पदावली : प्रधान रस – श्रृंगार
पदावली का प्रधान-रस श्रृंगार है l पदावली के पदों की रचना मुक्तक रूप में होते हुए भी इसमें राधा-कृष्ण के प्रेम की कथा सहज ही ढूंढी जा सकती है l मुक्तक काव्य में सब पद स्वतंत्र रूप से अर्थ की प्रतीति कराने में सक्षम होते हैं l इनमे पूर्वापर संबंध नहीं होता l विद्यापति अत्यंत काव्य-रसिक व भावुक कवि थे, अतएव पदावली के पदों की रचना इन्होने मुक्तक-रूप में की l जब हृदय में जो भाव उठा उसे तत्क्षण एक पद के रूप में प्रस्तुत कर दिया l इन पदों में छोटे-छोटे, कोमल व भावना-प्रधान प्रसंगों का वर्णन है l परन्तु मुक्तक होने के बाद भी इन पदों की यह विशेषता है कि यदि इन्हें निश्चित क्रम प्रदान कर दिया जाए तो इसमें सहज ही राधा-कृष्ण अथवा नायक-नायिका का प्रेम कथानक ढूँढा जा सकता है l
विद्यापति की पदावली में श्रृंगार के दोनों पक्षों – ‘संयोग’ और ‘वियोग’ का हृदयस्पर्शी चित्रण हुआ है l हिंदी की श्रृंगार-परम्परा का अवलोकन करने से यह स्पष्ट दिखता है कि संयोग पक्ष के चित्रण में कवियों की दृष्टि आलंबन के रूप-विधान पर अधिक रही है और वियोग पक्ष के चित्रण में हृदय के भावों के अभिव्यंजन की ओर l विद्यापति के पदों में यही बात स्पष्टत: दृष्टिगत होती है l संयोगपक्ष में श्रीकृष्ण व राधा की चेष्टाओं, मुद्राओं व कार्यव्यापारों का सम्यक् विधान किया गया है l वहीं विप्रलंभ पक्ष के चित्रण में श्रीकृष्ण व राधा की स्मृति, अभिलाष, उद्वेग आदि की मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है l संयोग में प्रिय के सामने रहने से प्रेमी की वृत्ति बहिर्मुख हो जाती है, वहीं वियोग में प्रिय के दर्शन के अभाव में वृत्ति अंतर्मुख हो जाती है l संयोगपक्ष में आलंबन के अलंकारों अर्थात् ‘हावों’ (चेष्टाओं) का विधान किया गया है और वियोग में विरह की दस दशाओं का l विद्यापति के इन श्रृंगार के पदों की विशेषता है – उभय पक्ष की समरसता l राधिका के रूप का जैसा मनोमुग्धकारी प्रभाव श्रीकृष्ण के हृदय पर पड़ता है, वैसा ही श्रीकृष्ण के रूप का राधिका के हृदय पर भी l
संयोग-श्रृंगार में ‘रूप-वर्णन’ प्रधान हुआ करता है l अपनी पदावली में कवि ने वय:-संधि, नख-शिख एवं सद्य:-स्नाता आदि के माध्यम से नायक-नायिका का ‘रूप-वर्णन’ प्रस्तुत किया है l वय:-संधि में शैशव व यौवन के मिलन-स्थल पर शरीर में अनेक परिवर्तन होने लगते हैं l हृदय के विकास के साथ-साथ तन पर भी विकास के अनेक लक्षण परिलक्षित होने लगते हैं l इसका सजीव चित्र इस पद में प्रस्तुत है –
‘मुकुर हाथ लए करए सिंगार, सखी पूछइ कइसे सूरत-बिहार l
निरजन उरज हेरइ कत बेरि, बिहँसइ अपन पयोधर हेरि ll ’ (पद संख्या 4)
नख-शिख वर्णन में कवि ने राधा-कृष्ण दोनों के सुंदर चित्र उकेरे हैं l नयनों के साथ-साथ कवि की दृष्टि अन्य अंगों – कुच, उरोज, कमर, बाहु, चरण आदि के सुंदर चित्रण पर भी गई है l नख-शिख वर्णन में अंगों के साथ-साथ आभूषण, प्रसाधन, तथा अन्य श्रृंगारों का भी वर्णन होता है l विद्यापति ने किंचित मात्रा में ही सही इन सबों का भी अंकन अपने पदों में किया है l यह सब विभाव पक्ष के आलंबन के अंतर्गत आते हैं l नख-शिख का एक सुंदर उदाहरण निम्न पद में दिखता है –
‘ नयन-नलिन दुइ अंजन रंजित, भौंह-विभंग-बिलासा l
चकित चकोर-जोर विहि बाँधल, केवल काजर पासा ll
गिरिबर गरुअ पयोधर-परसित, गिम गज-मोतिम हारा l
काम कंबु भरि कनक-संभु परि, ढारय सुरसरि-धारा ll ’ (पद संख्या 18)
नायिका के साथ विद्यापति ने अपनी पदावली में नायक के नख-शिख का भी सम्यक वर्णन किया हैl प्रेम-प्रसंग के अंतर्गत राधा कृष्ण जी के अपूर्व रूप का वर्णन अपनी सखी से करती हुई कहती है –
‘ए सखि पेखलि एक अपरूप l सुनइत मानब सपन-सरूप ll
कमल जुगल पर चाँदक माला l तापर उपजल तरुन तमाला ll
तापर बेढ़ली बीजुरि-लता l कालिंदी तट धिरें-धिरें जाता ll
साखा-सिखर सुधाकर पाँति l ताहि नब पल्लब अरुनिम काँति ll ’ (पद संख्या 36)
रूप-वर्णन के अंतर्गत हाव व हेला भी आते हैं l भौंह अथवा नेत्रादि के विकार द्वारा संभोग-विलास को अल्प-रूप में व्यक्त करने वाले विकार को हाव कहते हैं l मनोविकार जब स्पष्ट रूप से व्यक्त हो तो उसे हेला कहते हैं l विद्यापति की पदावली में हाव-हेला का भी विधान दिखाई पड़ता है l यहाँ पर यह विचार कर लेना भी उपयुक्त रहेगा कि हाव-हेला अथवा चेष्टाएँ ‘अनुभाव’ मानी जाएँ या ‘उद्दीपन’ ? इनकी परिगणना स्थिति के अनुसार अनुभाव व उद्दीपन दोनों में की जा सकती है l विलास में प्रिय के मिलने पर भृकुटी-नेत्र में यदि विकार उत्पन्न हो तो ‘अनुभाव’ के अंतर्गत होंगे l परन्तु जब इन विलास की चेष्टाओं को देखकर नायक यह कहे कि नायिका की चेष्टाएँ (भ्रू-भंग नेत्रादी विकृत होना ) उसके मन का हरण करती है, तो इस स्थान पर वे ‘उद्दीपन’ में परिगणित होंगी l
श्रृंगार रस में उद्दीपन विभाव आलंबन की चेष्टाओं के अतिरिक्त बाह्य रूप में भी आता है, जैसे – चाँदनी, नदी का मनोरम तट, शीतल-सुगन्धित वायु आदि l विद्यापति ने चेष्टाओं के साथ-साथ बाहरी उद्दीपनों का भी विधान किया है l अत: हम कह सकते हैं कि विद्यापति ने अपनी पदावली में विभाव-पक्ष की अच्छी योजना की है l संयोग पक्ष में ये उद्दीपन जहाँ प्रेम की वृद्धि का कारण बनते हैं, वहीं, वियोग पक्ष में ये विषाद को उद्दीप्त करते दिखाई देते हैं l उद्दीपन विभाव के अंतर्गत ही प्रकृति-वर्णन भी आता है l पदावली में वसंत और वर्षा ऋतु के वर्णन अधिकतर स्वच्छंद रूप में न होकर श्रृंगार के उद्दीपन रूप में ही अधिक हुए हैं l हालाँकि वसंत का स्वतंत्र वर्णन भी पदावली में मिलता है l विप्रलंभ-श्रृंगार के अंतर्गत बारहमासा-वर्णन में वर्षा का वर्णन भी देखते ही बनता है l
पदावली में विद्यापति का वियोग-श्रृंगार वर्णन भी उत्कृष्ट रूप में प्रस्तुत हुआ है l वास्तव में उनका विप्रलंभ-श्रृंगार ही उन्हें अत्याधिक विलासिता के दोष से बचाए रख पाने में सक्षम हुआ है l संयोग श्रृंगार के चित्रों पर स्थूलता का आरोप लगाया जा सकता है व उनमें वासना की गंध मिलती है l परन्तु, वियोग के अनेक चित्रों में कवि पार्थिवता से ऊपर उठ जाता है l यहाँ प्रेमी-प्रेमिका साधारण केलि-विलास से ऊपर उठ अतींद्रिय जगत की सृष्टि करते हैं जहाँ तन्मयता, प्रेम-विह्वलता, प्रिय-चिंतन के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता l शास्त्रीय ग्रंथों में श्रृंगार के चार भेद किये गए हैं – पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण-विरह l ‘पूर्वराग’ में मिलन की उत्कंठा मात्र रहती है, अत: उसमे वेदना का पूर्ण प्रदर्शन नहीं हो पाता l ‘मान’ में वास्तविक दूरी की अपेक्षा हृदय की दूरी अधिक होती है l इस कारण इसमें भी विरह का उत्कृष्ट रूप नहीं आ पाता l विद्यापति ने ‘मान’ के बहुत से पद रचे हैं l ‘करुण-विप्रलंभ’ उनकी पदावली में नहीं मिलता l ‘करुण-विप्रलंभ’ का जो लक्षण रीति-ग्रंथों में मिलता है, उसके अनुसार वह केवल शास्त्रकारों की भेद प्रवृत्ति का सूचक जान पड़ता है l इस प्रकार विचार करने से ‘प्रवास’ ही वियोग का प्रधान भेद ठहरता है l इसमें वियोग की विभिन्न अवस्थाओं का निदर्शन करने का अवसर प्राप्त होता है l
विद्यापति ने विरह-वर्णन में भी संयोग की भाँति उभय पक्ष का ध्यान रखा है l राधा की वियोग-विह्वलता के साथ-साथ कृष्ण की वियोग-विह्वलता भी दर्शनीय है l विद्यापति के विरह-वर्णन में अत्याधिक ऊहात्मकता के दर्शन नहीं होते l बिहारी की भाँति उनकी विरहिणी नायिका विरह में हलकी हो सांस की फूँक-मात्र से आगे पीछे नहीं झूलती l विद्यापति के विरह-वर्णन में वेदना की कोरी हाय-हाय के स्थान पर हृदय की व्याकुलता, तीव्र वेदना व तल्लीनता के दर्शन होते हैं l वियोग के ही अंतर्गत दस कामदशाओं का वर्णन आता हैं, जो इस प्रकार हैं – अभिलाष, चिंता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण l इन सारी कामदशाओं का चित्रण विद्यापति की पदावली में मिलता हैl इन सारी विरह-दशाओं का वर्णन विद्यापति के पदों में मिलता है l
विद्यापति की विरह-व्यंजना में नायिका की मन:स्थिति पर विशेष ध्यान है l शास्त्रीय विधान के अनुसार विरह-निवेदन दूती का कार्य होता है, परन्तु, लौकिक गीतों में विरहिणी द्वारा स्वयं विरह का निवेदन मिलता है l विद्यापति की विरहिणी भी बातें स्वयं निवेदित करती हैं l विद्यापति, सूरदास आदि में यह गीतों की परम्परा से आया जान पड़ता है l प्रिय के अभाव में जब विरहिणी विरह-निवेदन करे तो उसके लिए कोई श्रोता होना आवश्यक है l लौकिक गीतों में सखी श्रोता की भूमिका निभाती है, यही विद्यापति के पदों में भी दिखाई देता है l विद्यापति का विरह लौकिक विरह है, भले ही उसका संबंध राधा-कृष्ण जैसे दिव्यादिव्य नायक-नायिका से हो l नायक कृष्ण के विरह में नायिका राधा को अपना यौवन निरर्थक नजर आता है l वह कह उठती है –
“सरसिज बिनु सर सर बिनु सरसिज, की सरसिज बिनु सूरे l
जौबन बिनु तन तन बिनु जौबन, की जौबन पिअ दूरे ll
सखि हे मोर बड़ दैब विरोधी l” (पद संख्या 191)
वियोग में सुखकारी वस्तुएँ भी कष्टकारी प्रतीत होती हैं l इसीलिए विद्यापति की नायिका को विरह में मनभावन वर्षा की बूँदें भी बाण सी प्रतीत हो रही हैं –
“सखि हे हमर दुखाक नहि ओर l
ई भर बादर माह भादर , सून मंदिर मोर ll
झंपि घन गरजती संतत, भुवन भरि बरसंतिया l
कन्त पाहुन काम दारुण, सघन खर सर हंतिया ll” (पद संख्या 199)
इस पद के द्वितीय चरण में इस बात की अत्यंत स्वाभाविक व्यंजना है कि दूसरे की संपन्नता से ही तो अपनी विपन्नता अधिक खलती है l इसीलिए आश्चर्य नहीं कि भरे हुए बादलों को देखकर नायिका को अपने मंदिर का सूनापन कष्ट दे l
विरह-परंपरा के अनुसार नायिका प्रियतम के पास ‘पाती’ भेजने का आयोजन करती है, परन्तु पाती ले जाने वाला कोई नहीं है –
“के पतिया लए जाएत रे, मोरा पिअतम पास l
हिए नहि सहए असह दुख रे, भेल साओन मॉस ll” (पद संख्या 203)
विरह की पराकाष्ठा तब हो जाती है जब राधा विरहवश प्रेम में इतनी तल्लीन हो जाती है कि स्वयं को ही कृष्ण समझ लेती है और ‘राधा-राधा’ चिल्लाने लगती है l पुन: जब होश में आती है तब कृष्ण के लिए व्याकुल हो उठती है l इस प्रकार दोनों अवस्थाओं में मार्मिक वेदना सहती है –
“अनुखन माधब माधब सुमरइते, सुंदरि भेलि मधाई l
ओ निज भाव सुभाबहि बिसरल, अपनेही गुन लुबुधाई ll.....” (पद संख्या 217)
राधा के वियोग में कृष्ण भी दुखी हैं l संयोग के समय का स्मरण कर वे कहते हैं –
“तिला एक सयन ओत जिब न सहए, न रहए दुहु तनु भीन ll
माँझे पुलक गिरि-अंतर मानए, अइसन रह निसि-दीन ll” (पद संख्या 219)
इस प्रकार विद्यापति ने श्रीकृष्ण के विरह के भी कुछ गीत कहे हैं व उभयपक्ष में समान विरह दर्शाकर उसकी विषमता का परिहार किया है l पर कवि ने राधिका के विरह-चित्रण में जो तल्लीनता दिखाई है वैसी श्रीकृष्ण के विरह में नहीं l
विद्यापति के काव्य में श्रृंगार का भाव-प्रवण चित्र प्रस्तुत हुआ है l कवि ने श्रृंगार रस के दोनों पक्षों का इतना मार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है कि आगे आने वाले श्रृंगारिक कवियों के लिए वे मार्गदर्शक के रूप में व उनका श्रृंगारिक काव्य अमूल्य निधि के रूप में है l श्रृंगार के अलावा विद्यापति की पदावली में अन्य रसों के भी छींटें भी मिल जाते हैं l वंदना व स्तुति के पदों व प्रार्थना और नचारी के पदों में भक्ति रस का निर्वाह दृष्टिगत होता है l दैन्य और विनय की अभिव्यक्ति जिन पदों में होती है उन्हें ‘नचारी’ कहते हैं l विद्यापति ने देवी और महादेव के संबंध में इस प्रकार के पद लिखे हैं जिनमे से महादेव के पद अधिक हैं l इनमें से कुछ पदों में तो शुद्ध भक्ति के दर्शन होते हैं तो कुछ में वचनभंगिमा अधिक है l एकाध पदों में शांत रस का प्रवाह भी हुआ है l शांत रस के पदों में वैराग्य भावना का ही विकास दृष्टिगोचर होता है, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इन पदों की रचना कवि ने अपनी प्रौढावस्था में ही की होगी l यथा –
“तातल सैकत बारि-बिंदु सम, सुत मित-रमनि-समाजे l
तोहि बिसारि मन नाहि समरपल, अब मझुहोब कोन काजे ll
माधब, हम परिनाम निरासा l” (पद संख्या 254)
राजा शिव सिंह के युद्ध-वर्णन में वीर-रस का परिपाक हुआ है l परन्तु श्रृंगार के अलावा अन्य रसों में कवि की रुचि कम रमी है l यत्र-तत्र अन्य रसों के कुछेक पद अवश्य मिल जाते हैं, परन्तु पदावली में प्रधानता श्रृंगार-रस की ही है l
Saturday, September 9, 2017
श्रृंगार रस
विद्यापति की सौंदर्य चेतना
वस्तु पक्ष:
विद्यापति सौन्दर्योपासक कवि थे। सौन्दर्य को उन्होंने देखा था, अनुभव किया था। वे सौन्दर्य के वायवी रूप के प्रति आकृष्ट होने वाले रहस्यवादी कवि नहीं थे, वे सौन्दर्य को बिलकुल साक्षात स्थूल रूप में देखने के अभ्यासी थे। सौन्दर्य उनके लिये सबसे बड़ा धर्म है, सबसे बड़ा कर्म। सौन्दर्य उनकी आंखो के सामने नाना रूपों में आता है, और विद्यापति सौन्दर्य के स्वागत में निरंतर जागरूक दिखाई पड़ते हैं”[1]।
यह सौंदर्य कैसा है? जिसके स्वागत में विद्यापति निरंतर जागरूक है। हमारे विवेचन का मुख्य आधार विद्यापति पदावली के पदों पर आप गौर करें तो आप पायेंगे कि विद्यापति के सौंदर्य चित्रण का पक्ष एकांगी नहीं है। प्रकृति, मानव और परिवेश और इनके बीच रिश्ते से बनने वाले जीवन, सभी का सौंदर्य विद्यापति के पदों में घनीभूत हो उठा है। प्रकृति और मानवीय रूप सौंदर्य के उपादान है। सौंदर्यपरक रचनाओं का मुख्य क्षेत्र भी यही हैं। अतः कवि विद्यापति की कविताओं का विषय यह उपादान है लेकिन विद्यापति ने इनके बीच ही मानव समाज विशेषकर उस समाज के जिसमें वे रहते थे के जीवन सौंदर्य को भी कविताओं में चित्रित किया है।
सौंदर्य चेतना का एक स्रोत रस भी है। रस के माध्यम से ही सौंदर्य ग्रहण भी होता है। विद्यापति शृंगार रस के सिद्ध वाक कवि हैं। इसलिये आइये हम पहले शृंगार के प्रसंग में विद्यापति की सौंदर्य चेतना पर विचार करते हैं. शृंगार के लिये आवश्यक है आलंबन और आश्रय आलंबन को देखने के बाद आश्रय में प्रेम जगता है जिसे संचारी भाव प्रगाढ़ करते हैं और आकर्षण का मुख्य कारण आलंबन का रूप सौंदर्य है। विद्यापति ने अपने नायक- नायिका राधा और कृष्ण के रूप का अत्यंत मनोहारी वर्णन किया है जो आश्रय को लुभाता ही है पाठकों को भी लुभाता है।
विद्यापति की राधा अपूर्व सुंदरी हैं जिसको विधाता ने पृथ्वी के लावण्य के अंश को लेकर रचा है और जिसको देखते है कवि का मन अधीर हो जाता है और उन के चरन तल में कितनी ही लक्ष्मी न्योछावर कर देना चाहते हैं और इतने विभोर हैं कि उनकी अभिलाषा होती है कि वे इस पद कमल को दिन रात अगोर कर रखें
देख देख राधा रूप अपार।
अपरूब के बिहि आनि मेराओल खित-तल लावनि सार॥
अंगहि अंग अनंग मुरछाएत हेरए पड़ए अथीर।
मनमथ कोटि-मथन करू जे जन से हेरि महि-मधि गीर॥
कत-कत लखिमि चरन तल नेओछये रंगिनि हेरि बिभोरि।
करु अभिलाख मनहि पदपंकज अहिनसि कोर अगोरि॥ (विद्यापति पदावली, पद संख्या 2 पृष्ठ: 36)
राधा के रूप वर्णन में विद्यापति ने अत्यंत रूचि ली है. शैशव से यौवनास्था के विकास के क्रम में शरीर में होने वाले परिवर्तनों को तो दर्ज किया है, जिसमें अत्यंत मांसलता है और वर्णन अत्यंत प्रकृतवादी हो जाता है लेकिन सौंदर्य वर्णन इसलिये विलक्षण हो उठता है क्योंकि वय परिवर्तन की अवस्था में राधा के मनोभावों को प्रकट किया गया है, सौंदर्य केवल उपस्थिति नहीं है वह उसके प्रकटीकरण में भी है कि वह किस तरह प्रकट होता है तब उसके प्रति कवि का ध्यान जाता है:
खने-खने नयन कोन अनुसरई;खने-खने-बसन-घूलि तनु भरई॥
खने-खने दसन छुटा हास, खने-खने अधर आगे करु बास॥
चऊंकि चलए खने-खने चलु मंद, मनमथ पाठ पहिल अनुबंध॥
हिर्दय-मुकुल हेरि हेरि थोर, खने आंचर देअ खने होए भोर॥
बाला सैसव तारुन भेट, लखए न पारिअ जेठ कनेठ॥
विद्यापति कह सुन बर कान, तरुनिम सैसव चिन्हए न जान॥ (पदावली पद संख्या-2, पृष्ठ संख्या-39)
एक ही शब्दों की आवृति (जैसे खने, हेरि) से विद्यापति ने पद में ही सौंदर्य नही रचा राधा के निश्छल सौंदर्य की भी व्यंजना की है. राधा ऐसी निश्छल है कि वह अपने आयु में परिवर्तन के इस चिह्न को नहीं पहचान पा रही है और इस दशा में अपने शरीर की भाव भंगिमा को भी नियंत्रित नहीं कर पा रही है। उसके स्वाभाव में एक विचलन आ गया है जो उम्र के वय संधि की वजह से है। विद्यापति ने इस आयुगत मनोभाव को खूब पकड़ा है।
राधा के नख शिख वर्णन में भी उन्होंने खूब रूचि ली है। नख शिख वर्णन के विविध पक्ष दरअसल नायिका वर्ण की रूढि के अंग है इसमें, नोंक झोंक, सद्य: स्नाता, मिलन, विरह इत्यादि के समय भी राधा के रूप से उनकी नजर नहीं हटी है. कृष्ण के नहीं आने से राधा बेहाल हो गई है। चंदन भी तीर की तरह बेध रहा है ,आभूषण भी उसके शरीर पर भारी लग रहे हैं, वह कृष्ण की बाट एक पैर पर खड़ी देख रही है और इस दशा में उसे अपने शरीर के वस्त्रों की भी सुधि नहीं है जो फटने को हो गई है
चानन भेल विषम सर रे, भूषण भेल भारी।
सपनहुं नहि हरि आएल रे, गोकुल गिरधारी॥
एकसरि ठाढ़ि कदम-तर रे, पथ हेरथि मुरारी।
हरि बिनु देह दगध भेल रे, झामर भेल सारी॥ ( विद्यापति पदावली, पद संख्या- 206 पृष्ठ संख्या -139)
कृष्ण जब भी नायिका को देख लेते हैं तो उन्हें अफसोस होता है कि उन्होंने भली प्रकार से नहीं देखा और फिर विद्यापति कृष्ण की नजरों से राधा के रूप का वर्णन करते हैं:
सहजि आनन सुंदर रे, भऊंह सुरेखलि आंखि।
पंकज मधु पिबि मधुकर रे, उड़ए पसारल पांखि॥
ततहि धाओल दुहु लोचन रे, जेहि पथममे गेलि बर नारि।
आसा लुबुधल न तजए रे, कृपनक पाछु भिखारी॥ (विद्यापति पदावली, पद संख्या- 33 पृष्ठ संख्या -52)
कृष्ण इस रूप को देखने कि अभिलाषा में ऐसे पीछे पड़े हैं जैसे आशा में चूर हुआ भिखारी कृपण का भी पीछा नहीं छोड़ता। कृष्ण जब तब राधा को देख लेते हैं और विचलित हो जाते हैं। विद्यापति ने राधा का चित्रण ऐसा किया है कि प्रतीत होता है कि वह कोई राजकुमारी नहीं है क्योंकि राजकुमारियों या रानियों को अपनी साड़ी की चिंता नहीं रहती। वह तो गांव पथ पर चलने वाली अल्हड़ किशोरी है.
कुंज-भवन सएं निकसलि रे, रोकल गिरधारी।
एकहि नगर बसु माधब रे, जनि करू बटमारी॥
छाड़ कान्ह मोरा आंचर रे, फ़ाटत नव –सारी।
अपजस होएत जगत भरि हे, जनि करऊ उघारी॥ (विद्यापति पदावली, पद संख्या- 59 पृष्ठ संख्या -67)
उपरोक्त पद में राधा को अपनी साड़ी की ही नहीं उसके फटने से होने वाले अपयस की चिंता है। कृष्ण ने उसका मार्ग रोक लिया है वह अकेली पड़ गई है इसलिये वह उसे बटमार कह कर संबोधित करती है. सौंदर्य की यह सहजता यह निर्दोषता ही विद्यापति की राधा और उनके सौंदर्य वर्णन की विशेषता है.
‘विद्यापति की राधा वह अपूर्व सौंदर्य मणि है जिसकी प्रभा से सभी पदार्थ प्रकाशित होते हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे पारस रूप कहा है जिसके स्पर्श से यह सारा संसार रूप ग्रहण करता है।
जहां जहां पग-जुग धरई, तंहि तहि सरोरूह भरई।
जहआं जहआं झलकत अंग तंहि तंहि विजुरी तरंग।
राधा जहां जहां पैर रखती है वहां वहां सरोवर बन जाता है, जैसे ही उसके शरीर का अंग झलकता है तो लगता है कि बिजलि दमक रही है। राधा के इस पारस रूप को विद्यापति ने सम्पूर्ण श्रद्धा और हृदय की पवित्रता से निर्मित किया है, इसमें जो लोग शृंगार का पार्थिव रूप चित्रण मात्र खोजना चाहे, उन्हें कौन रोक सकता है” किंतु विद्यापति का यह वर्णन राधा के सौन्दर्य की दिव्यता का प्रकाशक भी है, इसमें संदेह नहीं’[2]।
विद्यापति केवल राधा के ही नहीं कृष्ण पर भी मुग्ध हैं| वह कृष्ण की उपमा चंदन, चंद्रमा, मणि, स्वर्ण इत्यादि से करते हुए किसी को उनके योग्य नहीं पाते। कृष्ण की मानवीय छवि स्वप्न पुरूषों की है जिसे देख कर राधा चकित है.
ए सखि पेखलि एक अपरूप। सुनईत मानब सपन-सरूप॥
कमल जुगल पर चांदक माला। तापर उपजल तरुन तमाला॥
तापर बेढ़लि बीजुरि-लता। कालिंदी तट धिरें धिरें जाता॥
साखा-सिखर सुधाकर पांति। ताहि नब पल्लब अरुनिम कांति।
बिमल बिंबफल जुगल विकास। तापर कीर थीर करु बास॥
तापर चंचल खंजन –मोर। तापर सांपिनी झांपल मोर॥
ए सखि रंगिन्नि कहल निसान। हेरैत पुनि मोर भेल गेआन॥
कवि विद्यापति एह रस भान। सुपुरूख मरम तोहें बलि जान॥ (विद्यापति पदावली, पद संख्या- 36 पृष्ठ संख्या -54)
राधा ने एक अपूर्व स्वप्न पुरूष को देखा है जिसके सौंदर्य की अद्भूत प्रभाव से उसका हृदय सम्मोहित हो जाता है वह अपना सुध बुध खो बैठती है और उसकी सहेलियां कहती हैं कि यह सुपुरूष तुम्हें मिलेगा यह निश्चित है।
शिव प्रसाद सिंह लिखते हैं कि “विद्यापति वस्तुतः सौंदर्य के कवि हैं। सौंदर्य उनका दर्शन है, सौंदर्य उनकी जीवन दृष्टि। इस सौदंर्य को उन्होंने नाना रूपों में देखा था, इसे कुशल मणिकार की तरह उन्होंने चुना, सजाया, संवारा और आलोकित किया था। सौंदर्य मन को कितना भाव विह्वल कर देता है, इसे विद्यापति जानते थे। इसलिये उन्होंने प्रायः ‘अपरूप’ या सौंदर्य की अपूर्वता की एक सजीव पदार्थ के रूप में ग्रहण किया था”[3]। यह अपूर्वता बार बार उनके वर्णनों में आता है.
‘ए सखि पेखलि एक अपरूप’, ‘सजनी अपरूप पेखल रामा’, ‘ए सखि पेखलि एक अपरूप’, ‘अपरूप के बिधि आनि मेराओल’, ‘ता पुन अपरुब देखल रे’, इत्यादि अनेर्क ऐसी पंक्तियां है जिसमें वह रूप की अपूर्वता का वर्णन करते हैं और यह अपूर्व त्रिभुवन को भी जीत लेने की क्षमता रखता है:
‘अपरूब रूप मनोभव मंगल, त्रिभूवन विजयी माला’
यह अपरूप एक ऐसी ताकत है जो संपूर्ण विश्व के अणु-परमाणू में चेतना का संचार करती है. इस सौन्दर्य की सबसे बड़ी विशेषता है चिर नूतनता. प्रत्येक क्षण यह सौन्दर्य नूतन रूप में सामने आता है। जिसके लिये विद्यापति कहते हैं कि जन्म भर वे इसे देखते रहे फिर भी उनका मन तृप्त नहीं हुआ। अतृप्ति का यह भाव विद्यापति की सौंदर्य चेतना की मुख्य विशेषता है। वे सौंदर्य को देखते हुए उसका चित्रण करते हुए अक्सर यह प्रतीत कराते हैं कि उन्होंने न भली प्रकार देखा और न भली प्रकार वर्णित किया।
सखि कि पुछसि अनुभव मोए
से हे पिरित अनुराग बखानिए तिल तिल नुतन होए
जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल
सेहो मधु बोल स्र्वनहिं सुनल श्रुतो पथ परस न भेल[4].
विद्यापति अक्सर इस पछतावे में रहते हैं कि उन्होंने रूप को जी भर कर नहीं देखा। कुछ न कुछ उनसे छुटता ही रहता है। उन्होंने जीवन भर रूप का पान किया है लेकिन फिर भी उनका मन तृप्त नहीं हुआ। आखिर कैसे हो सकता है! यह कवि विद्यापति के नेत्र हैं जो जीवन के सुंदरतम रूप के संधान में रहते हैं और उनको अपनी कविता में प्रकाशित करते रहते हैं। विद्यापति के काव्य में सौंदर्य केवल जीवन के सुखद पक्ष से जुड़ा नहीं है अवह जीवन के कठिनतम क्षण को भी अपनी कविता में ‘सुन्दर’ रूप में पेश करते हैं जो भावक के हृदय में पिड़ा का संचार करता हैसाथ ही अपने सामाजिक पक्ष को भी उजागर करते हैं।
निराला ने लिखा है कि ‘विद्यापति सौन्दर्य के श्रष्टा भी जबरदस्त थे और सौन्दर्य में तन्मय हो जाने की शक्ति भी उनकी अलौकिक थी। कवि की यह बहुत बड़ी शक्ति है कि वह विषय से अपनी सत्ता को पॄथक रख कर उसका विश्लेषण भी करे और अपनी इच्छानुसार उसमें मिलकर एक भी हो जाये’[5]
विद्यापति की सौंदर्य चेतना का एक स्रोत मनुष्य और उसका जीवन है तो एक स्रोत प्रकृति है जिससे मनुष्य सबंधित है और अपने भावों को एकाकार करता है. ‘प्रकृति विद्यापति के काव्य में दो प्रकार से उपस्थित होती है. एक तो वह आलंबन या वर्ण्य विषय के रूप में दिखाई पड़ती है, कहीं वह मात्र उद्दीपन बनकर आती है. विद्यापति ने काव्य की कई रूढ़ियों से प्रकृति का वर्णन किया है लेकिन उनका सौन्दर्य अधिक मुखर वहां हुआ है जब प्रकृति का रूप मनुष्य के भावों के साम्य और वैपरित्य में आकार लेने लगता है.
प्रकृति वर्णन का यह चित्र अनूठा है जिसमें मनुष्य के भावों के प्रतिकुल प्रकृति अवसर बना देती हो. प्रेमिका के संकेत से प्रेमी उससे मिलने के लिये निकल पड़ा है लेकिन अब प्रकृति ने ऐसा मौसम उपस्थित किया है कि प्रेमिका का घर से निकलना कठिन हो रहा है। यहां विद्यापति ने प्रकृति के विषम रूप से मिलन को आतुर प्रेमिका के हृदय की साम्यता करा कर मनुष्य के मनोभाव के सौंदर्य को उजागर किया है ।
गगन अब घन मेह दारुन, सघन दामिनि झलकई।
कुलिस पातन सबद झनझन, पवन खरत बलगई॥
सजनी, आजु दुरदिन भेल।
कंत हमर नितांत अगुसरि, संकेत –कुंजहि गेल॥
तरल जलधर बरिख झरझर, गरज घन घनघोर।
साम नागर कईसे एकसर पंथ हेरए मोर॥
सुमरि मोर तनु अबस भेल जनि अतिसे थर-थर कांप।
इ मोर गुरुजन नयन दारुन, घोर तिमिरहि झांप॥
तुरित चल अ किए बिचारसि, जिबन हरि अनुसार।
कबीसेखर बचन अभिसर, किए से बिघिन बिथार॥(विद्यापति पदावली, पद संख्या-112, पृ. संख्या- 91)
आकाश मेघों से भर गया है. बिजली चमक रहे हैं, हवा के जोर से पेड़ पत्ते आवाज कर रहे हैं। दुर्दिन उपस्थित हो गया है क्योंकि नायिका के संकेत से श्याम कुंज की ओर चले गये हैं तभी बारिश शुरू हो गई है। नायिका की मनोदशा है कि श्याम वहां बारिश में अकेले रास्ता देखते हुए भीग रहे होंगे और नायिका इस अंधकार, घनघोर बारिश में उस तक पहुंचे कैसे। विद्यापति की सौंदर्य चेतना कि विशेषता इन्हीं पदों में है जहां वह बाह्य से परे हो कर अंतः में जाते हैं और इस वर्णन में एक सापेक्षता भी है, नायिका को अपने निकलने और श्याम के अकेले होने की दोहरी चिंता हो गई है।
बिरह में प्रकृति अक्सर विषम बन जाती है उसका सुन्दर रूप भी विरहणी को सताता है जो सामान्य तौर पर सुंदर लगता लेकिन अब स्थिति विपरित है:
सखि हे हमर दुखक नहि ओर
इ भर बादर माह भादर सुन मंदिर मोर॥
झांपि घन गरजति संतत, भुवन भरि बरंसतिया।
कन्त पाहुन काम दारुन, सघन खर सर हंतिया।
कुलिस कत सत पात, मुदित, मयूर नाचत मातिया।
मत्त दादुर डाक डाहुक, फाटि जायेत छातिया।
तिमिर दिग भरि घोरि यामिनि, अथिर बिजुरिक पांतिया।
विद्यापति कह कैसे गमाओब, हरि बिना दिन- रातिया॥ (विद्यापति पदावली, पद संख्या- 199, पृ. सं.136)
भादो का महीना है लेकिना प्रिय के बिना नायिका का मन मंदिर सुना है। आकाश मेघों से भरा हुआ है और धारासर वर्षा हो रही है और यह मौसम काम के तीर की तरह नायिका को बेध रहा है, मयुर, दादुर मत्त है लेकिन बिजली की चमक मन को अस्थिर कर रही है. प्रिय के बिना नायिका को दिन रात बिताना मुश्किल हो रहा है। यही प्रकृति मिलन के क्षणों में सुखद हो जाती है। उसका रंग मन को भाने लगता है।
हे हरि हे हरि सुनिअ स्र्वन भरि, अब न बिलासक बेरा।
गगन नखत छल से अबेकत भेल, कोकुल कुल कर फेरा॥
चकबा मोर सोर कए चुप भेल, उठिअ मलिन भेल चंद।
नगरक धेनु डगर कए संचर, कुमुदनि बस मकरंदा।
मुख केर पान सेहो रे मलिन भेल, अबसर भल नहि मंदा।
विद्यापति भन एहो न उचित थिक, जग भरि होएत निंदा ( विद्यापति पदावली, पद संख्या – 87, पृ.सं.80)
मिलन की रात की भोर हो चुकी है नायिका नायक को जगा रही है। कि आकाश में नक्षत्र विलोपित हो गये हैं पक्षियों ने कलरव करना शुरू कर दिया है, चकबा और मोर शोर करके चुप हो गये है. चंद्रमा मलिन हो चुका है, नगर की गाय चरने के लिये रास्ते पर जा रही है अतः यह जागने का समय है बिलास का नहीं। मिलन औरे विरह में वर्णित प्रकृति वर्णनों पर गौर करने पर पता चल जाता है कि यह सौंदर्य ग्रामीण अंचल का सौंदर्य है और इसमें क्रियाव्यापर भी होते हैम जो इन अंचलों में होता है. एक तरह से विद्यापति नायक-नायिका के मनोभावों के बहाने प्रकृति का वर्णन करते हुए ग्रामीण सौंदर्य को भीउजागर कर रहे हैं।
ऋतु वर्णन काव्य की एक रूढि है। विद्यापति का काव्य में ये रूढ़ियां भी हैं। उनहोंने बारहमासा के वर्णन में भी ऋतुओं और उनके अनुसार प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों और उससे उपजे सौंदर्य का चित्रण किया है। लेकिन उनका अबसे अधिक मन वसंत के चित्रण में रमा है क्योंकि वसंत के समय धरती का सौंदर्य द्विगुणित हो जाता है। वसंत एक ऐसा ऋतु है जो मनुष्य के लिये प्रीतिकर है। इसलिये वसंत आगमन के इस उल्लास को विद्यापति ने अपने कविता में तरह तरह से चित्रित किया है। वह उसके स्वागत के लिये अधीर हैं:
“आएल रितुपति राज वसंत। घाओल अलिकुल माधबि –पंथ॥
दिनकर-किरन भेल पौगंड। केसर कुसुम धएल हेमदंड॥
नृप आसन नव पीठल पात। कांचन कुसुम छत्र धरू माथ॥ ( विद्यापति पदावली, पद संख्या-175)
रितुओं के राजा वसंत का चित्रण कवि ऐसे करता है मानो स्वयं वसंत मनुष्य रूप धर कर मनुष्य के जीवन में आया ह इस वसंत को नया आसान देना चाहिये और इसके माथे पर छत्र देना चाहिये। ऐसा करते हुए कवि वसंतागन से होने वाले परिवर्तनों और बढ़ी हुई शोभा का भी चित्रण करता है।
विद्यापति की सौंदर्य चेतना केवल प्रकृति और मानवीय रूप के वर्णन में ही विन्यस्त नहीं है। इसकी सर्वाधिक आभा वहां देखी जा सकती है जहां विद्यापति ने ग्राम्य जीवन के उल्लासों को कविता में वर्णित किया है। जिसमें मिथिला की नारियों के हृदय से उन्होंने आवरण हटा दिये हैं. ऐसे पद रीति रिवाजों में आज भी प्रयुक्त होते हैं। वह चाहे भगवती गीत हों, बटगमनी हो, सोहर हो. नचारी इनमें अदभूत हैं जिसमें मिथिला की नारियां शिव के विद्रुप पर इस तरह व्यंग्य करती है कि वह कविता में सुंदर होकर सामने आता है, शिव के विकराल रूप गौण हो जाता है और नारियों का तीक्ष्ण हास्य व्यंग्य मुखर हो जाता है:
गौरा तोर अंगना।
बर अजगुत देखल तोर अंगना।
एक दिस बाघ सिंह करे हुलना ।दोसर बरद छैन्ह सेहो बौना।।
कार्तिक गणपति दुई चेंगना। एक चढथि मोर एक मुसना।।
पैंच उधार माँगे गेलौं अंगना । सम्पति मध्य देखल भांग घोटना ।।
खेती न पथारि शिव गुजर कोना। मंगनी के आस छैन्ह बरसों दिना ।।
भनहि विद्यापति सुनु उगना ।दरिद्र हरन करू धएल सरना ।।
एक ग्राम्य नारी गौरी के घर गई हैं और वहां अद्भूत दृश्य देखती हैं। शिव के घर में बाघ है, बैल है, उनके दो पुत्र हैं जो मयूर और चूहे पर चढ़ते हैं। वह नारी उधार मांगने गई है लेकिन वह आश्चर्य में है कि शिव का घर तो खुद दारिद्रय झेल रहा है, वह सोचती है शिव के परिवार का गुजारा कैसे होगा। अब यह पद किसी भगवान का पद हो सकता है! विद्यापति ने शिव को भी साधारण गृहस्थ बना कर प्रस्तुत किया है।
इस प्रकार सौन्दर्य अनेक रूपों में विद्यापति के काव्य में सामने आता है। कवि की सौन्दर्य चेतना केवल इस बात में निहित नहीं है कि वह सौन्दर्य के किन पक्षों को अपनी कविता में दर्ज करता है, किन पहलुओं को सुन्दरता में पेश करता है बल्कि इस बात पर भी हि कि वह इन पहलुओं को अपनी कविता में कैसे पेश करता है\ कवि की सौन्दर्य चेतना का स्तर इस बात से ही पता लगाया जा सकता है कि उसकी कविता- कला में कितना सौन्दर्य है। वह एक सी प्रकृति, एक से मनोभाव, एक से सामाजिक स्थिति को कैसे अपनी कविता में अपने हाथों की विशिष्ट छाप दे कर गढ़ कर सामने लाता है जिसे पढ़ने के बाद हम अनायास ही पहचान जाते हैं कि यह अमुक कवि की कविता है। यह पहचान उसी सौन्दर्य चेतना से आती है जिसमें कवि अपनी कविता को सजग भाव से ग्राहय बना कर सामने लाता है। इन कविताओं के गठन पर उस कवि के हाथों की स्पष्ट छाप होती है। इसलिये यह आवश्यक है कि हम काव्य सौंदर्य के इस कला पक्ष का भी अवलोकन करें।
[1] शिवप्रसाद सिंह(2002) :24
[2]शिव प्रसाद सिंह (2002) : 156
[3] शिव प्रसाद सिंह (2002) :154
[4] शिव प्रसाद सिंह(2002): 24
[5] वही : 26