Monday, August 1, 2022

एक और द्रोणाचार्य नाटक

 ‘एक और द्रोणाचार्य नाटक’ का मुख्य बिंदु  

  • एक और द्रोणाचार्य’ नाटक का प्रकाशन 1977 में हुआ था। कुछ लोग इस नाटक का प्रकाशन वर्ष 1971 भी बताते हैं।
  • शंकरशेष हिन्दी के साठोत्तरी पीढ़ी के सुप्रसिद्ध नाटककार थे। वे कवि और कहानीकार भी थे किन्तु नाटककार के रूप में वे अधिक प्रसिद्ध हुए।
  • एक और द्रोणाचार्य नाटक में वर्तमान शिक्षक की तुलना उस द्रोणाचार्य से किया है जिसने एक शिक्षक को अपने सिद्धान्तों से समझौता करते हुए अन्याय सहने की परम्परा दे दिया।
  • नाटककार ने पौराणिक कथा के माध्यम से आधुनिक समस्या का हल ढूंढने का प्रयास किया है।  
  • इस नाटक में नाटककार ने वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार, पक्षपात, राजनितिक घुसपैठ तथा आर्थिक एवं सामाजिक दबावों के चलते निम्न मध्यवार्गीय व्यक्ति के असहाय बेबस चरित्र को उद्घाटित किया है।
  • महाभारत कालीन प्रसिद्ध पात्र द्रोणाचार्य के जीवन प्रसंगों को आधार बनाकर वर्तमान विसंगति को दिखाया गया है।
  • नाटक का दो भागों में विभाजन किया गया है। पूर्वार्ध और उत्तरार्द्ध। पूर्वार्ध में चार (4) दृश्य हैं। उत्तरार्द्ध में सात (7) दृश्य हैं।

नाटक का पात्र परिचय: इस नाटक में दो तरह की कहानियाँ चलती है। दोनों कहानियों के पात्र अलग-अलग हैं। एक कहानी महाभारत के द्रोणाचार्य की है और दूसरी कहानी आज के समय के प्रोफेसर अजय की है।

पौराणिक पात्र: द्रोणाचार्य, एकलव्य, कृपी (द्रोणाचार्य की पत्नी), अश्वस्थामा (द्रोणाचार्य का पुत्र), भीष्म, अर्जुन, युधिष्ठिर, सैनिक।

आधुनिक पात्र:

अरविंद: (नाटक का प्रमुख पात्र प्रोफेसर)

लीला: अरविंद की पत्नी

यदू: अरविंद का साथी, जूनियर प्रोफ़ेसर

प्रिसपल: 60 वर्ष का है

चंदू: अरविंद का छात्र 20 वर्ष,

अरविंद के कॉलेज का प्रेसिडेंट

विमलेंदु: मृत शिक्षक

अनुराधा: छात्रा, 20 वर्ष की

एक और द्रोणाचार्य नाटक की कथानक: इस नाटक में महाभारत कालीन गुरु द्रोणाचार्य के जीवन के प्रसंगों की संवेदनशील झाँकियाँ प्रस्तुत की गई है। अश्वस्थामा का कृपी से दूध पिने की याचना करना, द्रोणाचार्य का कौरव-पाण्डव कुमारों का आचार्य बनना, एकलव्य से गुरु दक्षिणा के रूप में अंगूठा माँगना, द्रोपदी का चीरहरण करना और युधिष्ठिर का ‘नरों वा कुंजरों वा अर्द्धसत्य इन सभी प्रसंगों के आधार पर प्रोफ़ेसर अरविंद के जीवन की त्रासदी को अभिव्यक्त किया गया है।

      अरविंद एक मध्यवर्गीय, आदर्श और सिधान्तों पर चलनेवाला व्यक्ति है। वह एक प्रईवेट कॉलेज का अध्यापक है। उसपर अपनी कैंसरग्रस्त माँ और विधवा बहन की जिंदगी निर्भर है। लड़का मेडिकल कॉलेज में भरती होने वाला है। अरविंद के कॉलेज का प्रेसिडेंट एक व्यापारी है, उसने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए शिक्षण संस्थाएँ खोली है। वह कॉलेज के प्रिंसपल को प्रलोभन और धमकियाँ देकर ग्रान्ट के रुपये लेकर अपने लेन-देन के व्यवसाय में लगा देता है और हजारों रुपये कमाकर कॉलेज को लौटाता है।

प्रेसिडेंट का लड़का राजकुमार कॉलेज में पढता है जिसे परीक्षा में नक़ल करते हुए अरविंद पकड़ लेता है। इसकी रिपोर्ट वह यूनिवर्सिटी को भेजकर आदर्श शिक्षा प्रणाली का पालन करता है। अरविंद की पत्नी लीला और मित्र यदू प्रत्याघातों से विचलित हो, उसे कभी भी न्याय और सत्य के दुर्लंघ्य रास्ते पर चलने से रोकते है। उनका हौसला तोड़ते हुए यदु कहता है, “राजकुमार का विरोध करोगे तो हत्या। चंदू का विरोध करोगे तो सामाजिक हत्या। हत्या से बच नहीं सकते तुम।” राजकुमार और उसके साथी बड़े ही क्रूर है, “अगर ये लोग विमलेंदु की हत्या कर सकते हैं  तो तुम्हारी क्यों नहीं।” न्यायप्रिय, सत्यवक्ता, सच्चरित्र व्यक्ति होने के बावजूद अरविंद कोई भी साहसी निर्णय नहीं कर पाता है। और विरोध की तकलीफ-देह भाषा की जगह समझौते की सुविधाप्रद भाषा बोलने लगता है और सत्ता के कभी भी नहीं टूटने वाले चक्रव्यूह में फँसकर मात्र “बड़े-बड़े निरर्थक शब्द थूकने वाला नपुंसक बुद्धिवादी” बनकर रह जाता है। अपने प्रिय छात्र चंदू का धैर्य बंधाकर वह प्रेसिडेंटके दबावों के आगे झुक जाता है। इतना ही नहीं चंदू को छात्रों को भड़काने के अभियोग में कॉलेज से निकाल दिया जाता है।

प्रेसिडेंट अपने वादे के अनुसार अरविंद को प्रिंसपल बना देता है। एक दिन राजकुमार कॉलेज की छात्रा अनुराधा की एकांत का लाभ उठाकर उसे बालात्कार करने की कोशिश करता है। संयोग से उस दिन अरविंद वहाँ पहुँचता है और अनुराधा को बचा लेता है। अनुराधा उसके कहने पर राजकुमार के विरुद्ध रिपोर्ट कर देती है किन्तु इस बार भी प्रेसिडेंट बीच-बचाव का रास्ता ढूंढकर केस को रफा-दफा कर देता है। अनुराधा इस मामले में दृढ़ता से आगे बढ़ती है पर राजकुमार के गुंडे उसे मारकर रास्ते पर फेंक देते हैं। लोग उसे आत्महत्या समझते हैं।

यह कहानी एक मोड़ लेता है। प्रेसिडेंट बीमार पड़ जाता है। ब्लडप्रेशर की तकलीफ से निस्तार पाने के लिए वह डॉक्टर की सलाह से सुबह-शाम घूमने जाने के लिए तैयार हो जाता है।  अब प्रेसिडेंट रोज अरविंद के साथ टहलने जाने लगता है और वह एक शाम गिरकर मर जाता है। अरविंद पर प्रेसिडेंट को धकेल कर मार देने का अभियोग चलाया जाता है। चंदू चश्मदीद गवाह के रूप में अरविंद के खिलाफ गवाही देता है। यह नाटक चंदू के अर्ध सत्य के साथ ही समाप्त हो जाता है।   

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Wednesday, July 27, 2022

अंधेर नगरी

अंधेर नगरी चौपट राजा को किसने क्या कहाँ?

1• कालजयी कृति- डॉ. रामविलास शर्मा
2• सदाबहार नाटक- ब.व कारन्त
3• शुद्ध प्रहसन- गोपीनाथ तिवारी
4• शाश्वत अंधेर नगरी का नाटक- सिद्धनाथ कुमार
5• क्लासिक कृति- विपिन अग्रवाल
6• अंधेर नगरी अंग्रेजी राज्य का दूसरा नाम है- रामविलास शर्मा
7• अंधेर नगरी में यथार्थपरकता और शैलीबद्धता का बड़ा आकर्षक मिश्रण है- नेमिचन्द्र जैन

नाटक का उद्देश्य:-
इस प्रहसन के दो उद्देश्य हैं-
1•गोबरधनदास के द्वारा मनुष्य की लोभवृति पर व्यंग्य
लोभ पाप का मूल है, लोभ मिटावत मान ।।
लोभ कभी नहिं कीजिए, या में नरक निदान।।

2•मूल्यहीन राजा की परिणति का दिग्दर्शन
जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज।
 ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥

नाटक की भूमिका में गिरीश रस्तोगी ने लिखा है:-
"अंधेर नगरी अन्धव्यवस्था का प्रतीक है।चौपट राजा विवेकहीनता और न्याय दृष्टि के न होने पर मूर्त स्वरूप है।लोभवृति ही मनुष्य को अंधेर नगरी की अन्धव्यवस्था, अमानवीयता में फँसती है।अंग्रेजों की न्याय दृष्टि और प्रणाली में भी शोषक-शोषित अपराधी-निरापराधी में कोई अंतर नहीं था।आज भी हमारी न्याय-प्रणाली की यही स्तिथि है।हमारी समकालीन शासनाव्यस्था पर,शोषकवृति पर 'अंधेर नगरी' एक कटु व्यंग्य है।"


रचनाकाल - 1881
1.यह लोककथा पर आधारित नाटय रचना है।

2.इसमें भारतेंदु जी ने राज-व्यवस्था,उच्च वर्गों की खुशामदी,जाति प्रथा की आलोचना की हैं।

3.यह एक प्रहसन है जिसका उद्देश्य लोभी व चौपट राजा की परिणति का वर्णन करना है।

4.इसमें यह दिखाया गया है कि जिस राज्य में चौपट राजा जैसा शासन हो वहां विवेक का प्रयोग नहीं होता तथा प्रजा की दशा अत्यंत दयनीय हो जाती है।

प्रहसन 

प्रहसन की कथा प्रायः काल्पनिक होती है और उसमें हास्यरस की प्रधानता रहती है। उसके विविध पात्र अपनी अद्भुत चेष्टाओं द्वारा प्रेक्षकों का मनोरंजन करते हैं।प्रहसन का प्रत्यक्ष प्रयोजन मनोरंजन ही है; किन्तु अप्रत्यक्षतः प्रेक्षक को इससे उपदेशप्राप्ति भी होती है।

हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग में प्रहसनों की रचना की ओर भी ध्यान दिया गया है। भारतेन्दु हरिशचंद्र (वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, "अंधेर नगरी", "विषस्यविषमौषधम्") प्रतापनारायण मिश्र ("कलिकौतुक रूपक") बालकृष्ण भट्ट ("जैसा काम वैसा दुष्परिणाम"), राधाचरण गोस्‍वामी ("विवाह विज्ञापन"), जी. पी. श्रीवास्तव ("उलट फेर" "पत्र-पत्रिका-संमेलन") पांडेय बेचन शर्मा उग्र ("उजबक", "चार बेचारे"), हरिशंकर शर्मा (बिरादरी विभ्राट पाखंड प्रदर्शन, स्वर्ग की सीधी सड़क), आदि इस युग में सफल प्रहसनकार हैं। इन सभी ने प्राय: धार्मिक पाखण्ड, बाल एवं वृद्ध विवाह, मद्यपान, पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव, भोजनप्रियता आदि विषयों को ग्रहण किया है और इनके माध्यम से हास्य व्यंग्य की सृष्टि करते हुए प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रीति से इनके दुष्परिणामों की ओर संकेत किया है।



विशेष  बात :-


 अंधेर नगरी चौपट्ट राजा को इस जानकारी के साथ ही पढ़ना चाहिए कि यह नाटक रँगकर्मियों के एक दल हिंदू नेशनल थिएटर की जरूरत के लिए एक ही दिन में लिखा गया और इसके लिये भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पारसी और लोक रंगमंच पर प्रचलित एक प्रहसन को मौलिक प्रतिभा का स्पर्श देकर ऐसे रूपक में तब्दील कर दिया जो 1881 के समाज से अधिक आज के समाज का रूपक बनता जा रहा है लेकिन उस रूप में नहीं जिस रूप में 1881 का समाज थाजब समाज की नियम शक्तियां उपकरण और सामाजिक सम्बंध बदल गए हैं तो अंधेर नगरी की व्यवस्था और राज्य कीऑपरेटिंग तकनीक भी बदल गई हैजिसकी शिनाख्त हम अंधेर नगरी के पाठ में करते हैं और इसे खेलते हुए निर्देशक संवादों के बीच से अपने समय के भाष्य के लिए प्रस्तुति तैयार करते हैं. नाटक के पाठ में जाने से पहले यह भी जान लेना चाहिए कि भारतेंदु अपने निबंध नाटक अथवा दृश्यकाव्य में प्रहसन की जो परिभाषा निश्चित करते हैं अंधेर नगरी उसका उदाहरण है “ हास्यरस का मुख्य खेल. नायक राजा वा धनी वा ब्राह्मण वा धूर्त कोई हो. इसमें अनेक पात्रों का समावेश होता है. यद्यपि प्राचीन रीति से इसमें एक ही अंक होना चाहिए किंतु अब अनेक दृश्य दिए बिना नहीं लिखे जाते. नाटक की कथा को लेकर जिस विचित्रता और पूर्वापरबद्धता का आग्रह भारतेंदु अपने सिद्धांत में करते हैं कि नाटक की कथा को जब तक अंत तक ना पढ़ा जाए उसकी समाप्ति का पता न लगे उसका निर्वाह भी करते हैं, यद्यपि यह लोक प्रचलित कथा हैI

 

नाटक को पढ़ते हुए एक बात पर ध्यान जाता है कि नाटक में बहुत सारे नीति के उपदेश हैं जो समय समय पर महंत अपने चेलों को देते हैं और प्रकारांतर में भारतेंदु जनता को, पाठक को, दर्शकों को ,यही वो उपदेश हैं जो अपने समय को और आनेवाले समय को भी सम्बोधित है. ‘अंधेर नगरी’ की शुरुआत ही संस्कृत के श्लोक से होती है जो सम्भवतभारतेंदु का ही हैइस श्लोक का आशय पढ़ना दिलचस्प है क्योंकि यह नाटक के पाठ को पढ़ने का सूत्र प्रदान करता है  या यूं कह सकते हैं कि  इस सूत्र वाक्य को कथा का विस्तार करके नाटक के दृश्यों के सहारे जनता तक एक चेतना भारतेंदु सन्देश के रूप में पहुंचाना चाहते हैं।


छेदश्चन्दनचूतचंपकवने रक्षा करीरद्रुमे
हिंसा हंसमयूरकोकिलकुले काकेषुलीलारतिः
मातंगेन खरक्रयः समतुला कर्पूरकार्पासियो:
एषा यत्र विचारणा गुणिगणे देशाय तस्मै नमः
 श्लोक का आशय है:
जिस देश में चन्दन आम और चम्पक वन में कुल्हाड़े से काट पीट की जाती हैऔर शाखोटक अर्थात् तुच्छ वृक्षों की रक्षा की जाती हैहंसमोर और कोकिलों के समुदाय में हिंसा की जाती है और कौवों का सदा आदर होता है
 
हाथियों को बेचकर गधे खरीदे जाते हैंकपूर और कपास जहाँ एक समान होंजिस देश वालों के ऐसे विचार हैंउस देश को दूर से ही नमस्कार हैअर्थात् उसे छोड़ देना ही बेहतर है।


नाटक के दो दृश्यों पर विशेष रूप से ध्यान जाता है- एक बाजार का दृश्य और दूसरा राजसभा का. नाटक का रूपक अपने समय का अतिक्रमण कर व्याप्त होता है इसमें यही दो दृश्य सहायक हैं. बाजार के दृश्य में क्या है? व्यपारियों  की जमात है. बाजार के किरदार हैं-  कबाबवालाचनावालानारंगीवालीहलवाईकुजड़िन, मुगलपाचकवालामछलीवालीजातवला... यहां रूकने की जरूरत है क्योंकि जात वाले के आगे रंग संकेत हैं ब्राह्मणयही एक जाति है जिसका नाम है इसके ठीक बाद है बनियालेकिन बनिया एक जाति समूह है जिसमें कई जातियां हैं. भारतेन्दु ने इस ब्राह्मण वर्चस्व पर जबरदस्त प्रहार किया है और उनके दोहरेपन को उजागर किया है जिसके तहत उन्होंने समाज का आदर्श कुछ और बनाया और कर्म कुछ और किए. भारतेंदु के प्रसिद्ध निबंध भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है को अगर पढ़ें तो साफ समझ आएगा कि अंधेर नगरी का यह पात्र ब्राह्मण इसलिए है क्योंकि  वह उस समाज और वर्ग का प्रतिनिधि है जिसने समाज को जड़ बनाया है और उसकी उन्नति को बाधित किया है. इस पात्र के संवाद को पढ़ ही लेना चाहिए...
जातवाला-  (ब्राह्मण)-जात ले जातटके सेर जात। एक टका दोहम अभी अपनी जात बेचते हैं। टके के वास्ते ब्राहाण से धोबी हो जाँय और धोबी को ब्राह्मण कर दें टके के वास्ते जैसी कही वैसी व्यवस्था दें। टके के वास्ते झूठ को सच करैं। टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमानटके के वास्ते हिंदू से क्रिस्तान। टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठा दोनों बेचैंटके के वास्ते झूठी गवाही दें। टके के वास्ते पाप को पुण्य मानैबेचैंटके वास्ते नीच को भी पितामह बनावैं। वेद धर्म कुल मरजादा सचाई बड़ाई सब टके सेर। लुटाय दिया अनमोल माल ले टके सेर।
वेदधर्म मर्यादा सत्य सब बिकाऊ है और कितने पर? टके सेरऔर इसी तक के वास्ते जैसी चाहे व्यवस्था ले लीजिए, आज भी सत्ता पोषित यह वर्गअगर ब्राह्मण शब्द से आशय आज के संदर्भ  में व्यवस्था बनाने और चलाने वाली नियामक शक्तियों और वर्ग से लें तो इस वर्ग के लिए भी सत्यधर्म, मर्यादा सब बिकाऊ है और पैसे या अपनी व्याख्या, सुविधा के हिसाब से वे व्यवस्था को तोड़ा मरोड़ रहे हैं .