Friday, July 8, 2022

तुलसीदास के पदों की व्यख्या

 जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ।।

 निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना ।।


शब्दार्थ :-

जे :-जो ,न :- नहीं ,होहिं :-होना ,दुखारी :-दुःखी होना, तिन्हहि:-उनको ,बिलोकत:-देखना,पातक:-पाप,

निज:-अपना,गिरि:-पहाड़, सम:-जैसा(समान) ,रज:-धूल  करि:-के, जाना:-जानना 


अर्थात- जो मनुष्य मित्र के दुःख से दुखी नहीं होते , उन्हें देखने से घोर पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान एवं मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु पर्वत के समान जानें।

श्री रामचरित मानस में गोस्वामी जी , मित्रता को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि सच्चा मित्र वह है जो अपने दुःख को कम और अपने मित्र के दुःख को भारी समझ कर उसके दुःख में साथ देता है। जो मित्र अपने मित्र के दुःख से दुखी नहीं होते, उनका मुँह भी नहीं देखना चाहिए।

जिन्ह के असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई।

कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा ।।

अर्थात -जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है , वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं ? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणो को छिपावे।

इसका तात्पर्य है कि मित्र का धर्म है की वह गलत मार्ग पर चलने वाले मित्र को सही राह दिखावे एवं अन्य व्यक्तियों के समक्ष उसके गुणों को ही बतावे, उसके अवगुणों को प्रकट न करे।

आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई।

जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।

जो सामने तो बना-बनाकर कोमल बचन बोलता है और पीठ पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई इस प्रकार जिसका मन सांप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है।

अतः गोस्वामीजी के अनुसार हमें मित्रता के धर्म,कर्त्तव्य का बोध होता है। साथ ही सच्चे मित्र की पहचान करने में सहयोगी है, जो हमारे जीवन जीने की राह के लिए अत्यंत उपयोगी है।


सेवक सठ नृप कृपन कुनारी।कपटी मित्र सूल सम चारी॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें।सब बिधि घटब काज मैं तोरेंII
भावार्थ:- मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥


तुलसीदास जी कहते है कि मूर्ख सेवक से दूर रहें। ये आपको हानि पहुंचा सकते हैं। इसका आशय यह है कि मूर्ख को इस बात की जानकारी नहीं होती कि उसे कब क्‍या और कैसे बात करनी है। ऐसी स्थिति में वह आपकी बातों को कहीं भी किसी पर भी और कभी भी जाहिर कर सकता है। इससे आपको भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है इसीलिए ऐसे व्‍यक्तियों से दूरी बनाए रखने में ही लाभ है।

नृप कृपन यानी कि कंजूस राजा से भी दूरी बनाए रखने की नसीहत दी गई है। इसका आशय यह है कि कंजूस व्‍यक्ति बड़ी से बड़ी परेशानी में भी धन बचाने का यत्‍न करता है। उसे इस बात की परवाह नहीं होती कि धन बचाने से उसे कितनी बड़ी क्षति होगी। वह केवल धन खर्च न हो, इसकी ही जुगत में लगा रहता है। तो ऐसे राजा से भी दूरी बनानी चाहिए। अन्‍यथा जरूरत पड़ने पर यह आपको धोखा ही देंगे।

कुनारी यानी कि कुलटा स्‍त्री से दूरी बनाने के पीछे तर्क ऐसी नारी से है, जिन्‍हें अपने कुल की मर्यादा और सम्‍मान का ख्‍याल नहीं रहता। तो ऐसी स्‍त्री से भी दूर रहना चाहिए क्‍योंकि ये केवल अपने ही बारे में यानी कि अपनी सुख-सुविधा का ही ध्‍यान रखती हैं। अगर आप किसी ऐसी स्‍त्री के साथ संबंध रखते हैं तो वह केवल अपने सुख-स‍ुविधाओं के लिए आपका साथ देगी लेकिन कोई परेशानी आई तो तुरंत ही साथ छोड़ कर चली जाएगी। तो तुलसीदास ऐसी स्त्रियों से दूरी बनाए रखने की बात कहती है।


हे मित्र !अब मेरे बल पर चिंता करना छोड़ दो.मैं सभी प्रकार से तुम्हारा साथ निभाऊँगा।


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