदासुखलाल ने ‘विष्णु पुराण’ का अंश लेकर उसे खड़ी बोली में प्रस्तुत किया। इनकी भाषा शैली में पंडिताऊपन और वाक्य रचना पर फारसी शैली का प्रभाव था। ये फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर के लेखक थे। ये उर्दू और फ़ारसी के अच्छे लेखक और कवि थे। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- “इनकी भाषा कुछ निखरी हुई और सुव्यवस्थित है, पर तत्कालीन प्रचलित पंडिताऊ प्रयोग भी इनमे मिल जाते हैं।” ‘सुखसागर’ के अतिरिक्त विष्णुपुराण के प्रसंगों के आधार पर मुंशी सदासुखलाल ने एक अपूर्ण ग्रंथ की भी रचना की थी। इनकी भाषा में ‘सहजता’ और ‘स्वाभाविकता’ है।

      मुंशी इंशा अल्ला खाँ (सन् 1735- 1818 ई.)

मुंशी इंशाअल्ला खाँ ने चटपटी हास्य प्रधान शैली में उदयभान चरित/ रानी केतकी की कहानी लिखी। कहानी लिखने का कारण स्पष्ट करते हुए मुंशी जी ने लिखा है- ‘एक दिन बैठे-बैठे यह ध्यान आया कि कोई ऐसी कहानी कहिए जिसमे हिंदवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो, बस जैसे भले लोग अच्छों से आपस में बोलते-चालते हैं, ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँव किसी की न हो यह नहीं होने का।”

राजा शिवप्रसाद सितारे-ए-हिन्द (1823- 1895 ई.)

      राजा शिवप्रसाद ‘सितारे’ हिंदी विभाग में निरीक्षक के पद पर थे। ये हिंदी के प्रबल पक्षधर थे। इसलिए इसे ये पाठ्यक्रम की भाषा बनाना चाहते थे। चूकी उस समय साहित्य के पाठ्यक्रम के लिए कोई भी पुस्तक नहीं थी इसलिये उन्होंने स्वयं कोर्स की पुस्तकें लिखी और उसे हिंदी पाठ्यक्रमों में स्थान दिलवाया। इन्हीं के प्रयत्नों से शिक्षा जगत में हिंदी कोर्स की भाषा बनी। इसके बाद उन्होंने बनारस से ‘बनारस अखबार’ निकाला। इसी अखबार के द्वारा राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। ये हिंदी में विशुद्ध लेख लिखते थे। इन्होंने हिंदी कोर्स की पुस्तकों के लिए पंडित श्रीलाल और पंडित बंशीधर को भी इस कार्य के लिए प्रेरित किया। इसके अतिरिक्त इन्होंने ‘वीरसिंह का वृतांत’ आलसियों का कोड़ा जैसी रचनाओं का सृजन किया। इनकी गद्य भाषा प्रभावशाली और सरल थी। इसका उदहारण “राजा भोज का सपना” में इस प्रकार है- “वह कौन सा मनुष्य है जिसने महाप्रतापी राजा भोज का नाम न सुना हो। उनकी महिमा और कीर्ति तो सारे जगत में व्याप्त रही है। बड़े-बड़े महिपाल उनका नाम सुनते ही काँप उठते और बड़े-बड़े भूपति उसके पाँव पर अपना सिर नवाते।”  राजा जी उर्दू के पक्षपाती थे। उन्होंने 1864 ई. में “इतिहास तिमिर नाशक” ग्रंथ लिखा।

राजा लक्षमणसिंह (1887-1956 ई.)

      राजा लक्षमणसिंह आगरा के निवासी थे। इन्होंने हिंदी और उर्दू को दो भिन्न-भिन्न भाषाओँ के रूप में स्वीकार किया था। ये हिंदी उर्दू शब्दावली प्रधान गद्य भाषा का प्रयोग करते थे। राजा लक्षमणसिंह ने कालिदास के मेघदूतम, अभिज्ञान शाकुन्तलम् और रघुवंश का हिंदी अनुवाद किया। इन्होंने हिंदी गद्य विकास के लिए 1841 ई. में ‘प्रजा हितैसी’ पत्र भी संपादित और प्रकाशित किया। इनकी गद्य भाषा उत्कृष्ट थी। उदाहरण के लिए ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ का अनुदित गद्य है- “अनसूया (हौले प्रियबंदा से) सखी मैं तो इसी सोच विचार में हूँ। अब इससे कुछ पूछूँगी। (प्रकट) महात्मा तुम्हारे मधुर वचनों के विश्वास में आकार मेरा जी यह पूछने को चाहता है कि तुम किस राजवंश के भूषण हो और किस देश की पूजा को विरह में व्याकुल छोड़कर यहाँ पधारे हो? क्या कारण है? (हिंदी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचंद्र शुक्ल पृष्ठ-300)।

      राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द और राजा लक्षमण सिंह के अलावा और अनेक प्रतिभाशाली लेखकों ने हिंदी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अनेक गद्य लेखकों ने अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किए और पाठ्य पुस्तकें लिखी। उनमे श्री मथुराप्रसाद मिश्र, श्री ब्रजवासी दास, श्री रामप्रसाद त्रिपाठी, श्री शिवशंकर, श्री बिहारीलाल चौबे, श्री काशीनाथ खत्री, श्री रामप्रसाद दूबे आदि प्रमुख थे। इसी समय स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ जैसे ग्रंथ की हिंदी गद्य में रचना कर हिन्दू धर्म की कुरीतियों को समाप्त किया। बाबू नवीन  चंद्रराय ने 1863-1880 ई. के मध्य हिंदी के विभन्न विषयों की पुस्तकें लिखी और लिखवाई। इसी तरह श्रद्धानंद फुल्लौरी ने सत्यमृत प्रवाह, आत्म चिकत्सा, तत्वदीपक, धर्मरक्षा, उपदेश संग्रह, आदि पुस्तकें लिखकर हिंदी गद्य के विकास में नयी दिशा प्रदान की।                

      इन लेखकों के कुछ समय पहले रामप्रसाद निरंजनी ने ‘भाषा योगवशिष्ठ’ में तथा मध्यप्रदेश के पं. दौलतराय साधु थे। उनहोंने अपनी रचनाओं में खड़ी बोली गद्य का प्रयोग किया था। इन्हीं दिनों ईसाई मिशनरी ने भी बाइवल का हिन्दी खड़ी बोली गद्य में अनुवाद कराकर हिन्दी गद्य के विकास में अपना योगदान दिया। किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण तक हिन्दी गद्य का स्वरूप पूर्णतः परियोजित नहीं हो पाया था। उन्नीसवीं शताब्दी का द्वितीय एवं तृतीय चरण भारतीय सामाजिक एवं राष्ट्रीयता के जागरण का काल था। इस नवीन चेतना का अभ्युदय बंगाल से हुआ। यहीं से समाचार पत्रों के प्रकाशन का प्रारंभ हुआ। यह प्रदेश ब्रजभाषा से दूर था इसलिए नवीन चेतना को अभिव्यक्त करने का भार खड़ी बोली पद्य को वहन करना पड़ा। नवीन चेतना के इस जागरण काल में अनेक संस्थाओं का योगदान था। इनमें प्रमुख थीं- ब्रह्मसमाज, रामकृष्ण मिशन, प्रार्थना समाज, आर्यसमाज, थियोसाफिकल सोसायटी इत्यादि। इन संस्थाओं में विशेषकर आर्यसमाज ने अपने विचारों के प्रचार-प्रसार का माध्यम हिन्दी गद्य को बनाया।


हिंदी गद्य के विकास को सोपानों में विभक्त किया गया है-

भारतेंदु पूर्व युग (1800-1850 ई.)

भारतेंदु युग 1850-1900 ई.

द्विवेदी युग (1900-1920 ई.)

शुक्ल युग (1920-1936 ई.)

अद्यतन (1936 ई. से आजतक

भारतेन्दु पूर्व युग (1800 -1850 ई.)

      हिंदी में गद्य का विकास 19वीं शताब्दी के आसपास से माना जाता है विकास के इस काल में कलकाता फोर्ट विलियम कॉलेज की महत्वपूर्ण भूमिका रही इस कॉलेज के दो विद्वान लल्लूलाल तथा सदल मिश्र ने गिलक्रिस्ट के निर्देशन में प्रेमसागर तथा नासिकेतोपाख्यान नामक दो पुस्तके तैयार की। इसी समय सदासुख लाल ने सुखसागर तथा मुंशी इंशाअल्लाह ने रानी केतकी की कहाणी की रचना की। इन सभी ग्रंथों की भाषा में उस समय के प्रयोग में आने वाली खड़ी बोली को स्थान मिला। आधुनिक खड़ी बोली गद्य के विकास में विभिन्न धर्मों की पुस्तकों का खूब सहयोग रहा जिसमे ईसाई धर्म का भी सहयोग था। बंगाल के राजा राममोहन राय ने 1815 ई. में वेदांतसूत्र का हिंदी अनुवाद कर प्रकाशित करवाया इसके बाद उन्होंने 1829 ई. में बंगदूत नाम का पत्र हिंदी में निकाला। इसके पहले 1826 ई. में कानपुर के पंडित जुगलकिशोर हिंदी पहला समाचार पत्र उदंतमार्तंड कलकाता से निकाला। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखा।  

भारतेन्दु युग (1850 -1900 ई.)

      भारतेन्दु जी के पूर्व हिन्दी गद्य में दो शैलियाँ प्रचलित थीं। प्रथम राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की 1823 से 1895 गद्य शैली थी। वे हिन्दी को नफीस बनाकर उसे उर्दू जैसा रूप प्रदान करने के पक्षधर थे। दूसरी शैली के प्रवर्तक राजा लक्ष्मणसिंह थे जो हिंदी को अधिकाधिक संस्कृतनिष्ठ करने के पक्षधर थे। भारतेंदु ने इन दोनों के बीच का मार्ग ग्रहण कर उसे हिंदी भाषा प्रदेशों की जनता के मनोनुकूल बनाया। लोक प्रचलित शब्दावली के प्रयोग के कारण भारतेन्दु जी का गद्य व्यावहारिक, सजीव, और प्रवाहपूर्ण है। बालकृष्ण भट्ट, पं. प्रताप नारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, बदरी नारायण चौधरी “प्रेमधन”, ठाकुर जगमोहन सिंह, राधाकृष्ण दास एवं किशोरी लाल गोस्वामी भारतेंदु जी के सहयोगी एवं समकालीन लेखक थे।

पं. बालकृष्ण भट्ट इलाहाबाद से “हिन्दी प्रदीप” नामक मासिक पत्र निकालते थे। उनकी शैली विनोदपूर्ण और चुटीली थी तथा इसमें व्यंग्य में सरसता के साथ मार्मिकता भी है। उन्होंने अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत तथा लोक भाषा के शब्द लिए। उनके निबंधों के विषय में विविधता थी। प्रतापनारायण मिश्र ने “ब्राम्हण” पत्रिका के माध्यम से हिन्दी गद्य साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास किया। उन्होंने समाज सुधार एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान की दृष्टि से निबंध लिखे। चुलबुलापन, हास-परिहास, आत्मीयता और सहजता उनकी भाषा शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं। बदरी नारायण चौधरी “प्रेंमधन” “आनंद कादम्बिनी” पत्रिका का संपादन करते थे। उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ तथा शैली काव्यात्मक है। श्री राधाचरण गोस्वामी, ठाकुर जगमोहन सिंह ने सामयिक समस्याओं पर निबंध लिखे।

द्विवेदी युग (1900-1920 ई.)

      भारतेन्दु युग में हिंदी गद्य का स्वरूप काफी हद तक निखरा किंतु अभी भी उसमें परिष्कार परिमार्जन की आवश्यकता थी। यह कार्य द्विवेदी युग में पूरा हुआ। इस काल का नामकरण पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर किया गया। द्विवेदी जी ने “सरस्वती” के माध्यम से व्याकरणनिष्ठ, स्पष्ट एवं विचारपूर्ण गद्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। उन्होंने तत्कालीन भाषा का परिमार्जन कर उसे व्याकरण-सम्मत रूप प्रदान किया और साहित्यकारों को विविध विषयों पर लेखन के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया।

द्विवेदी युग के प्रमुख गद्यकारों में श्री माधव मिश्र, गोविंद नारायण मिश्र, ‘पद्मसिंह शर्मा, सरदारपूर्ण सिंह, बाबू श्यामसुंदर दास, मिश्र बंधु, बाबा भगवानदीन, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि हैं। इस काल में अनेक गंभीर निबंध, विवेचनापूर्ण आलोचनाएँ, कहानियाँ, उपन्यास तथा नाटक लिखे गये और इस प्रकार गद्य साहित्य के विविध रूपों का विकास हुआ।

      हिन्दी निबंध और आलोचना के क्षेत्र में बाबू श्यामसुंदर दास का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने “नागरी प्रचारिणी” सभा की स्थापना की तथा साहित्यिक, सांस्कृतिक भाषा एवं वैज्ञानिक विषयों पर निबंध लिखे। चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी ने अपनी पांडित्यपूर्ण व्यंग्य प्रधान शैली में निबंध और कहानियाँ लिखकर हिन्दी गद्य साहित्य को समृद्ध किया। सरस्वती के अतिरिक्त “प्रभा”, “मर्यादा”, “माधुरी”, “इन्दु”, “सुदर्शन”, “समालोचक”, आदि अन्य पत्रिकाओं में भी गद्य साहित्य के प्रचार एवं प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस युग के उत्तरार्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बाबू गुलाबराय के आविर्भाव से हिंदी गद्य की विकासधारा को एक नई दिशा मिली।


शुक्ल युग (1920 – 1936 ई०)

      द्विवेदी युग नैतिक मूल्यों के आग्रह का युग था। जबकि इस युग में द्विवेदी युग की प्रतिक्रिया स्वरूप साहित्य में भाव-तरलता, कल्पना-प्रधानता और स्वच्छंद चेतना आदि भावनाओं का समावेश हुआ। परिणाम यह हुआ कि इस युग में रचित गद्य साहित्य अधिक कलात्मक, लाक्षणिक, कवित्वपूर्ण और अंतर्मुखी हो गया। इस युग के प्रमुख गद्यकारों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू गुलाबराय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, रामकृष्ण दास, वियोगी हरि, डॉ. रघुवीर सिंह, शिवपूजन सहाय, वर्मा, पंत, निराला, नंददुलारे बाजपेयी, बेचन शर्मा ‘उग्र’ के नाम मुख्य हैं।

      आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने दो प्रकार के निबंध लिखे – ‘साहित्यिक’ एवं ‘मनोविकार’ संबंधी। उनके साहित्यिक निबंध भी दो वर्ग के हैं – ‘सैद्धांतिक’ तथा ‘व्यावहारिक’ समीक्षा से संबंधित। शुक्ल जी को युगांतकारी निबंधकार कहा जाता है। इसका श्रेय उनके मनोविकार संबंधी निबंधों को जाता है। गुलाबराय जी के कुछ निबंध साहित्यिक विषयों पर तथा कुछ सामान्य विषयों पर लिखे गए हैं। बख्शी जी के निबंध विचारात्मक, समीक्षात्मक तथा विवरणात्मक हैं।

अद्यतन युग (1936 से आजतक )

       इस काल में गद्य का चहुंमुखी विकास हुआ इस युग में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर लेखकों ने यथार्थवादी जीवन दर्शन को महत्व देना आरंभ किया। इस युग में साहित्यकारों की दो पीढ़ियाँ परिलक्षित की जा सकती हैं।

      प्रथम पीढ़ी उन साहित्यकारों की है जो स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से लिखते आ रहे थे। इस पीढ़ी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, शांतिप्रिय द्विवेदी, रामधारी सिंह दिनकर, यशपाल, उपेन्द्रनाथ अश्क, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, जैनेंद्र, अज्ञेय, रामवृक्ष बेनीपुरी, वासुदेव शरण अग्रवाल तथा भगवत शरण उपाध्याय आदि प्रमुख हैं।

      दूसरी पीढ़ी उन लेखकों की है जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद साहित्य सृजन में प्रवृत्त हुए हैं। इनमें श्री विद्या निवास मिश्र, हरिशंकर परसाई, कुबेरनाथ राय, फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, शिवप्रसाद सिंह के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इस युग में हिन्दी गद्य साहित्य में नवीन कलात्मक गद्य विधाओं का विकास हुआ तथा उसे राष्ट्रीय गरिमा प्राप्त हुई। आज हिन्दी की यह स्थिति है कि उसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित मान्यता मिलने लगी है।


निष्कर्ष- हिंदी गद्य के विकास में भारतेंदु हरिश्चंद्र का विशेष योगदान है लेकिन भारतेंदु युग के पहले से ही हिंदी गद्य का आरंभ हो चूका था। आधुनिक काल हिंदी गद्य का सर्वांगीण विकास का काल है। इस युग में गद्य के सभी विधाओं का उद्भव हुआ। जिसके परिणाम स्वरुप हिंदी भाषा आज विश्व की भाषाओं में गिनी जाती है।



सरस्वती पत्रिका

 पत्रिका के संपादक/प्रकाशक – चिंतामणि घोष ने आरंभ करवाया।

सरस्वती पत्रिका की स्थापना वर्ष – 1900 ई.

सरस्वती पत्रिका के संपादक (मंडल)

      1. जनवरी 1900 ई से दिसंबर 1900 ई. तक

      सरस्वती पत्रिका के संपादक मंडल में 5 संपादक थे-

            जगन्नाथ दास रत्नाकर

            किशोरीलाल गोस्वामी 

            श्यामसुन्दर दास

            राधाकृष्ण दास

            कार्तिक प्रसाद खत्री

      2. जनवरी 1901 ई. से दिसंबर 1902 ई. तक श्यामसुंदर दास इन्होंने बिना             पारिश्रमिक लिए कार्य किया।

      3. जनवरी 1903 ई. से दिसंबर 1920 तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी रहे।          साहित्यकारों के अनुसार यह पत्रिका का स्वर्णिम काल माना जाता है। आचार्य       महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका के जरिए खड़ी बोली को नई ऊचाइयां            मिली।

      4. 1921 ई. से 1925 ई. तक पदुमलाल पुन्नालाल वक्शी रहे

      5. 1926 ई. से 1927 ई. तक देवीदत्त शुक्ल रहे

      6. नवंबर 1927 ई. से जुलाई 1928 ई. तक पदुमलाल पुन्नालाल वक्शी रहे

      7. जुलाई 1928 ई. से 1948 ई. तक देवीदत्त शुक्ल रहे


नोट: जुलाई 1928 ई. दिसंबर 1928 ई. तक आचार्य रामचंद्र शुक्ल संपादन           करते रहे।

      8. 1946 ई. में उमेशचन्द्र मिश्र को संपादक बनाया गया।1946 ई. में ही अचानक        उमेशचन्द्र मिश्र का निधन हो गया। अतः 1946 ई. से 1955 ई. तक पदुमलाल    पुन्नालाल वक्शी फिर से संपादक रहे।

      9. 1955 ई. से 1960 ई. तक देवीदयाल चतुर्वेदी रहे।

      10. 1960 ई. से 1980 ई. तक नारायण चतुर्वेदी रहे। 1980 ई. में सरस्वती पत्रिका        बंद हो गई। ऑक्टूबर 2020 ई. से इसे पुनः आरंभ किया। इसके वर्तमान               संपादक देवेंद्र शुक्ल और सहायक संपादक अनुपम परिहार है।

      11. वर्तमान में ‘सरस्वती’ पत्रिका त्रैमासिक पत्रिका है।

सरस्वती पत्रिका को किसने क्या कहा:

      आचार्य शुक्ल जी ने- “सरस्वती पत्रिका को ‘प्रारंभिक काल का विश्वकोश’ कहा है।”

      गुलाबराय के अनुसार -“मेरे बाल्यकाल की अतिरिक्त ज्ञान की एक मात्र साधिका है।”

      रामविलास शर्मा ने – हिंदी का जातीय पत्रिका और आदर्श पत्रिका कहा है।”

सरस्वती पत्रिका के संबंध में आलोचकों के कथन:

      सुनित्रनंदन पन्त के अनुसार- “सरस्वती निःसंदेह तब की हिंदी की सर्वश्रेष्ठ और उच्चकोटि की मासिक पत्रिका है।”

      मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में – “उस समय सरस्वती ही एक ऐसी पत्रिका थी जिसे भारत के सभी प्रांतों में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।”

      डॉ बच्चन सिंह के शब्दों में – “सरस्वती के माध्यम से द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य के गद्य और पद्य की विभाजक रेखा को मिटा दिया।

भक्ति काल

“भक्ति द्रविड़ उपजी लाए रामानंद

प्रकट किया कबीर ने सप्तद्वीप नव खंड।।”1

      भक्ति आन्दोलन का उदय मध्यकालीन इतिहास की एक प्रमुख घटना है। इसका उदय अकस्मात् नहीं हुआ है बल्कि पहले से ही इसकी निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी, युगीन परिस्थितियों ने इसे गति प्रदान किया। भक्ति भावना का उद्भव सबसे पहले दक्षिणी भारत में हुआ था। इस संदर्भ में ‘श्रीमद् भागवत’ में निम्नलिखित श्लोक में मिलता है-

“द्रविडे चाहं उत्पन्न जाता कर्णाटके वृद्धिं गता।

क्वश्चित् क्वश्चित् महाराष्ट्रे गुर्जरत्रां जीर्णा गता।।2

      आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार- भक्ति आन्दोलन की समय सीमा- वि.सं. 1375 से 1700 (1318 से 1643 ई.) है।3

भक्ति काल/आन्दोलन को अनेक नामों से जाना जाता है:

* ग्रियर्सन ने इसे ‘हिंदी साहित्य का ‘स्वर्ण काल’ कहा है।

* श्यामसुंदर दास ने इसे ‘हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग’ कहा है।

* पृथ्वीनाथ कमल ‘कुलश्रेष्ठ’ ने इसे ‘कलात्मक उत्कर्ष का काल’ कहा है।

* हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसे ‘एक नई दुनिया’ कहा है।

      ‘भक्ति’ शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ- “मोनियर विलियम के अनुसार- ‘भक्ति’ शब्द संस्कृत की ‘भज्’ धातु में ‘क्तिन’ प्रत्यय के योग से बना हैं, जिसका अर्थ हैं- ‘ईश्वर के एश्वर्य में भाग लेना।’ ‘भक्ति’ शब्द का उल्लेख सबसे पहले ‘श्वेताश्वेतर’ उपनिषद् में मिलता है।

भक्ति की परिभाषाएँ-

1. “यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरो”।4

2. “सा परानुरक्तीश्वरे”5, अथार्त ईश्वर के प्रति परम अनुरक्ति ही भक्ति है।

3. आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।”6

4. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- “भगवान् के प्रति अनन्यगामी एकांत प्रेम का नाम भक्ति है।”

दक्षिण भारत में भक्त कवियों की निम्नलिखित दो शाखाएँ थी- 1. आलवार और 2. नयनार

      1. आलवार- ‘आलवार’ तमिल भाषा का शब्द है। इसका अर्थ ‘मग्न’ है। ईश्वर भक्ति में लीन भगवान् विष्णु एवं उनके अवतारों के उपासक आलवार कहलाते थे। इनका समय नवीं शताब्दी माना जाता है। आलवारों की संख्या 12 थी। इन बारह में एक अंदाल/अंडाल नाम की एक महिला भी थी। इनमे प्रथम ‘मोयंग आलवार’ (सोरोयोगिन्), अंतिम तिरुमगै आलवार (परकाल) थे। सबसे प्रसिद्ध इनमे नम्नालवर (शाठ्कोप) थे। ये शुद्र राम भक्त थे। आलवार भक्तों के पदों का संकलन ‘नालियार दिव्य प्रबंधम्’ है। इसमें पदों की संख्या 4000 है। इसके संकलन कर्ता- रंगनाथ हैं। ‘नालियार दिव्य प्रबंधम्’ को तमिल का ‘वेद’ कहा जाता है।

      2. नयनार- ‘नयनार’ तमिल भाषा का शब्द है। इसका अर्थ ‘समर्पित’ करना है। ये भगवान् शिव के उपासक थे। इनकी संख्या 63 थी। इनका समय 7-8 वीं शतब्दी माना जाता है। प्रथम ‘अनय नयनार’ और अंतिम ‘इसै नयनार’ थे। इनमे एक महिला ‘करईक्कल अमय्यर’ थी। इनके पदों का संग्रह ‘पेरिय पुराण’ में है। इसके संकलन कर्ता ‘शेक्किषार’ हैं। संकलन का समय 10 वीं शताब्दी है। भक्ति आन्दोलन को उत्तरी भारत में लाने का श्रेय रामानंद को है। इस संदर्भ में कबीर की यह उक्ति प्रसिद्ध है-

“भक्ति द्रविड़ उपजी लाए रामानंद

      प्रकट किया कबीर ने सप्तद्वीप नव खंड।।”

      भक्ति आंदोलन एक व्यापक सांस्कृतिक आन्दोलन है। यह कैसे और क्यों पैदा हुआ? इसको लेकर इतिहासकारों में कोई एक राय नहीं है-

* शुक्ल के अनुसार- यह मुस्लिम आक्रमणकारियों की देन है।

* डॉ. ताराचंद महोदय के अनुसार- यह अरब आक्रमणकारियों की देन है।



* डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार- यह पराजय एवं हताशा का परिणाम है।

* गुलाबराय के अनुसार- यह पराजित मनोवृति का परिणाम था।

* हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- यह भारत की सांस्कृतिक विकास परंपरा का परिणाम था।

* ग्रियर्सन, बेबर, कीथ के अनुसार- यह ईसाइयत की देन थी।

भक्ति आंदोलन के प्रमुख नेतृत्व कर्ता:

उत्तरी भारत में – रामानंद

बंगाल में – चैतन्य महाप्रभु

असम में – शंकरदेव

महाराष्ट्र में – बारकारी संप्रदाय (नामदेव, पुंडरिक, ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम)

उड़ीसा में – पंचसखा (बलरामदास, अनंतदास, यशोवंतदास, जगन्नाथ दास, अच्च्युतानंद दास)

भक्तिआन्दोलन की पृष्ठभूमि:

      भक्तिकाल की राजनीतिक परिस्थितियाँ: “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने के कारण हिन्दू जनता के ह्रदय में कोई गर्व और उत्साह नहीं बचा था। उनके सामने ही उनके देव-मंदिर को गिराया जा रहा था, देव मूर्तियाँ तोड़ी जाती थी। पूज्य-पुरुषों का अपमान होता था। वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी स्थिति में वे अपनी वीरता के गीत न तो गा सकते थे और न ही बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे।”7 दिल्ली सल्तनत का इतिहास तुर्क-आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी के द्वारा भारत पर आक्रमण से शुरू होता है। राजपूत राजाओं की परस्पर फूट तथा शत्रुता के कारण पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गौरी के हाथों तथा जयचंद कुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों मारा गया। इसके पश्चात दिल्ली सल्तनत की स्थापन हुई। तेरहवीं सदी के अंत में दिल्ली सल्तनत का विस्तार मालवा से लेकर गुजरात, दक्कन और दक्षिण भारत तक हो गया। साम्राज्य के विस्तार एवं केन्द्रीकरण की नीति की शुरुआत अलाउद्दीन खिलजी के द्वारा हुई और मुहम्मद बिन तुगलक के समय तक अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी।

भक्तिकाल की धार्मिक परिस्थितियाँ: उत्तर भारत में तुर्कों का आगमन तथा दिल्ली सल्तनत की स्थापना, विकास और खलबली दोनों साथ लेकर आया था। हिंदू मुस्लिम वैमनस्य बाह्य आडंबरों का बोलबाला, हिंदू धर्म में विभिन्न मत-मतांतरों का प्रचलन। इसके बावजूद पारस्परिक सामंजस्य और मेल मिलाप की धीमी प्रक्रिया भी आरंभ हो गई थी। भक्तिकाल के कवियों की मानवतावादी दृष्टि ने इस भेदभाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

      भक्तिकाल की सामाजिक परिस्थितियाँ: मध्य एवं निम्न वर्गों की दयनीय स्थिति, जाती प्रथा एवं वर्ण व्यवस्था का बोलबाला था। आचार-विचार की पवित्रता का स्थान स्वार्थ और पाखंड ने ले लिया था। शूद्रों के साथ अछूत का व्यवहार चलता रहा। स्वंय मुस्लिम समाज भी इस नस्ल और जातिगत वर्गों में विभाजित था। ग्रामीण समाज एवं किसानों की स्थिति काफी दयनीय थी। जमींदारों के द्वारा किसानों का शोषण होता था। अकाल और भूख की पीड़ा का मार्मिक चित्रण तुलसीदास ने किया है-

                  ‘कलि बारहिं बार दूकान परै।

                  बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै’ या

                  ‘नहीं दरिद्र सम दुःख जग माही।’8  

      तुलसी का काव्य तत्कालीन ग्रामीण समाज की दशा का दस्तावेज है-

                  ‘खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि।

                  बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।’9

      भक्तिकाल की आर्थिक परिस्थितियाँ: कृषि एवं पशु पालन, अर्थ व्यवस्था का मूल आधार था। निम्न एवं मध्य वर्गों की स्थिति दयनीय थी। आर्थिक स्थिति को बेहतरीन बनाने और बढ़ावा देने के लिए इसी दौर में दिल्ली, आगरा, बनारस, इलाहबाद, पटना आदि शहरों का विकास हुआ। यही शहर आगे चलकर व्यापार के केंद्र बने। इसके साथ ही बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण यात्रियों के सराय आदि की व्यवस्था किया गया। इस काल में शिल्पी वर्ग का उदय हुआ। आर्थिक स्थिति बेहतर होने से उनमे सामाजिक मर्यादा की स्वीकृति की भावना पैदा हुई। 

भक्तिकाल की सांस्कृतिक परिस्थितियाँ: बाल-विवाह की प्रथा, हिंदू मुस्लिम संस्कृतियों में समन्वय होने लगा था। इस समय हिन्दू समाज शास्त्रीय विधान और पौराणिक विश्वासों को साथ लेकर जी रहा था। भक्ति का प्रभाव मध्यकाल की सभी सांस्कृतिक गतिविधियों में दिखाई दे रहा था। विभिन्न कलाओं में राधाकृष्ण की लीलाएँ और रामलीला भी लोकप्रिय हो रही थी। यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार हिंदी साहित्य का भक्तिकाव्य है, वैसे ही अन्य कलाओं के इतिहास का भी भक्तिकाल होगा।

भक्तिकाव्य की काव्य धाराएँ: भक्तिकाव्य धारा को मूलतः दो भागों में बाँटा गया है –

      1. निर्गुण भक्तिकाव्य धारा 

      2. सगुण भक्तिकाव्य धारा

निर्गुण भक्तिकाव्य धारा-

      जिन कवियों ने ईश्वर को निर्गुण, निराकार, अजन्मा, अनंत, अनादी, अगोचर आदि मानकर उनकी उपासना में काव्य रचना की उनके द्वारा रचित काव्य निर्गुण भक्ति काव्य धारा के नाम से जाना जाता है।

निर्गुण काव्य धारा को भी दो भागों में बाँटा गया है-

      1. संत काव्य धारा और 2. सूफी काव्य धारा

निर्गुण भक्तिकाव्य धारा:

      ज्ञानाश्रयी/संतकाव्य धारा- जिन भक्त कवियों ने ज्ञान को ईश्वर प्राप्ति का एक मात्र माध्यम मानकर काव्य रचना की उनके द्वारा रचित काव्य को शुक्ल जी ने ज्ञानाश्रयी काव्य धारा तथा डॉ. रामकुमार वर्मा ने संत काव्य धारा के नाम से संबोधित किया है।

संत काव्याधरा के प्रवर्तक-

* आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, एवं रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार- ‘कबीर’ हैं।

* डॉ. गंपतिचंद्र एवं डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार- ‘नामदेव’ हैं।


संत काव्यधारा की विशेषताएँ निम्नलिखित है-

      इस काल में एकेश्वरवाद का समर्थन, रहस्यवादिता, प्रतीकों का भरपूर प्रयोग की प्रधानता थी। इस काव्यधारा में योग साधना द्वारा शरीर एवं मन की शुद्धि पर बल दिया गया। गुरु को ईश्वर की तुलना में उच्च स्थान, हिंदू-मुस्लिम एकता का समर्थन, जातीप्रथा एवं वर्ग व्यवस्था का विरोध, अवतारवाद का खंडन, शास्त्रीय ज्ञान के स्थान पर अनुभूत ज्ञान को महत्व, ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या है, ईश्वर की सर्व व्यापकता, साधुक्करी भाषा का प्रयोग की प्रमुखता रही। इस काल के अधिकांश संतकवि दलित वर्ग से संबंधित और विवाहित थे। इस काल में उलटबासियों का प्रयोग हुआ तथा मुक्तक काव्य की रचना हुई। गृहस्तों के प्रति आदर का भाव तथा समाज सुधार की भावना प्रमुख थी। लोक हिताय काव्य की रचना हुई। विश्व बंधुत्व की भावना तथा मोहमाया से दूर रहने की सलाह भी दिया गया।

ज्ञानाश्रयी/ संत काव्यधारा में निम्नलिखित कवि –

      नामदेव, कबीर, रैदास, दादूदयाल, रज्जब, सुंदरदास, गुरुनानक, सिंगा, लालदास, बाबालाल आदि कवि हैं। संत काव्यधारा में भाषा साधुक्करी और रचनाएँ मुक्तक लिखी गई।

      संत रविदास (रैसाद): संत किसी देश या जाति में नहीं अपितु पूरे मानव समाज की अमूल्य संपत्ति होते है। भारतीय संस्कृति अंतर्विरोधों का समन्वय है। अनेक विशेषताओं से विभूषित कवि रैदास एक समाज सुधारक, दार्शनिक और भक्त कवि थे। मध्यकालीन भारत में संत रविदास इन्हीं अंतर्विरोधों का एक सशक्त उदाहरण हैं। मध्यकालीन संत कवियों में कबीर के बाद सबसे लोकप्रिय कवि रैदास थे। हिंदी साहित्य में रैदास का समय विवादास्पद है। “आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संभवतः आधारभूत सामग्री के अभाव में रैसाद के जन्म एवं निर्वाण का कोई संवत् तय नहीं करते हैं।”10

      डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार- “ये रामानंद के शिष्य और कबीर के समकालीन थे। अतः इनका आभिर्भाव कबीर के समय में ही मानना चाहिए, जो संवत 1445-1575 है।”11  

      संत रैदास का जन्म (1388-1518ई.), काशी में हुआ था। उनके जन्म से संबंधित एक दोहा रविदास संप्रदाय में प्रचलित है-

                  “चौदह सौ तैंतीस की, माघ सुदी पंदरास।

दुखियों के कल्याण हित, प्रगटे श्री रविदास।”

दूसरी ओर उनकी निधन के संबंध में एक अन्य दोहा प्रचलित है-

                  “पंद्रह सौ चउ रासी, भई चितौर मंह भीर।

                  जर जर देह कंचन भई, रवि रवि मिल्यौ शरीर”।।

      रैदास का जन्म काशी के पास ही हुआ। इसका उल्लेख उन्होंने स्वयं ‘आदि ग्रंथ’ में संकलित अपनी वाणियों से इस मत की पुष्टि की है-  

                  “नागर जना मेरी जाति बिखियत चमार।

            मेरी जाती कुटबांढला ढोर ढोवंता, नितहि बनारैसी आस-पासा”12

दूसरी वाणी-        “जा के कुटुंब के ढेढ़ सभ ढोर

                  ढोवंत फिरही अजहु बनारसी आसपास ।।”13

      इनके गुरु- रामानंद थे। वे काशी के महान संत थे। रविदास उनके प्रमुख शिष्यों में से एक थे। रविदास ने उनसे ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया था। रविदास बचपन से ही बहुत व्यवहारिक और दयालु स्वभाव के थे। मधुर व्यवहार के कारण लोग उनसे प्रसन्न रहते थे। वे हमेशा साधू-संतों के साथ रहते थे। संतों के सत्संग से ही उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया था। रविदास के जन्म संबंधी विवादों के साथ उनके गुरु के संबंध में भी विवाद है। नाभादास कृत ‘भक्तमाल’ के अनुसार रामानंद के बारह शिष्यों में रविदास का नाम भी आता है-

                  “अनंतानंद, कबीर, सूखा, सुरसुरा, पद्मावति, नरहरि।

                  पीपा, भवानंद, रैसाद, धना, सेन, सुरसुरी की घरहरी।।”14

अनंतदास ने भी ‘भक्त रत्नावली’ में उल्लेख किया है-

                  “रामानंद को शिष्य कबीर, जीने चिन्है भगवंत।

                  और एक रैसाद चमरा, जन नारद लीनो औतारा।।”15


रविदास की वाणी के द्वारा यह स्पष्ट होता है कि रविदास के गुरु रामानंद थे-

                  “रामानंद मोहि गुरु मिल्यों, पाया ब्रह्म विसास।

                  रामनाम अमी रस पियौ, रविदास हि भयो खलास।।”

      इस मत से डॉ. मेनी, डॉ. बेणी प्रसाद शर्मा, डॉ. काशीनाथ उपाध्य, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी भी सहमत हैं।

      इनके पिता का नाम संतोख दास तथा माता का नाम कलसां/कर्मा देवी था। उनके दादा का नाम कालूराम और दादी का नाम लखपति था। रविदास जी की पत्नी का नाम लोना देवी और पुत्र का नाम विजय दास था। रविदास ‘चकमा’ कुल के थे, जो जूते बनाने का काम करते थे। वे अपने कार्य को बहुत ही लगन और मेहनत के साथ करते थे। रविदास के पिता चमड़े का व्यापार करते थे। जूते भी बनाया करते थे। रविदास के जन्म के समय उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में मुगलों का शासन था। हर तरफ अत्याचार, गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार का माहौल था। उस समय मुस्लिम शासकों का यह प्रयास रहता था कि अधिक से अधिक हिंदुओं को मुस्लिम बनाया जाए। रविदास की ख्याति दिन पर दिन बढ़ रही थी, जिसके फलस्वरूप उनके लाखों भक्त थे। इनके भक्तों में हर जाति-धर्म के लोग शामिल थे। इनको भी एक सदना पीर मुस्लिम बनाने आया था। उसने सोचा यदि रविदास को मुस्लिम बना दिया जाए तो उनके साथ जुड़े लाखों भक्त भी मुस्लिम बन जायेंगे। किन्तु संत रविदास तो संत थे। उन्हें किसी भी जाति धर्म से मतलब नहीं था। वे मानवता के प्रेमी थे। उन्हें मानवता से मतलब था।

      संत रविदास दयालु और दानवीर थे। इनकी अपनी कोई मौलिक रचना उपलब्ध नहीं है। इनके चालीस पद गुरुग्रंथ साहब में संकलित हैं। संत रैदास निर्गुणोपासक थे। ये भिक्षा मांगकर नहीं अपितु परिश्रम करके अपना जीविकोपार्जन करते थे। रैदास स्पष्टवादी थे। यही उनकी व्यक्तित्व की बड़ी विशेषता थी। उन्होंने श्रम को ही ईश्वर का रूप माना और कहा-

                  “रविदास श्रम करि खाई ही, जब लग पार बसाय।

                  नेक कमाई जउ करई, कबहुं न निष्फल जाय।”16

      वे सच्चे भक्त कवि थे। संत रविदास ने समाज में फैली विभिन्न कुरीतियों को नकारा। वे सभी प्राणी में ईश्वर का वास मानते थे। डॉ. धर्मपाल मैनी ने लिखा है- “उन्होंने जातिगत कट्टरता एवं धार्मिक संप्रदाय में फंसी जनता को मानवता का पाठ पढ़ाया।”17  

      रैसाद का दर्शन सत्य पर आधारित है। वे दार्शनिक और चिंतकों की तरह किसी दर्शन विशेष के प्रतिपादक नहीं थे। भारतीय दर्शन व्यवहारिक दर्शन है। प्रोफ़ेसर मैक्समूलर ने भारतीय दर्शन के विषय में लिखा है- “भारत में दर्शन का अध्ययन मात्र ज्ञान प्राप्त करने से नहीं वरन् जीवन के चरम् उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है।”18 

रविदास जी को कोई पुस्तकीय ज्ञान नहीं था। उन्होंने अपने अनुभव और सहज ज्ञान को ही अपने दर्शन और अध्यात्म का आधार बनाया। कबीर की तरह उन्होंने भी ‘मसि कागद गह्यो नहीं’ उक्ति को चरितार्थ कर जीवन के व्यावहारिक ज्ञान को ही सर्वोपरि माना। रविदास का मानना था कि मनुष्य का चरित्र और आचार ही सबसे बड़ा होता है। अपने इसी मानतावादी दृष्टिकोण को उन्होंने अपने दर्शन का आधार बनाया और कहा-

                  “जाती पाती का नहीं अधिकारा, भजन किनै उतरै पारा।

                  वेद पुरान कहै दुहु बानि, भगति बसी है सारंगपाणि”19  

      रैदास का दर्शन ब्रह्म, जीव, जगत और माया संबंधी विचारों के आधार पर निरुपित किया जा सकता है। ब्रह्म से ही सभी जीव उत्पन्न होते हैं और उसी में एकाकार हो जाते हैं। रविदास ने राजा राम को गोविंद, हरि, वासुदेव, नारायण, कृष्ण, कृपानिधि, आदि विभिन्न नामों से संबोधित किया है। कवि ने राम और कृष्ण दोनों रूपों को अभिन्न माना है। उनका ब्रह्म-

            ‘सबमें हरि है, हरि में है सब, हरि अपनो जिन जाना’ है।

      तत्व आत्मा है, आत्मा अविनाशी तत्व है, जो शरीर रूपी पिंजरे में कैद रहती है और जब यह बंधन छूटता है तभी आत्मा अनेक रूपों में विस्तार पाती है-

                  “रविदास पाव इक सकल घट बाहर भीतर सोई।

                  सब दिसी देखंउ पीव-पीव दूय नाहि कोई।।”20

      भारत अनेक संतों और महात्माओं की भूमि है। संतों के उपदेश और उनके जीवन वृतांत हमारे सामने हैं। संत नामदेव जी ने सारी उम्र कपड़े रँगने और सीलने के काम से अपना तथा अपने परिवार का लालन-पालन किया। संत रविदास ने जीवन भर जूतियाँ सिलकर अपना निर्वाह किया, जबकि राजा ‘पीपा’ और मेवाड़ की ‘रानी’ मीराबाई उनके ही शिष्य थे। कहा जाता है कि चितौड़गढ़ के राणा सांगा की पत्नी ‘झाली’ रानी भी उनकी शिष्य रह चुकी थी। चितौड़गढ़ में संत रविदास जी की छतरी बनी हुई है। इसका कोई आधिकारिक प्रमाण नहीं मिलता है।


कबीर

कबीर एक धर्मोपदेशक, समाज-सुधारक योगी और कवि के साथ-साथ महान भक्त भी थे।

‘कबीर’ फारसी का शब्द है। कबीर का अर्थ ‘महान’ˎहोता है।

  • कबीर का जन्म विक्रमी संवत् 1455 में काशी नामक स्थान पर हुआ था।
  • वि०स० को ई० में बदलने के लिए 57 से घटाने पर कबीर का जन्म 1398 ई० में हुआ था। (यह प्रमाणित है)
  • कबीर की एक रचना है “कबीर चरित्र बोध” (इसके रचनाकार अज्ञात है) इस रचना का प्रकाशन डॉ० श्यामसुंदर दास ने नागरी प्रचारिणी सभा-काशी से करवाया था। उसी ‘कबीर चरित्र बोध’ में एक दोहा मिलता है।

“संवत् चौदह सौ पचपन साल गये, चंद्रवार इक ठाठ भये।

 जेठ सुदी बरसायत को, पूर्णमासी प्रकट भये।।

  • कबीर नीरू और नीमा जुलाहा दम्पति के संतान थे। इन्होने ही कबीर का पालन-पोषण किया था।
  • डॉ रामकुमार वर्मा, डॉ गोविंद त्रिगुनायक, डॉ पीतांबर बडथ्वाल, डॉ सतनाम सिंह ने कबीर का जन्म स्थान ‘मगहर’ माना है।
  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ श्याम सुंदर दास, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, प्रभाकर माचवे एवं स्वयं कबीरदास जी ने भी अपना जन्म स्थान काशी माना है। जन्म से संबंधित कबीर का एक पद है-

“काशी में हम प्रकट भये रामानंद चेताये।”

  • सिक्ख धर्म के गुरुग्रंथ साहब में भी कबीरदास जी के वाणी को स्थान मिला है।

कबीर का जन्म काल विभिन्न विद्वानों के अनुसार:

  • ‘बिल’ ने इनका जन्मकाल 1490 ई माना है।
  • ‘फर्कुहर’ ने 1400-1518 ई माना है।
  • ‘मेकालिफ’ ने 1300-1420 माना है।
  • ‘बेसकत’ और ‘स्मिथ’ ने 1440 से 1580 माना है।
  • ‘हंटर’ ने 1300-1400 माना है।
  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ रामकुमार वर्मा, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और श्यामसुंदर दास इन चारों ने कबीरदास जी का जन्म 1398-1518 माना है। (सर्वमान्य है)

कबीर का निधन- 1518 ई० में हुआ था। भक्तमाल की टीका में एक पद मिलाता है। ‘भक्तमाल’ नाभादास की रचना है।


संवत् पंद्रह सौ पिचहत्तर कियो मगहर को गौण

 माघ सुदी एकादशी रत्यौ पौन में पौन।”

“जो काशी मरे मोख पावही रामहि कौन निहोरा”

  • यह पद ‘कबीर परचई’ में मिलता है, जिसकी रचना ‘अनंतदास’ ने किया था।
  • कबीरदास के गुरु ‘रामानंद’ थे। स्वयं कबीर ने माना है। (सर्वमान्य है)
  • मुस्लिम विद्वानों के अनुसार- इनके गुरु ‘शेख तकी’ हैं।
  • कबीर सिकंदर लोदी के समकालीन थे। उनपर सिकंदर लोदी के द्वारा किए गए अत्याचारों का वर्णन किया गया है। (1488-1517) के समकालीन लोदी ने उनपर अत्याचार किया था। इसका वर्णन स्वयं कबीर ने भी साखी के ‘राग गौड़’ के पद में किया है।
  • कबीर हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के निर्गुण काव्य धारा के ज्ञानश्रयी (संत काव्यधारा के) कवि थे।
  • कबीरदास जी की रचनाएँ: अधिकांश विद्वान् कबीर की एक ही रचना ‘बीजक’ को मानते हैं। बीजक के पदों का संकलन कबीर के शिष्य धर्मदास ने किया था।

डॉ नगेन्द्र के अनुसार- “कबीर के कुल 63 रचनाएँ माना है, जिसमे प्रकाशित रचनाओं की संख्या 43 मानी है। इनमे 43 में से मुख्य रचनाएँ है- ‘अनुराग सागर’, ‘विवेक सागर’, ‘मुहम्मद बोध’, ‘हंस मुक्तावली’, ‘ज्ञान सागर’, ‘ब्रहम निरूपण’, ‘रक्षाबोध की रमैनी’, ‘विचार माला’, ‘कबीर गोरख गोष्टी’। इनमे 20 रचनाएँ अप्रकाशित है।

कबीर की पत्नी का नाम लोई था इनकी दो संताने थी। कमाल और कमाली। कमाल उदण्डप प्रवृति का नास्तिक था। कबीर के शिष्यों का कथन था-

“बूड़ा वंश कबीर का उत्पन्न भयो कमाल।”

डॉ रामकुमार वर्मा ने इनकी दूसरी पत्नी का उल्लेख किया है, जिसका नाम रमजनिया था। इनके भी दो बच्चे थे। निहाल और निहाली। कमाली कृष्ण भक्त थी। (लेकिन इससे कोई भी विद्वान सहमत नही है)। कबीर पढ़े-लिखे थे या अनपढ़, स्वयं कबीर ने अपने आपको अनपढ़ कहा है। उन्होंने स्वयं कहा है-


“कागद मसि छुयो नहीं कलम गहि नहि हाथ।”

साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल, श्यामसुंदर दास, गुलाब राय, पीतांबरदत्त बडथ्वाल भी इन्हें अनपढ़ मानते हैं। (नागरी प्रचारिणी सभा- काशी) हजारी प्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी, गणपति चंद्र गुप्त, मिश्र बंधु, ग्रियर्सन, नामवर सिंह ने भी कबीर को अनपढ़ ही  माना है।

  • कबीर ने मांस भक्षण निषेध, वैष्णवी दया का भाव रखना रामानंद से ग्रहण किया।
  • हठयोग साधना प्रणाली का ग्रहण नाथ पंथियों से किया।
  • मायावाद और अद्वैतवाद कबीर ने शंकराचार्य से ग्रहण किया।
  • प्रेमसाधना का मार्ग उन्होंने सूफी कवियों से ग्रहण किया।
  • मूर्ति पूजा, तीर्थ स्थान का विरोध कबीर ने मुस्लिम सरियत (कानून) से ग्रहण किया।
  • ज्ञान की बातें और ज्ञान मार्ग, हिंदू धर्म शास्त्रों और कुछ शंकराचार्य से ग्रहण किया।
  • कबीर की रचना बीजक है। इसका संकलन धर्मदास ने किया। बीजक के तीन भाग हैं।

साखी- ‘साखी’ साक्षी शब्द का (तद्भव) बदला हुआ रूप है। जिसका अर्थ होता है ‘प्रत्यक्ष ज्ञान’ अथार्त जो ज्ञान सबको दिखाई दे। ‘साक्षी’ के 59 भाग हैं। पहला अंग ‘गुरुदेव को भंग’ है और अंतिम ‘अबिहड़ को अंग’ है।

शबद- इसके 23 भाग हैं। यह गेय पद है। इसमें उपदेशात्मक के स्थान पर भाव की प्रधानता होती है। इसमें योगसाधना और कीर्तन संबंधी बातें हैं। भाषा ब्रज /पुरबी बोली है।

रमैनी– इसके 47 भाग हैं। यह चौपाई छन्द में लिखी गई है। इसमें कबीर के दार्शनिक विचार हैं। आत्मा, परमात्मा, मोह, माया आदि क्या है?

कबीर एकेश्वरवादी थे। उनके पद में एकेश्वरवाद का समर्थन है।

उन्होंने कहा है-

“भाई रे दोई जगदीश्वर कहाँ ते आया, कहुं कौनें भरमाया।”


“पाणी ही ते हिम भया, हिम है गया विलाय।

 जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाए।”

 “हम तौ एक एक करी जाना। दोई कहै तिन्हीं को दोगज जिन नाहिंन पहिचाना।”

 कबीर ने मूर्ति पूजा का विरोध किया है। वे कहते हैं –

“पाहन पूजै हरि मिलै तो मैं पूजू पहार तातै ये चाकी भली पिस खाय संसार।”

कबीर ने अजान का विरोध किया है वे कहते हैं-

“काकड़ पाथर जोरी के मस्जिद लई चुनाय,

ता चढ़ी मुल्ला बांग दे का बहरा भय खुदाय।”

अद्वेतवाद- “जल में कुंभ-कुंभ में जल है, बाहिर भीतर पानी।

फुट कुंभ जल जलहि समाना, यह तथ कथ्यों गियानी।।’

कबीर में विरह की व्याकुलता थी। वे कहते हैं –

“आँखड़ियाँ झाई पड़ी, पंथ निहार निहारी। जिभड़ियाँ छाला पड़या नाम पुकारि पुकारि।।”

“लाली मेरी लाल की जित देखूँ तित लाल, लाली देखन मैं चली मैं भी हो गई लाल।।”

कबीर ने माया का विरोध किया है-

“माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पडंत।

कहै कबीर गुर ग्यान थै, एक आध उनरंत।।”

कबीर ने अहिंसा और पशु बलि का विरोध किया है। वे कहते हैं –

“दिन भर रोजा रखत हैं रात हनन है गाय।


यह तो खून वह बंदगी, कैसे सुखी खुदाय।।”

कबीर ने अवतारवाद का खंडन किया है। वे कहते हैं –

“दशरथ सूत तिहुँ लोक बखाना। राम नाम का मर्म न आना।”

कबीर ने निराकार ईश्वर की उपासना किया है। वे कहते है-

“जाके मुँह माया नहीं, नाहीं रूप कुरूप।

पुहुप बास ते पातरा ऐसा तत्व अनूप।।”

देहि माह विदेह है, साहब सुरति सरूप।

अनत लोक में रमि रहा जाकैं रंग न रूप।।”

कबीर रहस्यवादी थे। वे कहते हैं –

“दुलहिनी गावहु मंगलाचार। हम घरि आए हो राजाराम भरतार।

तन रस करि मैं मन रात करि हौं, पंचतत्त बाराती।

रामदेव संगि लै हौं, मैं जोबन मैं माती।।”

कबीर ने शास्त्रीय ज्ञान का परिहास (मजाक) किया है। वे कहते हैं –

“तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आखिन की देखी।”

कबीर पर बौद्ध धर्म के महायान शाखा का प्रभाव था। वे कहते हैं –

“पानी के रे बुदबुदा, अस माणुस की जात।

 एक दिन छिप जाएगा,ज्यों तारा प्रभात।।”

कबीर ने नारी के केवल कामिनी रूप का निंदन किया है। वे कहते हैं –

“जा नारी की झांई परत अंधा होत भुजंग।

कबीरा तिन की कौन गति, जो नित नारी को संग।।”

“नागिन के तो दोय फन, नारी के फन बीस।

जाका डसा न फिर जीये, मरि है बिसबा बीस।।”

कबीर ने ईश्वर की तुलना में गुरु को उच्च स्थान दिया है वे कहते हैं –

“गुरु गोबिंद दोनों खड़े काके लागू पाँय,

बलोहारी गुरु आपनो गोबिंद दिया बताए।।”

कबीर की भाषा: ब्रज, पंजाबी, खड़ीबोली, अरबी और फ़ारसी इन पाँचों भाषाओं के शब्द     

मिलते हैं।

  • श्यामसुंदर दास ने कबीर की भाषा को ‘पंचमेल खिचड़ी’ कहा है।
  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को ‘साधुक्कड़ी’ भाषा कहा है।
  • आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को ‘भाषा का डिक्टेटर’ कहा है।
  • बाबुराम सक्सेना ने कबीर को अवधी भाषा के प्रथम संत कवि’ कहा है।
  • बासुदेव सिंह के अनुसार भाषा की दृष्टि से कबीर ‘सच्चे लोकनायक’ थे।

डॉ उदयनारायण तिवारी के अनुसार- “वास्तव में कबीर की मातृभाषा बनारसी बोली थी, जो भोजपुरी का विस्तृत रूप था। “नागरी प्रचारिणी सभा काशी से प्रकाशित ‘कबीर ग्रंथावली’ की भूमिका में श्याम सुन्दरदास के आधार पर कबीर की भाषा का निर्णय करना टेढ़ी खीर है क्योंकि वह खिचड़ी है।”

कबीर के विषय में विद्वानों के विशेष कथन:

  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “प्रतिभा उनमे बड़ी प्रखर थी।”
  • आचार्य हजारी प्रसाद द्वेदी के शब्दों में- “वे नृसिंह की साक्षात प्रतिमूर्ति थे।”
  • बीजक का संपादन ‘कबीर ग्रंथावली’ के नाम से श्यामसुंदर दास जी ने किया। यह  काशी नागरी प्रचारिणी सभा काशी से प्रकाशित हुआ। (यह सबसे प्रामाणिक मानी जाती है)