विद्यापति की कविताओं के बारे में विभिन्न विद्वानों ने समय समय पर अपने विचार व्यक्त किये हैं और उनकी कविताओं या व्यक्तित्व को समझने के लिये उनका एक वर्गीकृत सांचे में लाने की कोशिश की है। आइये हम इनमें से कुछ मान्यताओं का पाठ करते हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार “ विद्यापति के पद अधिकतर शृंगार के ही हैं जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं। इन पदों की रचना जयदेव के गीतकाव्य के अनुकरण पर ही शायद की गई है। इनका माधुर्य अद्भूत है। विद्यापति शैव थे। इन्होंने इन पदों की रचना शृंगार काव्य की दृष्टि से की है, भक्त के रूप में नहीं। विद्यापति को कृष्णभक्तों की परंपरा में नहीं समझना चाहिये”[1]। शुक्ल जी की इस मान्यता से पूरी तरह सहमत हुआ जा सकता है बस इस बात को छोड़कर की विद्यापति शैव थे इसलिये वे कृष्ण भक्ति काव्य की रचना नहीं कर सकते थे। वैसे विद्यापति को शैव मानने के बारे में भी काफी विवाद है। विद्यापति को शैव मानने का कारण शायद उनकी ‘शैव सर्वस्व सार’ ग्रंथ और मैथिली में रचे गये नचारी है जो शिव को आधार मान कर लिखे गये हैं। विद्यापति शिव के अनन्य उपासक थे और यह दंतकथा है कि ‘उगना’ के नाम से स्वंय शिव भी विद्यापति के यहां नौकरी की थी[2]। विद्यापति के पिता भी शैव थे। विद्यापति ने शक्ति की उपासना की भी कविता लिखी है और कृष्ण भक्ति के भी। अतः काव्य साक्ष्य और मिथिला की परंपरा के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह किसी एक मत के दृढं अवलंबी थे। शुक्ल जी ने विद्यापति को भक्त मानने वाले को भी आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि “आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गये हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीत गोविन्द’ के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे विद्यापति के इन पदों को भी”। शुक्ल जी की स्पष्ट मान्यता है कि विद्यापति ने शृंगार की रचना लौकिक आधार पर की है और उसका कोई धार्मिक आशय निकालना उचित नहीं। शुक्ल जी शायद इस शृंगार वर्ण की मांसलता से भी यह सावधानी बरतते हैं जो उनक लोकमंगल की मान्यताओं के अनुकूल नहीं है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी का विद्यापति के बारे में मत उसके ग्रहणशीलता और प्रभाव को लेकर अधिक बनाया गया लगता है। वे कहते हैं कि “विद्यापति शृंगार रस के सिद्धवाक कवि थे। उनकी पदावली में राधा और कृष्ण की जिस प्रेमलीला का चित्रण है, वह अपूर्व है। इस वर्णन में प्रेम के शरीर पक्ष की प्रधानता अवश्य है पर इससे सहृदय के चित्त में विकार नहीं उत्पन्न होता बल्कि भावों की सांद्रता और अभिव्यक्ति की प्रेषणगुणिता के कारण वह बहुत ही आकर्षक हो गया है”[3]। हजारी प्रसाद द्विवेदी लगभग शुक्ल जी की मान्यताओं का निराकरण करते हैं और वे यह भी बताते है कि विद्यापति के पदों ने भक्ति की भावना को कैसे प्रसारित किया। “राधा और कृष्ण के प्रेम प्रसंगों को यह पुस्तक प्रथम बार उत्तर भारत में गेय पदों में प्रकाशित करती है। इस पुस्तक के पदों ने आगे चलकर बंगाल, असम, और उड़ीसा के वैष्णव भक्तों को खूब प्रभावित किया और उन प्रदेशों के भक्ति साहित्य में नई प्रेरणा और प्राणधारा संचारित करने में समर्थ हुई। इसीलिए पूर्वी प्रदेशों में सर्वत्र यह पुस्तक धर्म ग्रंथ की महिमा पा सकी”[4]। इन दोनों मान्यताओं में सामाजिक प्रक्रिया की बात भी है। द्विवेदी जी विद्यापति को शृंगार रस का कवि घोषित करते हैं लेकिन वह उनके ग्रंथ की धार्मिक ग्रंथ में बनने की प्रक्रिया का भी उल्लेख करते हैं। यदि विद्यापति घोर शृंगारिक दृष्टि से ही पदावली के कुछ गीतों की रचना की थी लेकिन उसका सामाजिक प्रसार धार्मिक कारणों के आधार पर हो रहा था। इसलिये चैतन्य महाप्रभु ने भी इन पदों को अपनाया। और बंगाल के वैष्णव जगत में इन पदों को धार्मिक मान्यता मिली।
विद्यापति के शुरूआती अध्येताओं में से एक जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने भी उन्हें भक्त माना है। जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के साथ आनंद कुमारस्वामी और नगेन्द्रनाथ गुप्त जैसे विद्वानों ने भी विद्यापति को रहस्यवादी कवि बताया है। जिसमें राधा और कृष्ण प्रतीक के रूप में आते हैं। जीवात्मा परमात्मा से मिलने की कोशिश करती रहती है और इस कोशिश में जीवात्मा की मदद गुरू करती है जो यहां पर दूत के रूप में है। सुभद्र झा जैसे मैथिली के विद्वान ने इस मत का विरोध किया है। क्योंकि भारतीय रहस्यवादी कविताओं मे जिस धरातल पर जीवात्मा और परमात्मा के मिलन का आख्यान रचा गया है उस धरातल का विद्यापति के यहां सर्वथा अभाव है। शिवप्रसाद सिंह ने इस मत के विरोध में स्पष्ट लिखा है कि “ विद्यापति में न तो सिद्धों की सहज समाधि है, न षटचक्र, न कुंडलिनी, हठयोग और न तो मन के भीतर ही साधना द्वारा आत्मलय होने की प्रक्रिया। विद्यापति न माया की बात करते हैं न ब्रह्म की और न किसी सदगुरू की शरण में जाने का उपदेश देते हैं। उन्हें सबद की चोट नहीं लगती और न तो अनाहत नाद का आकर्षण खींचता है। वे किसी अखण्ड नाद को जो जगत के अंतस्थल में निरंतर गूंजता रहता है, सुनने के लिये कभी दौड़े नहीं। न उसकी चर्चा की, न तो क्रिया विशेषण से सुषुम्णा के पथ को उन्होंने उन्मुक्त किया। न तो उपाधिरहित शब्द के प्रणय तत्व की बात करते हैं और न वे अखण्ड सत्ता रूप ब्रह्म के वाचक स्फोट की ही चर्चा करते हैं। ..विद्यापति पर सूफी रहस्यवाद के प्रभाव की बात उठाना भी व्यर्थ है”[5]। रामवृक्ष बेनीपूरी जिन्होंने विद्यापति के गीतों का एक संकलन किया है, स्पष्ट लिखते हैं कि “ विद्यापति शृंगारिक कवि थे”[6]। “ विद्यापति ने कविता में अपना आदर्श जयदेव को माना है – लोग इन्हें अभिनव जयदेव कहते भी थे। अतः जयदेव के समान वे संगीत-पूर्ण कोमलकांत पदावली में शृंगारिक रचना करते थे”[7]।
शिव प्रसाद सिंह का मत है कि “विद्यापति वस्तुतः संक्रमण काल के प्रतिनिधि कवि हैं, वे दरबारी होते हुए भी जन-कवि हैं, शृंगारिक होते हुए भी भक्त हैं, शैव या शाक्त या वैष्णव होते हुए भी वे धर्म- निरपेक्ष हैं, संस्कारी ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होते हुए भी विवेक संत्रस्त या मर्यादावादी नहीं है। इस प्रकार विद्यापति का व्यक्तित्व अत्यंत गुंफित और उलझा हुआ है। यह नाना प्रकार के फूलों की वनस्थली है, एक फूल का गमला नहीं। विद्यापति का व्यक्तित्व मिथिला की उस पृथ्वी की उपज है जिसमें धान की यौवन पूर्ण गंध और आमों के बौर की महक है। वह मिथिला जिसके स्वर्णगर्भित अंचलों में वाग्मती, कमला, गंडक और कोसी की धारायें निरंतर प्रवाहित हैं, जहां की काली अमराइय़ां नील मेघों से ढंकती हैं, और शरद चंद्र की चांदनी से सुधास्नात होती रहती हैं वह मिथिला जो तर्क करकश पंडितों के न्याय शास्त्रीय वाद-विवादों और युवतियों के प्रेम-गीतों को एक साथ अपने हृदय में सुलाये रहती है”[8]।
रामवृक्ष बेनीपुरी विद्यापति की पदावली का अवलोकन करते हुए लिखते हैं कि “विद्यापति एक अजीब कवि हो गए हैं। राजा की गगनचुंबी अट्टालिका से लेकर गरीबों की टूटी हुई फूस की झोपड़ी तक में उनके पदों का आदर है। भूतनाथ के मंदिर और ‘कोहबर-घर’ में इनके पदों का समान रूप से सम्मान है। कोई मिथिला में जाकर तमाशा देखे। एक शिवपुजारी डमरू हाथ में लिये त्रिपुंड चढ़ाए, जिस प्रकार ‘कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ’ गाते –गाते तनमय होकर अपने आपको भूल जाता है, उसी प्रकार कलकंठी कामिनियां नववधू को कोहबर में ले जाती हुई “सुंदरि चललिहुं पहु घर ना, जाइतहि लागु परम ढरना” गाकर नव वर-वधू के हृदयों को एक अव्यक्त आनन्द-स्रोत में डुबो देती है। जिस प्रकार नवयिवक “ससन-पर स खसु अम्बर रे देखल धनि देह” पढ़ता हुआ एक मधुर कल्पना में रोमांचित हो जाता है, उसी प्रकार एक वृद्ध “तातल सैकत बारिबुन्द सम सुत मित रमनि समाज, ताहे बिहास्रि मन ताइ समरपिनु अब मझु हब कौन काम, माधव हम परिनाम निरासा” गाता हुआ अपने नयनों से शत-शत अश्रुबूंद गिराने लगता है”[9]।
विभिन्न विद्वानों के मत के इस अवलोकन से स्पष्ट है कि विद्यापति को केवल शृंगार का कवि भी माना जाता रहा है जिसमें आचार्य शुक्ल जी के साथ बाबुराम सक्सेना, रामकुमार वर्मा, शिवनन्दन ठाकुर आदि भी हैं। विद्यापति को केवल भक्त भी माना गया है जिसमें ग्रियर्सन के साथ नगेन्द्रनाथ जनार्दन मिश्र, श्यामसुन्दर दास इत्यादि शामिल है। विद्यापति साहित्य के अध्येताओं शिवप्रसाद सिंह और रामवृक्ष बेनीपुरी विद्यापति को किसी एक सांचे में रखने की बजाये उनको समग्रता में देखने के आग्रही हैं और ऐसा उनके उपरोक्त उद्धरणों से भी स्पष्ट हो जाता है।
इन विद्वानों के मत के अनुसार राय बनाने के क्रम में हमें स्वयं भी देखन चाहिये कि विद्यापति कि कविताओं का स्वर कैसा है। आइये इस क्रम में हम उनकी कविताओं का पाठ करते हैं।
[1] आचार्य रामचंद्र शुक्ल (2010), हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद: 37
[2] देखें, बेनीपुरी (2006): 19
[3] हजारी प्रसाद द्विवेदी(2006),हिंदी साहित्य उद्भव और विकास, राजकमल प्रकाशन:100
[4] वही :53
[5] शिव प्रसाद सिंह(2002), विद्यापति, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद :72
[6] बेनीपुरी (2006): 18
[7] बेनीपुरी (2006):29
[8] शिव प्रसाद सिंह (2002) :19
[9] रामवृक्ष बेनिपुरी (2006):32
Good knowledge
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद सर।
ReplyDeleteSir pic send me
ReplyDeleteबहुत हीं कम शब्दों में अधिक जानकारी मिली गुरुदेव
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