पदावली : प्रधान रस – श्रृंगार
पदावली का प्रधान-रस श्रृंगार है l पदावली के पदों की रचना मुक्तक रूप में होते हुए भी इसमें राधा-कृष्ण के प्रेम की कथा सहज ही ढूंढी जा सकती है l मुक्तक काव्य में सब पद स्वतंत्र रूप से अर्थ की प्रतीति कराने में सक्षम होते हैं l इनमे पूर्वापर संबंध नहीं होता l विद्यापति अत्यंत काव्य-रसिक व भावुक कवि थे, अतएव पदावली के पदों की रचना इन्होने मुक्तक-रूप में की l जब हृदय में जो भाव उठा उसे तत्क्षण एक पद के रूप में प्रस्तुत कर दिया l इन पदों में छोटे-छोटे, कोमल व भावना-प्रधान प्रसंगों का वर्णन है l परन्तु मुक्तक होने के बाद भी इन पदों की यह विशेषता है कि यदि इन्हें निश्चित क्रम प्रदान कर दिया जाए तो इसमें सहज ही राधा-कृष्ण अथवा नायक-नायिका का प्रेम कथानक ढूँढा जा सकता है l
विद्यापति की पदावली में श्रृंगार के दोनों पक्षों – ‘संयोग’ और ‘वियोग’ का हृदयस्पर्शी चित्रण हुआ है l हिंदी की श्रृंगार-परम्परा का अवलोकन करने से यह स्पष्ट दिखता है कि संयोग पक्ष के चित्रण में कवियों की दृष्टि आलंबन के रूप-विधान पर अधिक रही है और वियोग पक्ष के चित्रण में हृदय के भावों के अभिव्यंजन की ओर l विद्यापति के पदों में यही बात स्पष्टत: दृष्टिगत होती है l संयोगपक्ष में श्रीकृष्ण व राधा की चेष्टाओं, मुद्राओं व कार्यव्यापारों का सम्यक् विधान किया गया है l वहीं विप्रलंभ पक्ष के चित्रण में श्रीकृष्ण व राधा की स्मृति, अभिलाष, उद्वेग आदि की मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है l संयोग में प्रिय के सामने रहने से प्रेमी की वृत्ति बहिर्मुख हो जाती है, वहीं वियोग में प्रिय के दर्शन के अभाव में वृत्ति अंतर्मुख हो जाती है l संयोगपक्ष में आलंबन के अलंकारों अर्थात् ‘हावों’ (चेष्टाओं) का विधान किया गया है और वियोग में विरह की दस दशाओं का l विद्यापति के इन श्रृंगार के पदों की विशेषता है – उभय पक्ष की समरसता l राधिका के रूप का जैसा मनोमुग्धकारी प्रभाव श्रीकृष्ण के हृदय पर पड़ता है, वैसा ही श्रीकृष्ण के रूप का राधिका के हृदय पर भी l
संयोग-श्रृंगार में ‘रूप-वर्णन’ प्रधान हुआ करता है l अपनी पदावली में कवि ने वय:-संधि, नख-शिख एवं सद्य:-स्नाता आदि के माध्यम से नायक-नायिका का ‘रूप-वर्णन’ प्रस्तुत किया है l वय:-संधि में शैशव व यौवन के मिलन-स्थल पर शरीर में अनेक परिवर्तन होने लगते हैं l हृदय के विकास के साथ-साथ तन पर भी विकास के अनेक लक्षण परिलक्षित होने लगते हैं l इसका सजीव चित्र इस पद में प्रस्तुत है –
‘मुकुर हाथ लए करए सिंगार, सखी पूछइ कइसे सूरत-बिहार l
निरजन उरज हेरइ कत बेरि, बिहँसइ अपन पयोधर हेरि ll ’ (पद संख्या 4)
नख-शिख वर्णन में कवि ने राधा-कृष्ण दोनों के सुंदर चित्र उकेरे हैं l नयनों के साथ-साथ कवि की दृष्टि अन्य अंगों – कुच, उरोज, कमर, बाहु, चरण आदि के सुंदर चित्रण पर भी गई है l नख-शिख वर्णन में अंगों के साथ-साथ आभूषण, प्रसाधन, तथा अन्य श्रृंगारों का भी वर्णन होता है l विद्यापति ने किंचित मात्रा में ही सही इन सबों का भी अंकन अपने पदों में किया है l यह सब विभाव पक्ष के आलंबन के अंतर्गत आते हैं l नख-शिख का एक सुंदर उदाहरण निम्न पद में दिखता है –
‘ नयन-नलिन दुइ अंजन रंजित, भौंह-विभंग-बिलासा l
चकित चकोर-जोर विहि बाँधल, केवल काजर पासा ll
गिरिबर गरुअ पयोधर-परसित, गिम गज-मोतिम हारा l
काम कंबु भरि कनक-संभु परि, ढारय सुरसरि-धारा ll ’ (पद संख्या 18)
नायिका के साथ विद्यापति ने अपनी पदावली में नायक के नख-शिख का भी सम्यक वर्णन किया हैl प्रेम-प्रसंग के अंतर्गत राधा कृष्ण जी के अपूर्व रूप का वर्णन अपनी सखी से करती हुई कहती है –
‘ए सखि पेखलि एक अपरूप l सुनइत मानब सपन-सरूप ll
कमल जुगल पर चाँदक माला l तापर उपजल तरुन तमाला ll
तापर बेढ़ली बीजुरि-लता l कालिंदी तट धिरें-धिरें जाता ll
साखा-सिखर सुधाकर पाँति l ताहि नब पल्लब अरुनिम काँति ll ’ (पद संख्या 36)
रूप-वर्णन के अंतर्गत हाव व हेला भी आते हैं l भौंह अथवा नेत्रादि के विकार द्वारा संभोग-विलास को अल्प-रूप में व्यक्त करने वाले विकार को हाव कहते हैं l मनोविकार जब स्पष्ट रूप से व्यक्त हो तो उसे हेला कहते हैं l विद्यापति की पदावली में हाव-हेला का भी विधान दिखाई पड़ता है l यहाँ पर यह विचार कर लेना भी उपयुक्त रहेगा कि हाव-हेला अथवा चेष्टाएँ ‘अनुभाव’ मानी जाएँ या ‘उद्दीपन’ ? इनकी परिगणना स्थिति के अनुसार अनुभाव व उद्दीपन दोनों में की जा सकती है l विलास में प्रिय के मिलने पर भृकुटी-नेत्र में यदि विकार उत्पन्न हो तो ‘अनुभाव’ के अंतर्गत होंगे l परन्तु जब इन विलास की चेष्टाओं को देखकर नायक यह कहे कि नायिका की चेष्टाएँ (भ्रू-भंग नेत्रादी विकृत होना ) उसके मन का हरण करती है, तो इस स्थान पर वे ‘उद्दीपन’ में परिगणित होंगी l
श्रृंगार रस में उद्दीपन विभाव आलंबन की चेष्टाओं के अतिरिक्त बाह्य रूप में भी आता है, जैसे – चाँदनी, नदी का मनोरम तट, शीतल-सुगन्धित वायु आदि l विद्यापति ने चेष्टाओं के साथ-साथ बाहरी उद्दीपनों का भी विधान किया है l अत: हम कह सकते हैं कि विद्यापति ने अपनी पदावली में विभाव-पक्ष की अच्छी योजना की है l संयोग पक्ष में ये उद्दीपन जहाँ प्रेम की वृद्धि का कारण बनते हैं, वहीं, वियोग पक्ष में ये विषाद को उद्दीप्त करते दिखाई देते हैं l उद्दीपन विभाव के अंतर्गत ही प्रकृति-वर्णन भी आता है l पदावली में वसंत और वर्षा ऋतु के वर्णन अधिकतर स्वच्छंद रूप में न होकर श्रृंगार के उद्दीपन रूप में ही अधिक हुए हैं l हालाँकि वसंत का स्वतंत्र वर्णन भी पदावली में मिलता है l विप्रलंभ-श्रृंगार के अंतर्गत बारहमासा-वर्णन में वर्षा का वर्णन भी देखते ही बनता है l
पदावली में विद्यापति का वियोग-श्रृंगार वर्णन भी उत्कृष्ट रूप में प्रस्तुत हुआ है l वास्तव में उनका विप्रलंभ-श्रृंगार ही उन्हें अत्याधिक विलासिता के दोष से बचाए रख पाने में सक्षम हुआ है l संयोग श्रृंगार के चित्रों पर स्थूलता का आरोप लगाया जा सकता है व उनमें वासना की गंध मिलती है l परन्तु, वियोग के अनेक चित्रों में कवि पार्थिवता से ऊपर उठ जाता है l यहाँ प्रेमी-प्रेमिका साधारण केलि-विलास से ऊपर उठ अतींद्रिय जगत की सृष्टि करते हैं जहाँ तन्मयता, प्रेम-विह्वलता, प्रिय-चिंतन के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता l शास्त्रीय ग्रंथों में श्रृंगार के चार भेद किये गए हैं – पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण-विरह l ‘पूर्वराग’ में मिलन की उत्कंठा मात्र रहती है, अत: उसमे वेदना का पूर्ण प्रदर्शन नहीं हो पाता l ‘मान’ में वास्तविक दूरी की अपेक्षा हृदय की दूरी अधिक होती है l इस कारण इसमें भी विरह का उत्कृष्ट रूप नहीं आ पाता l विद्यापति ने ‘मान’ के बहुत से पद रचे हैं l ‘करुण-विप्रलंभ’ उनकी पदावली में नहीं मिलता l ‘करुण-विप्रलंभ’ का जो लक्षण रीति-ग्रंथों में मिलता है, उसके अनुसार वह केवल शास्त्रकारों की भेद प्रवृत्ति का सूचक जान पड़ता है l इस प्रकार विचार करने से ‘प्रवास’ ही वियोग का प्रधान भेद ठहरता है l इसमें वियोग की विभिन्न अवस्थाओं का निदर्शन करने का अवसर प्राप्त होता है l
विद्यापति ने विरह-वर्णन में भी संयोग की भाँति उभय पक्ष का ध्यान रखा है l राधा की वियोग-विह्वलता के साथ-साथ कृष्ण की वियोग-विह्वलता भी दर्शनीय है l विद्यापति के विरह-वर्णन में अत्याधिक ऊहात्मकता के दर्शन नहीं होते l बिहारी की भाँति उनकी विरहिणी नायिका विरह में हलकी हो सांस की फूँक-मात्र से आगे पीछे नहीं झूलती l विद्यापति के विरह-वर्णन में वेदना की कोरी हाय-हाय के स्थान पर हृदय की व्याकुलता, तीव्र वेदना व तल्लीनता के दर्शन होते हैं l वियोग के ही अंतर्गत दस कामदशाओं का वर्णन आता हैं, जो इस प्रकार हैं – अभिलाष, चिंता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण l इन सारी कामदशाओं का चित्रण विद्यापति की पदावली में मिलता हैl इन सारी विरह-दशाओं का वर्णन विद्यापति के पदों में मिलता है l
विद्यापति की विरह-व्यंजना में नायिका की मन:स्थिति पर विशेष ध्यान है l शास्त्रीय विधान के अनुसार विरह-निवेदन दूती का कार्य होता है, परन्तु, लौकिक गीतों में विरहिणी द्वारा स्वयं विरह का निवेदन मिलता है l विद्यापति की विरहिणी भी बातें स्वयं निवेदित करती हैं l विद्यापति, सूरदास आदि में यह गीतों की परम्परा से आया जान पड़ता है l प्रिय के अभाव में जब विरहिणी विरह-निवेदन करे तो उसके लिए कोई श्रोता होना आवश्यक है l लौकिक गीतों में सखी श्रोता की भूमिका निभाती है, यही विद्यापति के पदों में भी दिखाई देता है l विद्यापति का विरह लौकिक विरह है, भले ही उसका संबंध राधा-कृष्ण जैसे दिव्यादिव्य नायक-नायिका से हो l नायक कृष्ण के विरह में नायिका राधा को अपना यौवन निरर्थक नजर आता है l वह कह उठती है –
“सरसिज बिनु सर सर बिनु सरसिज, की सरसिज बिनु सूरे l
जौबन बिनु तन तन बिनु जौबन, की जौबन पिअ दूरे ll
सखि हे मोर बड़ दैब विरोधी l” (पद संख्या 191)
वियोग में सुखकारी वस्तुएँ भी कष्टकारी प्रतीत होती हैं l इसीलिए विद्यापति की नायिका को विरह में मनभावन वर्षा की बूँदें भी बाण सी प्रतीत हो रही हैं –
“सखि हे हमर दुखाक नहि ओर l
ई भर बादर माह भादर , सून मंदिर मोर ll
झंपि घन गरजती संतत, भुवन भरि बरसंतिया l
कन्त पाहुन काम दारुण, सघन खर सर हंतिया ll” (पद संख्या 199)
इस पद के द्वितीय चरण में इस बात की अत्यंत स्वाभाविक व्यंजना है कि दूसरे की संपन्नता से ही तो अपनी विपन्नता अधिक खलती है l इसीलिए आश्चर्य नहीं कि भरे हुए बादलों को देखकर नायिका को अपने मंदिर का सूनापन कष्ट दे l
विरह-परंपरा के अनुसार नायिका प्रियतम के पास ‘पाती’ भेजने का आयोजन करती है, परन्तु पाती ले जाने वाला कोई नहीं है –
“के पतिया लए जाएत रे, मोरा पिअतम पास l
हिए नहि सहए असह दुख रे, भेल साओन मॉस ll” (पद संख्या 203)
विरह की पराकाष्ठा तब हो जाती है जब राधा विरहवश प्रेम में इतनी तल्लीन हो जाती है कि स्वयं को ही कृष्ण समझ लेती है और ‘राधा-राधा’ चिल्लाने लगती है l पुन: जब होश में आती है तब कृष्ण के लिए व्याकुल हो उठती है l इस प्रकार दोनों अवस्थाओं में मार्मिक वेदना सहती है –
“अनुखन माधब माधब सुमरइते, सुंदरि भेलि मधाई l
ओ निज भाव सुभाबहि बिसरल, अपनेही गुन लुबुधाई ll.....” (पद संख्या 217)
राधा के वियोग में कृष्ण भी दुखी हैं l संयोग के समय का स्मरण कर वे कहते हैं –
“तिला एक सयन ओत जिब न सहए, न रहए दुहु तनु भीन ll
माँझे पुलक गिरि-अंतर मानए, अइसन रह निसि-दीन ll” (पद संख्या 219)
इस प्रकार विद्यापति ने श्रीकृष्ण के विरह के भी कुछ गीत कहे हैं व उभयपक्ष में समान विरह दर्शाकर उसकी विषमता का परिहार किया है l पर कवि ने राधिका के विरह-चित्रण में जो तल्लीनता दिखाई है वैसी श्रीकृष्ण के विरह में नहीं l
विद्यापति के काव्य में श्रृंगार का भाव-प्रवण चित्र प्रस्तुत हुआ है l कवि ने श्रृंगार रस के दोनों पक्षों का इतना मार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है कि आगे आने वाले श्रृंगारिक कवियों के लिए वे मार्गदर्शक के रूप में व उनका श्रृंगारिक काव्य अमूल्य निधि के रूप में है l श्रृंगार के अलावा विद्यापति की पदावली में अन्य रसों के भी छींटें भी मिल जाते हैं l वंदना व स्तुति के पदों व प्रार्थना और नचारी के पदों में भक्ति रस का निर्वाह दृष्टिगत होता है l दैन्य और विनय की अभिव्यक्ति जिन पदों में होती है उन्हें ‘नचारी’ कहते हैं l विद्यापति ने देवी और महादेव के संबंध में इस प्रकार के पद लिखे हैं जिनमे से महादेव के पद अधिक हैं l इनमें से कुछ पदों में तो शुद्ध भक्ति के दर्शन होते हैं तो कुछ में वचनभंगिमा अधिक है l एकाध पदों में शांत रस का प्रवाह भी हुआ है l शांत रस के पदों में वैराग्य भावना का ही विकास दृष्टिगोचर होता है, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इन पदों की रचना कवि ने अपनी प्रौढावस्था में ही की होगी l यथा –
“तातल सैकत बारि-बिंदु सम, सुत मित-रमनि-समाजे l
तोहि बिसारि मन नाहि समरपल, अब मझुहोब कोन काजे ll
माधब, हम परिनाम निरासा l” (पद संख्या 254)
राजा शिव सिंह के युद्ध-वर्णन में वीर-रस का परिपाक हुआ है l परन्तु श्रृंगार के अलावा अन्य रसों में कवि की रुचि कम रमी है l यत्र-तत्र अन्य रसों के कुछेक पद अवश्य मिल जाते हैं, परन्तु पदावली में प्रधानता श्रृंगार-रस की ही है l
Saturday, September 9, 2017
श्रृंगार रस
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