कुलदीप कुमार ‘द हिंदू’ में छपे अपने एक आलेख में कहते हैं पूर्वी उत्तर प्रदेश क आामगढ जिले का गाँव ‘धरमपुर’ अपने पूरी सामाजिक सरंचना के साथ इस आत्मकथा के पहले भाग ‘मुर्दहिया’ में उपस्थित है और उसका इतना सटीक विश्ाेषण लेखक के द्वारा किया गया है कि वह आत्मकथा समाज शास्त्रीय अध्ययन का भी एक अहम् स्रोत बन जाती है जो अपने आपमें बडी बात है।
‘मुर्दहिया’ में सात अध्याय हैं। पहले अध्याय में पारिवारिक पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हुए लेखक अपने जीवन यात्रा की शुरुआत करता है। पारिवारिक पृष्ठभूमि से गुजरते हुए यह आभास होने लगता है कि इसमें जिस जीवन का वर्णन है वह हमारे लिए भले ही अभ्यस्त न हो पर वह एकदम नया भी नहीं है। कारण यह है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रदेशों में दलितों की यही जिंदगी थी और आज भी कहीं न कहीं इसके कुछ अवशेष बचे हुए हैं। यह दुनिया है भूमिहीन दलितों की, बंधुआ मजदूरों की जो बेगार खटने को ही अपनी नियति स्वीकार कर चुके हैं। यहां कदम-कदम पर अशिक्षा है, अंधविश्वास हैं, बीमारियाँ हैं, भूख है, अभाव है, आर्थिक पिछडापन है। एक तरह से ऐसा जीवन जिसे पशु भी जीने से इनकार कर दें। सामान्य मानवी गरिमा से विछिन्न।
‘मूर्खता हमारी जन्मजात विरासत थी’-इस वाक्य से अपनी आत्मकथा आरम्भ करने वाले प्रो. तुलसीराम दरअसल इस समाज में सदियों से चली आ रही अशिक्षा, अंधविश्वास, अज्ञानता, मूढता और शोषण की असंख्य रूढियों की तरफ इशारा करते हैं। यह समाज भूमिहीन दलितों का समाज है। दादा-परदादा, पुरखे सब ऊँची जाति के जमींदारों के यहाँ बंधुआ मजदूर या हरवाहे थे। पिता भी बंधुआ हरवाहे यानी दलित खेत मजदूर हैं। यह हरवाही पुश्त-दर पुश्त चली आ रही थी। इसको धर्मांधता ने नियति के रूप में स्वीकार करना सिखा दिया था। और ऐसे परिवार में तुलसीराम जन्म लेते हैं। तीन साल की अवस्था में चेचक की बीमारी की वजह से उनकी एक आँख अपनी रोशनी हमेशा के लिए खो देती है। अंधविश्वासों की मोटी जंजीरों में जकडा हुआ गाँव उन्हें हमेशा के लिए अपशकुन की श्रेणी में ला खडा करता है। यह केवल दलित समाज की ही बात नहीं है बल्कि उस गाँव में ब्राह्मणों के अंदर भी ऐसे अंधविश्वास जड जमाए हुए थे। उस गाँव में बूढे ब्राह्मण जंगू पांडे को भी अपशकुन घोषित किए हुए था। परिवार में ही लेखक को काना-काना कहकर उपहास उडाने की रीति शुरू हुई जो लेखक के जीवन की पहली पीडा थी।
दूसरा अध्याय स्कूली जीवन से संबंधित है। अशिक्षा और अंधविश्वास से जकडे परिवार में पढने की ललक लेकर तुलसीराम पैदा हुए। इस दलित बस्ती में कोई भी पढा-लिखा नहीं था। केवल ब्राह्मण पढे-लिखे थे और वे दलितों की चिट्ठियाँ पढना नहीं चाहते थे सो थक-हार कर तुलसीराम को पढने के लिए प्राइमरी स्कूल में उनके पिता द्वारा भेजा जाने लगा। प्रवेश करते ही विद्यालय में विराजमान जातिगत भेदभाव, छुआछूत और भ्रष्टाचार से उनका सामना हुआ। ‘चमरकिट’, ‘चमरा ने कुँआ छू दिया, पसकराई’ आदि से भीडते-टकराते अंततः प्राइमरी पाठशाला की पढाई उन्होंने पूरी की।
इस अध्याय में बाल मनोविज्ञान की सुंदर झाँकी देखने को मिलती है। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की शिक्षा-व्यवस्था के हालातों का भी जायजा मिल जाता है।
तीसरा अध्याय ‘अकाल में अंधविश्वास’ शीर्षक के अंतर्गत है। इस अध्याय में सन् १९५७ में पडे अकाल और उसके भीषण प्रभाव को लेकर समाजशास्त्रीय ढंग से चर्चा की गई है। इस अकाल के चलते पूरा गाँव भुखमरी के कगार पर पहुँच चुका था। विशेषकर दलित परिवारों की हालत बहुत दयनीय थी। बच्चों तक को फाकाकशी करनी पडती थी। बरसाती कडकी के दिनों में भूख मिटाने के लिए चूहों, मछलियों पर निर्भर रहना पडता था। और ऐसे समय में मुनाफाखोरों की बन आती थी। दलितों के पास कडाके की ठंड से बचने के लिए कोई र*ााई वगैरह नहीं होती थी। सारे दलित रात भर ठिठुर कर जागते थे। बच्चों को पुआल के अंदर सुलाया जाता था। लेखक अपने इस अनुभव को इन शब्दों के सहारे व्यक्त करता है कि भयंकर जाडा में पुआल ओढकर सोना मानो कफन ओढकर सोना था। इस अध्याय में गरीबी और भुखमरी के ऐसे पीडादायक चित्र हैं जो मस्तिष्क को सुन्न कर देते हैं। दरअसल भारत की गरीबी के चित्र अक्सर मन और मस्तिष्क को झिंझोड जाते हैं।
चौथा अध्याय ‘मुर्दहिया के गिद्ध तथा लोक जीवन’ नाम से है। इस अध्याय में लेखक अपनी जीवन गाथा के साथ-साथ अपने गाँव के प्राकृतिक वातावरण की भी बात करता है। इसमें गिद्धों की बात बडे पैमाने पर आती है। पर्यावरण को लेकर चिंता करती हुई आत्मकथा हिन्दी की शायद पहली आत्मकथा है जहाँ पर्यावरण विषयक मुद्दों को भी उठाया गया है। गिद्धों के अलावा लेखक की स्मृति में गाँव के पोखरें भी आते हैं, खेत भी आते हैं, पेड-पौधे भी आते हैं और गाँव का लोक-जीवन और ढेर सारे जीवंत चरित्र आते हैं जिससे यह आत्मकथा केवल एक व्यक्ति की कथा न रहकर पूरे अंचल की कथा बन जाती है। दरअसल स्मृतियों के सहारे लिखी जाने वाली आत्मकथाओं में बहुत सारी वे चीजें बची रहती हैं जिन्हें हम बचाना चाहते हैं।
पाँचवाँ खंड ‘भुतनिया नागिन’ पर है। इसमें एक नट परिवार की कन्या ‘ललती’ जिसे गाँववाले नटिनिया कहते थे, उसकी कथा के साथ उसकी अँग्रेजी सीखने की ललक को दिखलाया गया है।
‘चले बुद्ध की राह’ अध्याय लेखक के भविष्य की उडान का आगा*ा करती है। दरिद्रता की धज्जियाँ उडाते हुए अब तुलसीराम को बुद्ध एक नई राह दिखाने लगे थे। बुद्ध का गृह-त्याग लेखक को भी गृह से मोह तोडने के लिए उकसाने लगा था। इसके पीछे बडा कारण था इंटर की पढाई। यह इच्छा इतनी बलवती हुई कि लेखक १५ वर्ष की अवस्था में घर से भाग चला। पीछे ‘मुर्दहिया’ छूट गई थी पर लेखक के अंतर्मन में, स्मृतियों में वह सदा टँगी रही। यह मुर्दहिया ही लेखक के जीवन का पाथेय बनी रही।
सातवें अध्याय ‘आामगढ में फाकाकशी’ शीर्षक में आामगढ में लेखक द्वारा बिताए गये दिनों और अर्जित किए गये अनुभवों की मार्मिक व रोचक व्यंजना है। घर से भागकर आजमगढ के ‘अंबेडकर छात्रावास’ में लेखक पहुँचता है और पहली बार अंबेडकर के नाम से परिचिति पाता है। यहाँ पर डॉ. अंबेडकर के संघर्षों के परिमाणस्वरूप दलित छात्रों के लिए बनाए गये छात्र-निवासों की दुर्दशा और भ्रष्टाचार पर भी लेखक की निगाह जाती है। आामगढ में फाकाकशी करते हुए लेखक अब बनारस का स्वप देखने लगा था। बी.एच.यू. में शिक्षा पाने की अलख लेखक में जाग चुकी थी। सो देर-सबेर लेखक को अपनी मंाल की तरफ रवाना होना ही था। यह रवानगी एक बेहतर जिंदगी की तलाश के साथ-साथ सारी दुनिया को जानने और समझने के लिए बेहतर औजारों की खोज का स्वप भी लिए हुए थी। यहाँ मुझे राहुल सांकृत्यायन याद आते हैं। उन्होंने कहा था कि जो जातियां अपने मूल जडों से उखडती हैं वे ही विकसित हो पाती हैं। यानी जहाँ रवानगी है, जहाँ दुनिया को जानने की ललक है, जहाँ जिंदगी के नए मायनों की तलाश की लगन है वहीं जिंदगी है, वहीं मंजिल है तथा वहीं सफलता है। जो आगे बढ गया वही जी गया और जो जी गया वह जीत गया। जिंदगी का फलसफा यही तो है। प्रो. तुलसीराम इसी फलसफे को अंगीकार कर चुके थे।
लेखक की आत्मकथा आामगढ के मुर्दहिया से गुजरते हुए बनारस की मणिकर्णिका के पास पहुँचती है। इस प्रसंग में नामवर सिंह अपने एक व्याख्यान म यह सवाल उठाते हैं कि प्रो. तुलसीराम की आत्मकथा के दोनों ही खंड मृत्यु से संबंधित हैं। दोनों खंडों के नाम के चयन में यह बात परिलक्षित भी होती है। वैसे इस आत्मकथा का मृत्यु से गहरा संबंध है पर मृत्यु की छाया से यह कहीं भी ग्रसित नहीं है बल्कि जीवन के जुझारू तेवरों से लबरेा है।
No comments:
Post a Comment