1• कालजयी कृति- डॉ. रामविलास शर्मा
2• सदाबहार नाटक- ब.व कारन्त
3• शुद्ध प्रहसन- गोपीनाथ तिवारी
4• शाश्वत अंधेर नगरी का नाटक- सिद्धनाथ कुमार
5• क्लासिक कृति- विपिन अग्रवाल
6• अंधेर नगरी अंग्रेजी राज्य का दूसरा नाम है- रामविलास शर्मा
7• अंधेर नगरी में यथार्थपरकता और शैलीबद्धता का बड़ा आकर्षक मिश्रण है- नेमिचन्द्र जैन
नाटक का उद्देश्य:-
इस प्रहसन के दो उद्देश्य हैं-
1•गोबरधनदास के द्वारा मनुष्य की लोभवृति पर व्यंग्य
लोभ पाप का मूल है, लोभ मिटावत मान ।।
लोभ कभी नहिं कीजिए, या में नरक निदान।।
2•मूल्यहीन राजा की परिणति का दिग्दर्शन
जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज।
ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥
नाटक की भूमिका में गिरीश रस्तोगी ने लिखा है:-
"अंधेर नगरी अन्धव्यवस्था का प्रतीक है।चौपट राजा विवेकहीनता और न्याय दृष्टि के न होने पर मूर्त स्वरूप है।लोभवृति ही मनुष्य को अंधेर नगरी की अन्धव्यवस्था, अमानवीयता में फँसती है।अंग्रेजों की न्याय दृष्टि और प्रणाली में भी शोषक-शोषित अपराधी-निरापराधी में कोई अंतर नहीं था।आज भी हमारी न्याय-प्रणाली की यही स्तिथि है।हमारी समकालीन शासनाव्यस्था पर,शोषकवृति पर 'अंधेर नगरी' एक कटु व्यंग्य है।"
रचनाकाल - 1881
1.यह लोककथा पर आधारित नाटय रचना है।
2.इसमें भारतेंदु जी ने राज-व्यवस्था,उच्च वर्गों की खुशामदी,जाति प्रथा की आलोचना की हैं।
3.यह एक प्रहसन है जिसका उद्देश्य लोभी व चौपट राजा की परिणति का वर्णन करना है।
4.इसमें यह दिखाया गया है कि जिस राज्य में चौपट राजा जैसा शासन हो वहां विवेक का प्रयोग नहीं होता तथा प्रजा की दशा अत्यंत दयनीय हो जाती है।
प्रहसन
प्रहसन की कथा प्रायः काल्पनिक होती है और उसमें हास्यरस की प्रधानता रहती है। उसके विविध पात्र अपनी अद्भुत चेष्टाओं द्वारा प्रेक्षकों का मनोरंजन करते हैं।प्रहसन का प्रत्यक्ष प्रयोजन मनोरंजन ही है; किन्तु अप्रत्यक्षतः प्रेक्षक को इससे उपदेशप्राप्ति भी होती है।
हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग में प्रहसनों की रचना की ओर भी ध्यान दिया गया है। भारतेन्दु हरिशचंद्र (वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, "अंधेर नगरी", "विषस्यविषमौषधम्") प्रतापनारायण मिश्र ("कलिकौतुक रूपक") बालकृष्ण भट्ट ("जैसा काम वैसा दुष्परिणाम"), राधाचरण गोस्वामी ("विवाह विज्ञापन"), जी. पी. श्रीवास्तव ("उलट फेर" "पत्र-पत्रिका-संमेलन") पांडेय बेचन शर्मा उग्र ("उजबक", "चार बेचारे"), हरिशंकर शर्मा (बिरादरी विभ्राट पाखंड प्रदर्शन, स्वर्ग की सीधी सड़क), आदि इस युग में सफल प्रहसनकार हैं। इन सभी ने प्राय: धार्मिक पाखण्ड, बाल एवं वृद्ध विवाह, मद्यपान, पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव, भोजनप्रियता आदि विषयों को ग्रहण किया है और इनके माध्यम से हास्य व्यंग्य की सृष्टि करते हुए प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रीति से इनके दुष्परिणामों की ओर संकेत किया है।
विशेष बात :-
‘अंधेर नगरी चौपट्ट राजा’ को इस जानकारी के साथ ही पढ़ना चाहिए कि यह नाटक रँगकर्मियों के एक दल हिंदू नेशनल थिएटर की जरूरत के लिए एक ही दिन में लिखा गया और इसके लिये भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पारसी और लोक रंगमंच पर प्रचलित एक प्रहसन को मौलिक प्रतिभा का स्पर्श देकर ऐसे रूपक में तब्दील कर दिया जो 1881 के समाज से अधिक आज के समाज का रूपक बनता जा रहा है लेकिन उस रूप में नहीं जिस रूप में 1881 का समाज था, जब समाज की नियम शक्तियां उपकरण और सामाजिक सम्बंध बदल गए हैं तो ‘अंधेर नगरी’ की व्यवस्था और राज्य कीऑपरेटिंग तकनीक भी बदल गई है, जिसकी शिनाख्त हम ‘अंधेर नगरी’ के पाठ में करते हैं और इसे खेलते हुए निर्देशक संवादों के बीच से अपने समय के भाष्य के लिए प्रस्तुति तैयार करते हैं. नाटक के पाठ में जाने से पहले यह भी जान लेना चाहिए कि भारतेंदु अपने निबंध नाटक अथवा दृश्यकाव्य में प्रहसन की जो परिभाषा निश्चित करते हैं अंधेर नगरी उसका उदाहरण है “ हास्यरस का मुख्य खेल. नायक राजा वा धनी वा ब्राह्मण वा धूर्त कोई हो. इसमें अनेक पात्रों का समावेश होता है. यद्यपि प्राचीन रीति से इसमें एक ही अंक होना चाहिए किंतु अब अनेक दृश्य दिए बिना नहीं लिखे जाते”. नाटक की कथा को लेकर जिस विचित्रता और पूर्वापरबद्धता का आग्रह भारतेंदु अपने सिद्धांत में करते हैं कि नाटक की कथा को जब तक अंत तक ना पढ़ा जाए उसकी समाप्ति का पता न लगे उसका निर्वाह भी करते हैं, यद्यपि यह लोक प्रचलित कथा हैI
नाटक को पढ़ते हुए एक बात पर ध्यान जाता है कि नाटक में बहुत सारे नीति के उपदेश हैं जो समय समय पर महंत अपने चेलों को देते हैं और प्रकारांतर में भारतेंदु जनता को, पाठक को, दर्शकों को ,यही वो उपदेश हैं जो अपने समय को और आनेवाले समय को भी सम्बोधित है. ‘अंधेर नगरी’ की शुरुआत ही संस्कृत के श्लोक से होती है जो सम्भवत: भारतेंदु का ही है. इस श्लोक का आशय पढ़ना दिलचस्प है क्योंकि यह नाटक के पाठ को पढ़ने का सूत्र प्रदान करता है या यूं कह सकते हैं कि इस सूत्र वाक्य को कथा का विस्तार करके नाटक के दृश्यों के सहारे जनता तक एक चेतना भारतेंदु सन्देश के रूप में पहुंचाना चाहते हैं।
छेदश्चन्दनचूतचंपकवने रक्षा करीरद्रुमे
हिंसा हंसमयूरकोकिलकुले काकेषुलीलारतिः
मातंगेन खरक्रयः समतुला कर्पूरकार्पासियो:
एषा यत्र विचारणा गुणिगणे देशाय तस्मै नमः
हिंसा हंसमयूरकोकिलकुले काकेषुलीलारतिः
मातंगेन खरक्रयः समतुला कर्पूरकार्पासियो:
एषा यत्र विचारणा गुणिगणे देशाय तस्मै नमः
श्लोक का आशय है:
जिस देश में चन्दन आम और चम्पक वन में कुल्हाड़े से काट पीट की जाती है, और शाखोटक अर्थात् तुच्छ वृक्षों की रक्षा की जाती है. हंस, मोर और कोकिलों के समुदाय में हिंसा की जाती है और कौवों का सदा आदर होता है
हाथियों को बेचकर गधे खरीदे जाते हैं, कपूर और कपास जहाँ एक समान हों, जिस देश वालों के ऐसे विचार हैं, उस देश को दूर से ही नमस्कार है, अर्थात् उसे छोड़ देना ही बेहतर है।
हाथियों को बेचकर गधे खरीदे जाते हैं, कपूर और कपास जहाँ एक समान हों, जिस देश वालों के ऐसे विचार हैं, उस देश को दूर से ही नमस्कार है, अर्थात् उसे छोड़ देना ही बेहतर है।
नाटक के दो दृश्यों पर विशेष रूप से ध्यान जाता है- एक बाजार का दृश्य और दूसरा राजसभा का. नाटक का रूपक अपने समय का अतिक्रमण कर व्याप्त होता है इसमें यही दो दृश्य सहायक हैं. बाजार के दृश्य में क्या है? व्यपारियों की जमात है. बाजार के किरदार हैं- कबाबवाला, चनावाला, नारंगीवाली, हलवाई, कुजड़िन, मुगल, पाचकवाला, मछलीवाली, जातवला... यहां रूकने की जरूरत है क्योंकि जात वाले के आगे रंग संकेत हैं ब्राह्मण…यही एक जाति है जिसका नाम है इसके ठीक बाद है बनिया…लेकिन बनिया एक जाति समूह है जिसमें कई जातियां हैं. भारतेन्दु ने इस ब्राह्मण वर्चस्व पर जबरदस्त प्रहार किया है और उनके दोहरेपन को उजागर किया है जिसके तहत उन्होंने समाज का आदर्श कुछ और बनाया और कर्म कुछ और किए. भारतेंदु के प्रसिद्ध निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ को अगर पढ़ें तो साफ समझ आएगा कि ‘अंधेर नगरी’ का यह पात्र ब्राह्मण इसलिए है क्योंकि वह उस समाज और वर्ग का प्रतिनिधि है जिसने समाज को जड़ बनाया है और उसकी ‘उन्नति’ को बाधित किया है. इस पात्र के संवाद को पढ़ ही लेना चाहिए...
“जातवाला- (ब्राह्मण)।-जात ले जात, टके सेर जात। एक टका दो, हम अभी अपनी जात बेचते हैं। टके के वास्ते ब्राहाण से धोबी हो जाँय और धोबी को ब्राह्मण कर दें टके के वास्ते जैसी कही वैसी व्यवस्था दें। टके के वास्ते झूठ को सच करैं। टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते हिंदू से क्रिस्तान। टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठा दोनों बेचैं, टके के वास्ते झूठी गवाही दें। टके के वास्ते पाप को पुण्य मानै, बेचैं, टके वास्ते नीच को भी पितामह बनावैं। वेद धर्म कुल मरजादा सचाई बड़ाई सब टके सेर। लुटाय दिया अनमोल माल ले टके सेर।”
वेद, धर्म मर्यादा सत्य सब बिकाऊ है और कितने पर? टके सेर, और इसी तक के वास्ते जैसी चाहे व्यवस्था ले लीजिए, आज भी सत्ता पोषित यह वर्ग, अगर ब्राह्मण शब्द से आशय आज के संदर्भ में व्यवस्था बनाने और चलाने वाली नियामक शक्तियों और वर्ग से लें तो इस वर्ग के लिए भी सत्य, धर्म, मर्यादा सब बिकाऊ है और पैसे या अपनी व्याख्या, सुविधा के हिसाब से वे व्यवस्था को तोड़ा मरोड़ रहे हैं .