पाठ-सार
ईश्वरी एक जमींदार का पुत्र था और उसका मित्र एक गरीब क्लर्क का बेटा था। दोनों इलाहाबाद में बोर्डिंग में साथ रहते और पढ़ते थे। मित्र ईश्वरी की जमींदारी, अमीरी रहन-सहन का कटु आलोचक था परन्तु ईश्वरी का उसके प्रति सौहार्द्रभाव था। वह बहस करते-करते गर्म हो जाता था परन्तु ईश्वरी मुस्कराता रहता था। ईश्वरी के निमंत्रण पर वह उसके घर गया। वहाँ ईश्वरी ने उसका परिचय एक बड़ी रियासत के उत्तराधिकारी के रूप में कराया। इस सम्बन्ध में ईश्वरी ने जो बढ़ा चढ़ाकर बातें बताईं उसका विरोध उसने नहीं किया और सत्य बात नहीं बताई।
उस पर अपने कल्पित स्वरूप का नशा चढ़ रहा था। वह अपने आपको जमींदार कुँवर मान बैठा था। उसकी सादगी का कारण उसका महात्मा गाँधी का अनुयायी होना था। उसके सादा कपड़े गाँधी जी के खद्दर के कपड़े थे। . वह पढ़ाई-लिखाई के इरादे से ईश्वरी के साथ आया था परन्तु यहाँ उसका समय बजरे पर नदी में सैर करने, शिकार करने, शतरंज खेलने ऑदि में बीत रहा था। वह ईश्वरी की नकल करता था और नौकरों से वैसा ही आदर-सम्मान चाहता था, जैसा वे ईश्वरी का करते थे। एक बार ईश्वरी घर पर अपनी माता के साथ बातें करता रह गया था। रात के दस बजे तक बिस्तर नहीं लगाया गया था। मित्र ने भी अपने हाथों बिस्तर नहीं लगाया था। नींद आ रही थी। साढ़े ग्यारह बजे महरा आया। वह घर के काम में यह भूल गया था। ईश्वरी ने उसे बहुत बुरी तरह डाँटा।
वह तुनकमिजाज हो गया था। एक बार शाम के बाद अँधेरा हो गया था। लैम्प और माचिस पास ही रखी थी। परन्तु उसने लैम्प नहीं जलाई। वह प्रतीक्षा करता रहा कि कोई नौकर आए और लैम्प जलाए। संयोगवश उसी समय मुंशी रियासत अली वहाँ आ पहुँचे। उनको देखकर उसका पारा चढ़ गया और उनको बुरी तरह फटकारने लगा। मुंशी जी ने काँपते हाथों से लैम्प जला दी।
दशहरे की छुट्टियाँ समाप्त होने पर वे इलाहाबाद लौट रहे थे। गाड़ी में बहुत भीड़ थी। एक यात्री की पीठ पर गठरी थी। उसे रखने का स्थान डिब्बे में नहीं मिल रहा था। वह हवा लेने के इरादे से दरवाजे पर बार-बार आ जाता था। उसकी गठरी की रगड़ मित्र के चेहरे पर लगती थी। इससे उसे इतना क्रोध आया कि उसने उठकर उसे धक्का दिया और दो-तीन चाँटे गड़ दिए। इसका सभी यात्रियों ने प्रबल विरोध किया। ईश्वरी को भी यह बात अच्छी नहीं लगी और उसने अँग्रेजी में उसे उसके इस अनुचित काम के लिए डाँटा। तब कहीं उसका नशा कुछ-कुछ उतरने लगा।